शनिवार, 23 मई 2020

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सोमवार, 18 मई 2020

Part Time/ Full Time Job पार्ट टाइम/फुल टाइम जोब पाएं।

Job Oriented Best Platform. 👉 Mall91

यदि आप बेरोजगार हैं तथा कुछ करने के लिए बेताब हैं तो आप हमारे साथ जुड़कर घर बैठे-बैठे फोन काॅल या कन्टेन्ट राइटिंग या टाइपिंग वर्क करके अपनी बेरोजगारी खत्म कर सकते हैं तथा उसके जरिये अच्छी अर्निंग कर सकते हैं। खास बात कि 👉 आप यह सब अपने घर पर परिवार के साथ रहते हुए कर सकेंगे।
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*बधाई हो!! भारत देश का अपना नया एप्प शुरू हो गया हैं।*  जिसका नाम है   - *Mall91*,
           जी हां!! हमारे  🇮🇳भारत ने *Mall91* नाम से  *Alibaba* और *Amozan* से भी ज्यादा अच्छा एक *स्वदेशी* एप्प बनाया है। इसे आज ही Install करें। *स्वदेशी अपनाएं।* 🙏🙏

👉🇨🇳 *Alibaba* ऑनलाइन खरीदारी *चीनी ऐप* और सभी *TikTok* आदि *चीनी app* को अपने *मोबाइल से दूर हटाएं*।

          इसके साथ-साथ *अमेजन* और *फ्लिपकार्ट* जैसे *अमेरिकन एप्प* भी अपने मोबाइल से हटाएं, मोदीजी के *आत्मनिर्भर भारत अभियान* को सफल बनाने में सहयोग करें।
 **धन्यवाद!! **

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*हम सब मिलकर सही मायने में 🇮🇳भारतीय ऐप बना सकते हैं और वह हमने बना भी लिया हैं*।

*Mall91* 👉यह आपका अपना *भारतीय एप्प* है।

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*अगर आप 🇮🇳भारतीय हैं तो, आप खुद भी Mall91 एप्प अपनाएं तथा अपने दोस्तों से भी डाउनलोड करवायें तथा यह मैसेज अपने सभी परिचितों को अवश्य शेयर करें।*
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जी हाँ!!
✔️✔️✔️आपके लिए Mall91 एप्प के जरिये कार्य करना आपके सुनहरे भविष्य 📍📍📍 का सूचक हो सकता है। क्योंकि यह दुनिया का श्रेष्ठतम वर्किंग पैलेस है। इसमें जोइनिंग निःशुल्क है। इसमें रजिस्ट्रेशन के लिए आपसे कभी कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। इसमें जोइनिंग करने के लिए  यहाँ से लिंक कोपी करके ब्राउज़र के जरिये  या गूगल प्ले स्टोर में जाकर डाउनलोड करें और रेफरल कोड 👉 WB2ZDGM का उपयोग करें। लिंक 👉 https://m91.co/Ga2IzH
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👉तो चलिए मैं आज आपको Mall91 के बारे में कुछ विस्तार से  समझाता हूँ।
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क्या आप जानते हैं कि👉
👉*Amazon कंपनी अमेरिका की है।*
👉*और Flipcart भी अमेरिका की है।*
👉*वैसे तो Flipcart भारत की कंपनी थी लेकिन इसको* *wallmart ने खरीद लिया है। लेकिन अब अमेरिकन कंपनियों से भारत की अपनी स्वदेशी कंपनी Mall91 से टक्कर होगी। Mall91 की अभी तो सिर्फ शुरुआत हुई हैं।*
👉*इसमे नए प्रोडक्ट धीरे-धीरे Add हो रहे हैं।*

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👉आओ जानते हैं कि *🎊 मॉल91 में क्या नहीं है?*
👇आपको ये सब कुछ Mall91 में फ्री में मिलता है।👇
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*7️⃣👉🏼सेल्फी91*
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*9️⃣👉🏼Chat91*
*🔟👉🏼स्टार91*
*1️⃣1️⃣👉🏼ग्रुप91*
*1️⃣2️⃣👉🏼लाइव91*
*1️⃣3️⃣👉🏼टीवी91*
*1️⃣4️⃣👉🏼गेम्स91*
*1️⃣5️⃣👉🏼क्विज91*
*1️⃣6️⃣👉🏼अड्डा91*
*1️⃣7️⃣👉🏼लॉकस्क्रीन91*
*1️⃣8️⃣👉🏼पार्टटाइम जोब91* (Job Oriented App)
*1️⃣9️⃣👉🏼अंग्रेजी91*
*2️⃣0️⃣👉🏼न्यूज़91*
*2️⃣1️⃣👉🏼योगा91*
*2️⃣2️⃣👉🏼फोटो91*
*2️⃣3️⃣👉🏼ब्राउज़र91*
*2️⃣4️⃣👉🏼गोल्ड91*
*25👉 Khel91* Remove Chinese Apps (APK File)
*क्या आप इन सब कामों से इन्कम करना चाहते है???*👇👇👇👇👇👇👇 सभी लीडर्स ध्यान दें।
👉 *गाड़ी में पेट्रोल भराओ* तो इन्कम
👉 *गाड़ी की सर्विसिंग कराओ* तो इन्कम
👉 *गाड़ी के टायर ट्यूब चेंज कराओ* तो इन्कम
👉 *बिजली का बिल भरो* तो इन्कम
👉 *पानी का बिल भरो* तो इन्कम
👉 *मोबाइल रिचार्ज करो* तो इन्कम
👉 *डीटीएच रिचार्ज करो* तो इन्कम
👉 *डाटा कार्ड रिचार्ज करो* तो इन्कम
👉 *हेल्थ इंश्योरेंस भरो* तो इन्कम
👉 *गाड़ी का इंश्योरेंस भरो* तो इन्कम
👉 *लाइफ इंश्योरेंस भरो* तो इन्कम
👉 *घर का राशन खरीदो* तो इन्कम
👉 *ओला उबर बुक करो* तो इन्कम
👉 *क्रेडिट कार्ड बिल भरो* तो इन्कम
👉 *मेट्रो कार्ड रिचार्ज करो* तो इन्कम
👉 Typing, Content Writing, Phone Calling से इन्कम
👉 *बच्चों की स्कूल की किताबें बुक खरीदो* तो इन्कम
👉 *पीजा खाओ* तो इन्कम
 👉 *बाहर से खाना मंगाओ* तो इन्कम
👉 *अली एक्सप्रेस, अमेजॉन, फ्लिपकार्ट big basket,mntra, से सामान मंगाओ* तो इन्कम
👉 *ऑनलाइन शॉपिंग करो* तो इन्कम
👉 *ज्वेलरी खरीदो* तो इन्कम
 👉 *घर में पेंट कराओ* तो इन्कम
👉 *ट्रेन टिकट बुक कराओ* तो इन्कम
👉 *घर मे उपयोग वाली कोई भी चीज खरीदो* तो इन्कम

📍👉आप इन सभी खर्चों से इन्कम कर सकते हैं और टीम बनाकर 15 लेवल तक अपनी टीम के सभी खर्चों से *मंथली 1.24 करोड* इनकम प्राप्त कर सकते हैं यदि आप यह सब खर्च कर रहे हैं और उन खर्चों से इन्कम प्राप्त करना चाहते हैं तो आप तत्काल👉  Mall91 जोइन करें भ। इसके लिए यहाँ से लिंक कोपी करके ब्राउज़र के जरिये या गूगल प्ले स्टोर में जाकर डाउनलोड करें और रेफरल कोड 👉FN5RVVQ का उपयोग करें  लिंक 👉 https://m91.co/bxtZBc
👉 *आप एक सरकारी नौकरी से ज्यादा पैसे कमा सकते हैं यहां से इन सब कामों से सरकारी नौकरी आप 20 साल तक करेंगे और यह काम आपको सिर्फ 1 साल करना है उसके बाद घर बैठे आराम से सरकारी नौकरी से ज्यादा पैसा प्राप्त करें*

*No Risk 📍📍📍 Better Life* 😊🤗🤗🤗🤗🤗🤗🤗

*तो आप👉 अपने और अपने परिवार के लिए एक ऐसा पेड़🌳 लगाएँ जो आपके ना रहने पर भी उन्हें जिंदगी भर फल और छाया देता रहे*।👩‍👩‍👧‍👧👨‍👩‍👧‍👧🌳🌳

*🙋‍♂️फिर भी लोग कहते हैं 👉क्या है इस Mall91 में ???, इतनी सारी सर्विस होने बाद भी आप लोग इस App को 1 मिनट के लिए ओपन नही कर सकते है क्या?, आपको एक ही ऐप्प में सब कुछ मिल रहा है जिससे आपकी और मोबाइल मेमोरी की बचत भी होगी और ये हमारी स्वदेशी अपनी भी है। जैसे हम विदेशी कंपनियों के ऐप्प Use करते हैं, वैसे ही हम इंडिया की ऐप्प को सपोर्ट करें जिससे आपको और आपके परिजनों को रोजगार मिलेगा।*
          *🙋‍♂जय भारत 📍📍📍Jai Mall91🙏

📍*एक बार Start-up जरूर करें*📍
आप Mall91 में अपनी पहली स्टेज/लेग में चाहे जितने सदस्य जोड़ सकते हैं। लेकिन हम केवल 3 (तीन) सदस्यों को जोड़ कर सक्रिय रखने पर हमें हर महीने कितने रूपये मिलेंगे। इसे नीचे दी गई सारणी से समझते हैं।

*👉यदि आप मात्र 3 लोगों को इस Business में जोड़ते हैं तो देखिए कि आप कैसे लाखों रूपये  महीने कमाते हैं....👍*

*🧾जैसे ही आप 3 लोगो को जोड़ेंगे आपकी कमाई शुरू हो जाती हैं...🤝*

*1⃣ पहले लेवल पर 5 रूपये जुड़ने वाले हर व्यक्ति से यानी 15 रूपये महीने की कमाई शुरू...*

*2⃣ दूसरे लेवल पर 3×3=9लोग ×2.5₹=22.5₹*

*3⃣ तीसरे लेवल पर 9×3=27 लोग ×1.25₹=33.75₹*

*4⃣ लेवल  से 27×3=81लोग ×1₹= 81₹..*

*5⃣ लेवल  से 81×3=243 लोग × 0.75₹=182.25 ₹*

*6⃣ लेवल  से 243×3=729 लोग × 0.65₹ =473.85₹.*

*7⃣ लेवल  से 729×3= 2187 लोग ×0.50₹=1093.50₹*

*8⃣ लेवल  से 2187×3=6561 लोग ×0.45₹=2952.45₹*

*9⃣ लेवल  से 6561×3=19683 लोग ×0.41₹= 8070.03₹*

*10⃣ लेवल  से 19683×3=59049 लोग ×0.36₹= 21257.64₹*

*11⃣ लेवल  से 59049×3= 1 लाख 77 हजार 147 लोग × 0.33₹=58,458.51₹*

*12⃣ लेवल से 177,147×3=531,441लोग ×0.30₹=159,432.3₹*

*13⃣ लेवल  से 531,441×3= पंद्रह लाख 94 हजार 323 लोग ×0.27₹= 430,467.21₹*

*14⃣ लेवल से 1594323×3= 47  लाख 82 हजार 969 लोग ×0.24₹= 1,147,912.56₹*

*15⃣ लेवल से 4,782,969×3= 1 करोड़ 43 लाख 89 हजार 7 लोग ×0.22₹=....👇*

*(3,156,759.54) लाख रूपये हर महीने मात्र 3 लोगो को ठीक से समझाकर बिज़नेस में जोड़ने पर*

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join करें all Leadars 👉 बहुत अच्छी आमदनी कमाने की सोच रखने वाले सभी लीडर्स का Mall91 में स्वागत है ।

⛅⚡ *_एक नई सोच_* ⛅⚡
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👁‍🗨 *_दोस्तों!!! मेरे घर वाले रोज कहते थे कि पूरे दिन मोबाइल से ही लगा रहता है। ये मोबाइल तुझे खाने दे देगा क्या ? 🤔_*
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👁‍🗨 *_मैंने Mall91 जोइन कर लिया है तथा इससे अच्छी खासी अर्निंग मुझे मिल रही है। आज मैं गर्व से अपनी मम्मी को बोलता हूँ कि हाँ! ये मोबाइल मुझे खाने को देगा!! ये मोबाइल मेरी Income का एक जरिया बन गया है।  इससे part time जॉब करके, फुल time पैसा कमा सकता हूँ, वो भी बिल्कुल फ्री और जिंदगी भर। 😊😊_*
♻♻🌀🤩😍

👁‍🗨 *_जी हाँ दोस्तो!!! अगर आप भी 10,000/- रू. से 50,000/- रूपये या इससे भी ज्यादा हर महीना  कमाना चाहते हैं तो बेकार में ईंटरनैट चलाना छोड़ दीजिये। अगर चलाना ही है तो मोबाइल से Mall91 कीजिये जो बिल्कुल फ्री हैं, आपका एक भी पैसा नही लगेगा.और आप लाखों कमाने लग जायेंगे एकदम फ्री. 😊😊_*
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👁‍🗨 *_काम करने के लिये आपके पास Android Mobile होना जरुरी है।_*
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👁‍🗨 *_जो भाई अभी से काम शुरू करेगा। वो सबसे ज्यादा लाभ उठायेगा।_*
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⏩ *_आपका एक फैसला 👉आपकी लाइफ बदल देगा।_*
⏩ *_जोइनिंग फ्री है।_*
⏩ *_प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी।_*
⏩ *_कम्पनी भारत सरकार से मान्यता प्राप्त हैं।_*
⏩ *_Mall91 एक e-commerce कम्पनी है।_*
⏩ *_कम्पनी के पास पैनकार्ड है।(आयकर भरती है कम्पनी)_*
⏩ *_कम्पनी का हेड ऑफिस दिल्ली में है।_*
⏩ *_24×7 हेल्पलाइन सेवा उपलब्ध है।_*
⏩ *_आप जो पैसा कमाएंगे उसे NEFT के द्वारा अपने बैंक के खाते में ले सकते हैं ।_*

👉 *इंडिया में 70% लोग बेरोजगार है लेकिन फिर भी लोग घंटो Facebook, Whatsapp पर से चैटिंग करते हैं जबकि आप इसी सोशल मीडिया पर लाखों रूपये कमा सकते हो,*

 🔴 *PART TIME JOB*🔴
*यदि आपके पास  ANDROID PHONE है और आप FACEBOOK और WHATSAPP USE  करना जानते  तो  आप कमा सकते हो महीने के  ₹15000 से ₹25000 बिना कोई पैसा investments किए तो*

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*Note:- Refer Code डालना ना भूलें*✔️✔️✔️

*Mall91 [भारत की दुकान] में  आपको डेली  का चार काम करना जरूरी है*
(1)👉🏼 डेली  स्क्रैच कार्ड को स्क्रैच करना
(2)👉🏼   डेली लॉटरी 91को spin करना
(3)👉🏼 डेली एप्लीकेशन ओपन करके किस्मत आजमाना
*(4) 👉🏼डेली एक दो जॉइनिंग लगाना और उनको अच्छी तरह से गाइड करना*
5.👉आप अपनी टीम के सभी सदस्यों को सक्रिय बनाये रखें क्योंकि उनके सक्रिय रहने पर ही आपके वाॅलेट में प्रतिदिन पैसा मिलता है। अतः उन्हें कभी भी निष्क्रिय नहीं रहने दें और ना ही खुद कभी निष्क्रिय रहें। क्योंकि जिस दिन आपके टीम सदस्य एक्टिव हैं और आप स्वयं उस दिन निष्क्रिय रहेंगे तो उस दिन आपके वाॅलेट में पैसा ट्रांसफर नहीं होगा। लक्की ड्राॅ में हरदिन अपना भाग्य आजमाते रहें क्योंकि इसमें एक लाख रूपये तक मिलता है। दो गिफ्टकार्ड मिलते हैं उन्हें क्लिक करने पर हमें M-points मिलते हैं। M-Points से हम कोई भी उत्पाद या सामान फ्री में मंगवा सकते हैं। इसलिए इन कुछ बातों का आप विशेष खयाल रखें।

=============== ★नेटवर्क मार्केटिंग बिजनेस का सच**===============

एक लीटर दूध है तो उसमें से 200 ग्राम ही खोया निकलेगा।
★ रेलगाड़ी में अगर कुल 25 डिब्बे हैं तो लगभग 5 डिब्बे ही AC के होंगे।
★ दुनिया में 100% में से 80% लोग आम हैं और 20% लोग ही अमीर जिन्दगी जीते हैं।

*चाहे हमारे बिजनेस का प्लान कितना भी अच्छा हो - लेकिन हमारे बिजनेस में नए लोगों में भी 100 में से 20 लोग ही आने का निर्णय ले पाएंगे। हमको दिल छोटा नहीं करना है।*

*एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे में यह बताया है कि 10:7:4:1 का Ratio काम करता है। 10 लोगों से आप सम्पर्क करेंगे तो केवल 7 लोग बात करेंगे और उनमें से 4 लोग आपकी बात सुनेंगे और उनमें से केवल 1 व्यक्ति आपके साथ जुड़ सकता है।*

👉*सफलता के  5 नियम :-*
1. Some will come !
*(कुछ आऐंगे)*
2. Some will not come !
*(कुछ लोग नहीँ आऐंगे)*
3. So what !
*(तो क्या फर्क पड़ता है)*
4. Some one is waiting for working.
*(कुछ लोग काम के इंतजार में हैं)*
5. So continue  working !
*(इसलिए काम जारी रखो)*

■ खेती में भी किसान के 100% बीज नहीं उगते।

■ Cricket खिलाड़ी को हर बॉल पर विकेट नहीं मिलती और batsman को हर बाल पर रन नहीं मिलता। करीब 30 बॉल पर एक विकेट की औसत आती है, और दुनियां के हर व्यवसाय में औसत का सिद्धांत ही लागू होता है।

■ बड़े युद्ध जीतने के लिए, छोटी-मोटी लड़ाईयां हारनी पड़ती हैं।

■ अब्राहिम लिंकन ने कहा था, "बात यह नहीं है कि आप असफल हो गए, बल्कि बात यह है कि कहीं आप असफलता से संतुष्ट तो नहीं हो गये।"

■ थॉमस एडीसन ने जब बल्ब का आविष्कार किया था तो उसके पहले वे दस हजार बार असफल हुये थे। एडिसन ने सोच लिया था कि हर असफलता उन्हें सफलता के ज्यादा करीब ला रही है।

👉आप तो बस लोगों को System के मुताबिक प्लान दिखाते जाएं और रिजल्ट की चिन्ता न करें तथा याद रखें * 'कर्म करो; फल के बारे में चिन्ता मत करो' !*

आपको बस लोगों को जानकारी देते रहना है, उनमें से
👉कुछ लोग मना करेंगें,
👉कुछ लोग हँसी करेंगे,
👉कुछ लोग इंतज़ार करेंगें,
👉कुछ लोग जुड़ जाएंगे,
👉कुछ लोग धमाकेदार काम करेंगे।

👉वे जुडेंगे या नहीं उसकी चिन्ता ना करें - आप तो एक ही काम करें - आये तो 📍Best नहीं तो 🙏Next !

👉*बस आप डटे रहें* - कब आप Success  बन जाऐंगे,
*पता भी नही चलेगा !*

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✔️✔️✔️मेरी दृष्टि में Mall91 एप्प के जरिये नेटवर्किंग कार्य करना आपके लिए सुनहरे भविष्य का सूचक हो सकता है। यह दुनिया का श्रेष्ठतम नेटवर्किंग प्लान साबित हो रहा है। इसमें जोइनिंग निःशुल्क है। इसमें रजिस्ट्रेशन के लिए आपसे कभी कोई शुल्क नहीं लिया जाता है।
इसमें जोइनिंग करने के लिए  यहाँ से लिंक कोपी करके ब्राउज़र के जरिये  या गूगल प्ले स्टोर में जाकर डाउनलोड करें और रेफरल कोड 👉F6HWRAP का उपयोग करें। लिंक 👉 https://m91.co/rhe8lS
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रविवार, 17 मई 2020

हिंदी के प्रमुख नाटककार


प्रमुख नाटककार : भारतेंदु हरिश्चंद्र; जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश-

भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के प्रथम मौलिक नाटककार हैं । उन्होंने ना केवल नाटक को युगीन समस्याओं से जोड़ा बल्कि नाटक और रंगमंच के परस्पर संबंध को समझाते हुए रंगकर्म भी किया। भारतेंदु ने हिंदी नाट्य विकास के लिए योजनाबद्ध ढंग से एक संपूर्ण आंदोलन की तरह काम किया है।


प्रमुख नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र-

भारतेंदु ने पारसी नाटकों के विपरीत जनसामान्य को जागृत करने एवं उनमें आत्मविश्वास जगाने के उद्देश्य से नाटक लिखे हैं । इसलिए उनके नाटकों में देशप्रेम , न्याय , त्याग , उदारता  जैसे मानवीय मूल्यों नाटकों की मूल संवेदना बनकर आए हैं प्राचीन संस्कृति के प्रति प्रेम एवं ऐतिहासिक पात्रों से प्रेरणा लेने का प्रयास भी इन नाटकों में हुआ है।

भारतेंदु के लेखन की एक मुख्य विशेषता यह है कि वह अक्सर व्यंग्य का प्रयोग यथार्थ को तीखा बनाने में करते हैं । हालांकि उसका एक कारण यह भी है कि तत्कालीन पराधीनता के परिवेश में अपनी बात को सीधे तौर पर कह पाना संभव नहीं था । इसलिए जहां भी राजनीतिक , सामाजिक चेतना , के बिंदु आए हैं वहां भाषा व्यंग्यात्मक हो चली है ।

इसलिए भारतेंदु ने कई प्रहसन भी लिखे हैं।

भारतेंदु ने मौलिक व अनुदित दोनों मिलाकर 17 नाटकों का सृजन किया भारतेंदु के प्रमुख नाटक का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

‘ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ‘ मांस भक्षण पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया नाटक है ।

‘ प्रेमयोगिनी ‘ में काशी के धर्मआडंबर का वही की बोली और परिवेश में व्यंग्यात्मक चित्रण किया गया है।‘ विषस्य विषमौषधम् ‘ मैं अंग्रेजों की शोषण नीति और भारतीयों की महाशक्ति मानसिकता पर चुटीला व्यंग है।

‘ चंद्रावली ‘ वैष्णव भक्ति पर लिखा गया नाटक है ।

‘ अंधेर नगरी ‘ में राज व्यवस्था की स्वार्थपरखता, भ्रष्टाचार , विवेकहीनता एवं मनुष्य की लोभवृति पर तीखा कटाक्ष है जो आज भी प्रासंगिक है।

‘ नीलदेवी ‘ में नारी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा है । यह दुखांत नाटक की परंपरा के नजदीक है ।

‘ भारत दुर्दशा ‘ में पराधीन भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक – सांस्कृतिक अधः पतन  का चित्रण है ।

‘सती प्रताप’ सावित्री के पौराणिक आख्यान पर लिखा गया है।

भारतेंदु ने अंग्रेजी के ‘ मर्चेंट ऑफ वेनिस ‘ नाटक का ‘ दुर्लभबंधु ‘ नाम से अधूरा अनुवाद भी किया है।

भारतेंदु के नाटक सोद्देश्य लिखे गए हैं । उनकी भाषा आम आदमी की भाषा है । लोकजीवन के प्रचलित शब्द मुहावरे एवं अंग्रेजी , उर्दू , अरबी , फारसी के सहज चलन में आने वाले शब्द उनके नाटकों में प्रयुक्त हुए हैं ।

रंगमंचीय दृष्टि से वह प्रायः भारतीय परंपरा की नीतियों का अनुसरण करते हैं

जैसे – नांदीपाठ , मंगलाचरण आदि ।

वैसे उन्होंने ‘ नीलदेवी ‘ नामक दुखांत नाटक लिखकर पाश्चात्य नाट्य परंपरा से भी प्रभाव ग्रहण किया है ।

‘ भारत दुर्दशा ‘ में भी दुखांत का प्रभाव विद्यमान है ।

भारतेंदु को हिंदी के प्रथम नाटककार एवं युग प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है ।

हिंदी नाट्य साहित्य को उनकी देन निम्नलिखित है-

1  उन्होंने पहली बार हिंदी में अनेक विषयों पर मौलिक नाटकों की रचना की तथा कथानक के क्षेत्र में विविधता लाए ।

2 पहली बार हास्य व्यंग्य प्रधान प्रहसन लिखने की परंपरा का सूत्रपात किया।

3 पहली बार भारतीय जीवन के यथार्थ के विविध नवीन पक्षों का उद्घाटन किया।

4  पहली बार हिंदी के मौलिक रंगमंच की स्थापना का प्रयास किया ।

5 अनेक भाषाओं से नाटकों के सुंदर अनुवाद किए ।

6 संस्कृत , बांग्ला , अंग्रेजी नाटक कला का समन्वय कर हिंदी की स्वतंत्र नाट्यकला  की नींव डाली।



प्रमुख नाटककार  जयशंकर प्रसाद-

भारतेंदु के बाद जयशंकर प्रसाद ने ही हिंदी नाटक को एक नया आयाम दिया । उन्होंने ऐतिहासिक , सांस्कृतिक परंपराओं को आत्मसात कर पाश्चात्य एवं भारतीय नाट्य साहित्य का समन्वय किया। यह श्रेय प्रसाद को ही है कि उन्होंने सात्विक मनोरंजन के साथ पहली बार हिंदी नाटकों को हास्य-व्यंग्य , गहरी संवेदना, आदर्श , मनोवैज्ञानिक विश्लेषण , एवं ऐतिहासिक चेतना से युक्त किया।

प्रसाद के नाटक हैं –

‘  सज्जन ‘  ,

‘ कल्याणी परिणय ‘ ,

 करुणालय ‘ ,

‘ प्रायश्चित ‘ ,

‘ राज्यश्री ‘ ,

‘ विशाख ‘,

 ‘ अजातशत्रु ‘ ,

‘ जनमेजय का नागयज्ञ ‘ ,

‘ कामना ‘, 

‘ स्कंदगुप्त ‘ ,

‘ एक घूंट ‘ ,

‘ चंद्रगुप्त ‘ ,

‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ ,

‘  अग्निमित्र ‘ ।

इन में प्रथम चार नाटक प्राचीन नाट्य परंपरा से मुक्त नहीं है ।

यद्यपि ‘ करुणालय ‘ में उन्होंने गीतिनाट्य शैली का प्रयोग किया है । ‘ स्कंदगुप्त ‘ , ‘ चंद्रगुप्त ‘,  ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ आदि नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रयास किया है ।  इन नाटकों में उन्होंने इतिहास के बीच से ही प्रेम और सौंदर्य के मधुर चित्र खींचे हैं । यहां प्रसाद की दृष्टि रोमांटिक होते हुए भी संयमित रही है । प्रसाद ने इन नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा वर्तमान जीवन की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया है । जैसे ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ नाटक के माध्यम से उन्होंने आधुनिक नारी की संबंध – विच्छेद व पुनर्विवाह की समस्या को प्रस्तुत किया है।

प्रसाद ने पहली बार पात्रों को उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान किया ।

उन्होंने पात्रों के अंतर्मन की सूक्ष्म सम्वेदनाओं को प्रस्तुत किया है । उनके पात्र अंतर्द्वंद्व से युक्त हैं इसलिए कहीं-कहीं उनका नायकत्व खंडित होता भी प्रस्तुत होता है । परंतु प्रसाद ने पात्रों को यथार्थवादी मानव सुलभ रूप प्रदान करने का प्रयास किया है । यद्यपि उनके पात्र त्याग व उत्सर्ग में ही संतोष प्राप्त करते हैं लेकिन यह समय की जरूरत थी। साथ ही पारसी नाटकों की सस्ती मनोरंजककारी प्रकृति से प्रसाद क्षुब्ध थे । इसलिए भी नाटकों में वह आदर्शों , मूल्यों की स्थापना करना चाहते थे।

प्रसाद ने भारतीय व पाश्चात्य नाट्य परंपरा का समन्वय कर नई  संस्थापनाएं भी कि ।

उन्होंने पाश्चात्य दुखान्त  व भारतीय सुखांत नाटकों के सामंजस्य से ‘ प्रसादांत ‘ नाटकों की रचना की।

उन्होंने नाटकों में सस्ते गीतों की जगह रसपूर्ण व स्तरीय गीतों का प्रयोग किया है ।

यद्यपि कहीं-कहीं इन गीतों से नाटकों के प्रभाव में व्यावधान प्रतीत होता है फिर भी काव्य तत्व की दृष्टि से यह गीत सुंदर बन  पड़े हैं ।

जहां तक प्रसाद की भाषा का प्रश्न है उनके नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ठ है ।

दार्शनिक संवादों , स्वगत कथनों वह गीतों की अधिकता के कारण उनकी भाषा पर दोहराव के आरोप भी लगते हैं ।

एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि प्रसाद के नाटक रंगमंच की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है । वस्तुतः प्रसाद ने पहले ही यह घोषित कर दिया था कि –

” नाटकों के लिए रंगमंच होना चाहिए , रंगमंच के लिए नाटक नहीं “।

फिर भी उनके नाटकों के सफल मंचन होते रहे हैं।

आधुनिक तकनीकों ने भी इनके मंचन को संभव बनाया है।

समग्रतः  प्रसाद का हिंदी नाटक साहित्य में वही स्थान है जो उपन्यास व कहानी परंपरा में ‘ प्रेमचंद ‘ का है । आधुनिक नाटकों में आज जिस मानवीय द्वंद्व को प्रस्तुत किया जा रहा है उसकी नींव प्रसाद ने ही डाली थी । ऐतिहासिक नाटकों द्वारा समसामयिक  समस्याओं पर चित्रण की परंपरा मोहन राकेश आदि नाटककारों  मैं बाद में भी चलती रही । प्रसाद के नाटक इस अर्थ में आज भी प्रासंगिक है कि न केवल उन्होंने नाटक को नई संवेदना दी बल्कि एक नया शिल्प भी दिया है।



 प्रमुख नाटककार मोहन राकेश-

हिंदी की ‘ नवनाट्य लेखन ‘ का ‘ नया नाटक ‘ परंपरा को एक  व्यापक सृजनात्मक एवं ठोस आंदोलन के रुप में स्थापित करने का श्रेय मोहन राकेश को है । सामान्यतः राकेश को प्रसाद की परंपरा का नाटककार कहा जा सकता है । क्योंकि उनके नाटकों में ऐतिहासिकता , नारी पात्रों की प्रधानता , भावुकता,  काव्यात्मकता मौजूद है। फिर भी मोहन राकेश ने इस परंपरा का नए रुप में विकसित किया है एवं प्रसाद की परंपरा से इत्तर आधुनिक भाव-बोध के नाटक लिखे गए हैं । उन्होंने आधुनिक सम्वेदनाओं आधुनिक मानव के द्वंद्व को पकड़ना चाहा है । उनके नाटकों में पात्रों की भीड़भाड़ नहीं है ।

साथ ही साथ उन्होंने नाटकों में प्रचलित रूप को आधे अधूरे नाटक में तोडा भी है ।

मोहन राकेश ने निम्नलिखित नाटक लिखे –

‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ ,

‘ लहरों के राजहंस ‘ ,

‘ आधे अधूरे ‘ ,

तथा ‘ पैरो तले की जमीन ‘

कुल चार नाटक लिखे ।

इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ एकांकियों की भी रचना की है।

‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ नाटक कवि कालिदास के सत्ता एवं सृजनात्मकता के मध्य अंतर संघर्ष का चित्रण करता है । यह केवल कालिदास का द्वंद्व नहीं बल्कि आधुनिक मानव का भी अंतर्द्वंद्व है । कालिदास एक ऐसे सृजनशील कलाकार का प्रतीक है जिसकी सृजनशीलता व्यवस्था द्वारा कुचल दी जाती है।

‘ लहरों के राजहंस ‘ बुद्ध के भ्राता नंद पर आधारित नाटक है । इसमें भी भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का द्वंद्व है । इन दोनों किनारों के मध्य खड़े मनुष्य को उचित समन्वय से ही सही दिशा मिल सकती है। इसमें ‘ सुंदरी ‘ में प्रवृत्ति पक्ष  की प्रतीक है  तो ‘ बुद्ध ‘ निवृत्ति पक्षों के , और नंद दोनों के बीच द्वंद्वग्रस्त मानव चेतना का। प्रतीकों की बहुलता से कहीं – कहीं यह नाटक बोझिल प्रतीत होता है लेकिन चारित्रिक अंतर्द्वंद्व ,  मनोवैज्ञानिकता के स्तर पर यह नाटक उल्लेखनीय बन पड़ा है।

‘ आधे अधूरे ‘ में मोहन राकेश आभिजात्य संस्कारों से मुक्त हो सीधे यथार्थ से टकराते हैं ।

प्रश्नों यहां भी द्वंद्व , असंतोष और एक अंतहीन खोज का है । केवल परिवेश भिन्न है । मध्यम वर्गीय महानगरीय जीवन में आर्थिक संकट एवं अस्तित्व के संकट के कारण एक परिवार के विघटन को यह नाटक रूपायित करता है।

यह नाटक कई स्तरों पर संकेत देता है ।

यह एक साथ पारिवारिक विघटन मानवीय संबंधों में दरार , दांपत्य संबंधों की कटुता , आपसी रिश्तो की रिक्तता , योन विकृतियों , द्वंद्व एवं नियति आदि को समेटता चलता है। ‘  आधे अधूरे ‘ नाटक में उन्होंने एक ही अभिनेता से पांच भूमिकाएं कराने का प्रयोग किया है । लेकिन यह प्रयोग एक नाटकीय युक्ति बनकर ही रह गया है ।

इसमें उन्होंने प्रस्तावना का भी प्रयोग किया तथा परंपरा को नए संदर्भ में प्रयुक्त किया । यह नाटक पहले के दो नाटकों से एक अन्य दृष्टि से विभिन्न है। पहले दोनों नाटकों के पुरुष पात्र नंद एवं कालिदास अंत में चले जाते हैं , जबकि इस में महेंद्रनाथ पुनः वापस लौट आता है जो नाटककार की समसामयिक दृष्टि की प्रमाणिकता को सिद्ध करता है।

‘ पैरों तले की जमीन ‘  अधूरा नाटक है ।

इसमें कोई कथानक नहीं है इसमें मुख्यतः स्थितियों की विसंगतियों से उतपन्न अंतर्द्वंदों की अभिव्यक्ति की गई है , जिसमें नेपथ्य की ध्वनियों के आधार पर रंगमंच को नया अर्थ देने का प्रयोग है।

इन चारों नाटकों के अतिरिक्त मोहन राकेश ने ‘ अंडे के छिलके ‘, ‘ शायद ‘ , ‘ धारियां ‘ नामक लघु नाटक भी लिखे हैं । इन सभी नाटकों में ‘ आधे अधूरे ‘ की भाषा सबसे शानदार बन पड़ती है । आज के जीवन के तनाव को पकड़ पाती है यह स्थितियों का चित्रण उतना नहीं है जितना पात्रों की मनःस्थितियों का है।

मोहन राकेश ने अपनी सभी नाटकों में भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयत्न किया है । शिल्प की बनावट का उतना नहीं फिर भी उनकी कोशिश रही है कि शब्दों के संयोजन से ही दृश्यत्व पैदा हो न की अन्य उपकरणों से ।

यही उनके अंतरिक शिल्प की खोज है ।

उनके नाटकों में रंगमंच नाटक की बनावट में ही है कहीं से आरोपित नहीं ।

मोहन राकेश के नाटकों में कथा की उतनी चिंता नहीं की गई जितनी संवेदना को सही रूप में व्यक्त करने की उन्होंने हिंदी नाटक को प्रसाद में और कृत्रिम भाषा से मुक्त कर योग्य विसंगतियों को दूर करने के लिए समर्थ भाषा प्रदान की। मोहन राकेश के नाटक रंगमंचीय दृष्टि से अत्यंत सफल एवं प्रयोगशील है।





भारतेन्दु: आधुनिक हिंदी के जनक


आधुनिक हिंदी के जनक थे भारतेन्दु-

साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ ‘भारतेन्दु काल’ से माना जाता है. भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी के जन्मदाता और भारतीय नवजागरण के अग्रदूत थे. वह बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे. उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी की वह एक साथ कवि, नाटककार, पत्रकार एवं निबंधकार थे. उन्होंने एक उत्कृष्ट कवि, नाटककार और गद्य लेखक के रूप में अप्रतिम योगदान दिया, वहीं एक पत्रकार के रूप में समस्त देश को जागरण का नवसंदेश दिया. उनका सुधारवादी दृष्टिकोण रहा था. उनके द्वारा किये गए कार्य उन रेखाओं की भांति हो गए जिन पर भारत के अनेकों महापुरुषों ने उनके बाद भारत के भविष्य की आधार-शिलाएं रखीं.

समाज सुधार से लेकर स्वदेशी आन्दोलन तक उनकी दृष्टि गयी थी. वे देश की जनता में एक नई चेतना जगाना चाहते थे जो प्रत्येक क्षेत्र में उसे सजग रखे. उन्होंने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया. साथ ही अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं. वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की थी. अपनी देश भक्ति के कारण राजभक्ति प्रकट करते हुए भी उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा. उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि प्रदान की थी, जो उनके नाम का पर्याय बन गया.

उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से भारतीय समाज ख़ास कर हिंदी जनमानस में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम किया. अपनी पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ के माध्यम से उन्होंने लेखन की दिशा में अनेक प्रयोग किये. उनके द्वारा सम्पादित ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’, ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ और ‘बाला बोधनी’ आदि पत्रिकाओं की भूमिका भी कम महत्व नहीं रखती. ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ तथा ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ ने जहाँ देश की शिक्षित और जागरूक जनता को राष्ट्रभाषा हिंदी में अपने विचारों के प्रचार करने का खुला मंच प्रदान किया, वहीं ‘बाला बोधनी’ के माध्यम से उन्होंने महिलाओं को भी इस दिशा में आगे बढाने का सराहनीय कार्य किया.

उन्नीसवीं शताब्दी कि आरंभ में भारत के नवशिक्षित बौद्धिकों में एक नई चेतना का उदय हुआ था. इस चेतना को अपने देश में कहीं पुनर्जागरण और कहीं नवजागरण कहा जाता है. नवजागरण के लिए पुनरूत्थान, पुनर्जागरण, प्रबोधन, समाज सुधार आदि अनेक शब्द प्रचलित हैं. निस्स्न्देह इनमें से प्रत्येक शब्द के साथ एक निश्चित अर्थ, एक निश्चित प्रत्यय जुड़ा हुआ है. चेतना की लहर देर-सवेर कमोवेश भारत के सभी प्रदेशों में फैली. देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए जहाँ भारत माता के कुछ सपूतों ने जंग छेड़ी हुई थी,  वहीं कुछ लोग गुलाम होने के कारणों को जानकर उन्हें हटाने में जुटे हुए थे. भारतेन्दु उनमें से एक थे. उनके विचार में साहित्य की उन्नति देश और समाज की उन्नति देश और समाज की उन्नति से जुड़ी है. सामाजिक उन्नति का एक महत्वपूर्ण सूत्र था ‘नारि नर सम होहिं’. यह बात रुढ़िवादियों को वैसे ही पसंद नहीं थी जैसे भारत के भारत के निज स्वत्व प्राप्त करने की बात अंग्रेजों को. भारतेन्दु दोनों के ही कोपभाजन हुए. नवजागरण काल के इस प्रणेता को आज का भारत कभी नहीं भुला सकता. वे एक व्यक्ति नहीं विचार थे. कर्म नहीं क्रांति में विश्वास रखते थे.

भारतेन्दु का मानना था कि अंग्रेजी राज ख़त्म होने पर ही देश की वास्तविक उन्नति संभव होगी. भारतेन्दु ने अंग्रेजी राज में भारत के आर्थिक ह्रास का जो विश्लेषण किया था, उससे स्वदेशी आन्दोलन की आवश्यकता प्रमाणित होती थी. उन्होंने ऐसी सभा बनाई जिसके सदस्य स्वदेशी वस्तुओ का ही व्यवहार करते थे. स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार से उद्योगीकरण में सहायता मिलेगी, यह बात वह अच्छी तरह से जानते थे. भारतेन्दु को विश्वास था कि जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेषित होकर स्वाधीन हुआ वैसे ही भारत भी स्वाधीनता लाभ कर सकता है. भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, जो उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है. इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण गद्य साहित्य की रचना की.  देश सेवा और साहित्य सेवा के साथ-साथ वह समाज सेवा भी करते रहे. दीन-दुखियों, साहित्यिकों तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे. धन के अत्यधिक व्यय से भारतेंदु ऋणी बन गए और अल्पायु में ही उनका देहांत हो गया.

आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास


आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास-

हिंदी गद्य के आरंभ के संबंध में विद्वान एकमत नहीं है। कुछ 10वीं शताब्दी मांनते हैं कुछ 11 वीं शताब्दी,कुछ 13 शताब्दी। राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में हमें गद्य के प्राचीनतम प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय सीमा 11वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तथा ब्रज गद्य की सीमा 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के मध्य ही हिंदी गद्य की शुरुआत हुई थी।खड़ी बोली के प्रथम दर्शन अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा रचित चंद छंद बरनन की महिमा में होते हैं अध्ययन की दृष्टि से हिंदी गद्य साहित्य के विकास को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) पूर्व भारतेंदु युग(प्राचीन युग): 13 वी सदी से 1868 ईस्वी तक.

(2) भारतेंदु युग(नवजागरण काल): 1868ईस्वी से 1900 ईस्वी तक।

(3) द्विवेदी युग: 1900 ईस्वी से 1922 ईस्वी तक.

(4) शुक्ल युग(छायावादी युग): 1922 ईस्वी से 1938 ईस्वी तक

(5) शुक्लोत्तर युग(छायावादोत्तर युग): 1938 ईस्वी से अब तक।

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19वीं सदी से पहले का हिन्दी गद्य-

हिन्दी गद्य के उद्भव को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान हिन्दी गद्य की शुरूआत 19वीं सदी से ही मानते हैं जबकि कुछ अन्य हिन्दी गद्य की परम्परा को 11वीं-12वीं सदी तक ले जाते हैं। आधुनिक काल से पूर्व हिन्दी गद्य की निम्न परम्पराएं मिलती हैं-

(1) राजस्थानी में हिन्दी गद्य:-राजस्थानी गद्य के प्राचीनतम रुप 10 वीं शताब्दी के दान पत्रों, पट्टे-परवानों, टीकाओं व अनुवाद ग्रंथों में देखने को मिलता है.आराधना, अतियार, बाल शिक्षा, तत्व विचार, धनपाल कथा आदि रचनाओं में राजस्थानी गद्य के प्राचीनतम प्रयोग दृष्टिगत होते हैं.

(2) मैथिली में हिन्दी गद्य:-कालक्रम की दृष्टि से राजस्थानी के बाद मैथिली में हिन्दी गद्य के प्रयोग दृष्टिगत होते हैं. मैथिली में प्राचीन हिन्दी गद्य ग्रन्थ ज्योतिरिश्वर की रचना वर्ण रत्नाकर है. इसका रचना काल 1324 ईस्वी सन् है.

(3) ब्रजभाषा में हिन्दी गद्य:- ब्रजभाषा में हिन्दी गद्य की प्राचीनतम रचनाएँ 1513 ईस्वी से पूर्व की प्रतीत नही होती. इनमें गोस्वामी विट्ठलनाथ कृत "श्रृंगार रस मंडन", "यमुनाष्टाक", " नवरत्न सटीक ", चतुर्भुज दास कृत षड्ऋतु वार्ता ", गोकुल नाथ कृत " चौरासी वैष्णवन की वार्ता ", " दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता " गोस्वामी हरिराम कृत "कृष्णावतार स्वरूप निर्णय", "सातों स्वरूपों की भावना","द्वादश निकुंज की भावना", नाभादास कृत " अष्टयाम ", बैकुंठ मणि शुक्ल कृत "अगहन माहात्म्य", "वैशाख माहात्म्य" तथा लल्लू लाल कृत "माधव विलास" विशेष रूप से उल्लेखनीय है.

(4) दक्खिनी में हिन्दी गद्य:- गेसुदराज कृत"मेराजुलआशिकीन" तथा मूल्ला वजही कृत "सबरस" में प्राचीन दक्खिनी हिन्दी गद्य रुप को देखा जा सकता है.

भारतेंदु पूर्व युग-

खड़ीबोली हिन्दी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास हुआ। इस विकास में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल जी तथा सदल मिश्र ने गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमशः प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें तैयार कीं। इसी समय सदासुखलाल ने सुखसागर तथा मुंशी इंशा अल्ला खां ने 'रानी केतकी की कहानी' की रचना की इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय प्रयोग में आनेवाली खडी बोली को स्थान मिला। ये सभी कृतियाँ सन् 1803 में रची गयी थीं।

आधुनिक खडी बोली के गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की परिचयात्मक पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमें ईसाई धर्म का भी योगदान रहा। बंगाल के राजा राम मोहन राय ने 1815 ईस्वी में वेदांत सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसके बाद उन्होंने 1829 में बंगदूत नामक पत्र हिन्दी में निकाला। इसके पहले ही 1826 में कानपुर के पं जुगल किशोर ने हिन्दी का पहला समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकत्ता से निकाला. इसी समय गुजराती भाषी आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखा।

भारतेंदु युग-

भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) को हिन्दी-साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन और हरिश्चंद्र पत्रिका निकाली. साथ ही अनेक नाटकों की रचना की. उनके प्रसिध्द नाटक हैं- चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी. ये नाटक रंगमंच पर भी बहुत लोकप्रिय हुए. इस काल में निबंध नाटक उपन्यास तथा कहानियों की रचना हुई. इस काल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, उपाध्याय बदरीनाथ चौधरी प्रेमघन, लाला श्रीनिवास दास, बाबू देवकी नंदन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश लेखक होने के साथ साथ पत्रकार भी थे।

श्रीनिवासदास के उपन्यास परीक्षागुरू को हिन्दी का पहला उपन्यास कहा जाता है। कुछ विद्वान श्रद्धाराम फुल्लौरी के उपन्यास भाग्यवती को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं। बाबू देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति आदि इस युग के प्रमुख उपन्यास हैं। ये उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि इनको पढने के लिये बहुत से अहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी. इस युग की कहानियों में शिवप्रसाद सितारे हिन्द की राजा भोज का सपना महत्त्वपूर्ण है।

बलदेव अग्रहरि की सन १८८७ मे प्रकाशित नाट्य पुस्तक 'सुलोचना सती' में सुलोचना की कथा के साथ आधुनिक कथा को भी स्थान दिया गया हैं, जिसमे संपादको और देश सुधारको पर व्यंग्य किया गया हैं। कई नाटको में मुख्य कथानक ही यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हैं। बलदेव अग्रहरि की सुलोचना सती में भिन्नतुकांत छंद का आग्रह भी दिखाई देता हैं।[1][2]

द्विवेदी युग-

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम द्विवेदी युग रखा गया। सन 1903 ईस्वी में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका के संपादन का भार संभाला. उन्होंने खड़ी बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से रचनाकारों के एक बडे समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। इस काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ।

इस युग के निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, श्याम सुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं। किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।

हिंदी कहानी का वास्तविक विकास द्विवेदी युग से ही शुरू हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती कहानी को कुछ विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में बंग महिला की दुलाई वाली, शुक्ल जी की ग्यारह वर्ष का समय, प्रसाद जी की ग्राम और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था महत्त्वपूर्ण हैं। समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं। हरिऔध, शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा कुछ नाटक लिखे गए। इस युग ने कई सम्पादकों जन्म दिया। पन्डित ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने आधा दर्जन से अधिक पत्रों का सम्पादन किया। शिव पूजन सहाय उनके योग्य शिष्यों में शुमार हुए। इस युग में हिन्दी आलोचना को एक दिशा मिली। इस युग ने हिन्दी के विकास की नींव रखी। यह कई मायनों मे नई मान्यताओं की स्थापना करने वाला युग रहा।

शुक्ल युग-

गद्य के विकास में इस युग का विशेष महत्त्व है। पं रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) ने निबंध, हिन्दी साहित्य के इतिहास और समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। उन्होंने मनोविकारों पर हिंदी में पहली बार निबंध लेखन किया। साहित्य समीक्षा से संबंधित निबंधों की भी रचना की. उनके निबंधों में भाव और विचार अर्थात् बुद्धि और हृदय दोनों का समन्वय है। हिंदी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका इतिहास आज भी अपनी सार्थकता बनाए हुए है। जायसी, तुलसीदास और सूरदास पर लिखी गयी उनकी आलोचनाओं ने भावी आलोचकों का मार्गदर्शन किया। इस काल के अन्य निबंधकारों में जैनेन्द्र कुमार जैन, सियारामशरण गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और जयशंकर प्रसाद आदि उल्लेखनीय हैं।

कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद ने क्रांति ही कर डाली। सेवा सदन, रंगभूमि, निर्मला, गबन एवं गोदान आदि उपन्यासों की रचना की। उनकी तीन सौ से अधिक कहानियां मानसरोवर के आठ भागों में तथा गुप्तधन के दो भागों में संग्रहित हैं। पूस की रात, कफन, शतरंज के खिलाडी, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा तथा ईदगाह आदि उनकी कहानियां खूब लोकप्रिय हुई। इसकाल के अन्य कथाकारों में विश्वंभर शर्मा कौशिक, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, उपेन्द्रनाथ अश्क, जयशंकर प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है। इनके चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी जैसे ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास और कल्पना तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य पद्धतियों का समन्वय हुआ है। लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, जगदीशचंद्र माथुर आदि इस काल के उल्लेखनीय नाटककार हैं।

शुक्लोत्तर युग-

इस काल में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ। पं हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ॰ नगेंद्र, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा डॉ॰ रामविलास शर्मा आदि ने विचारात्मक निबंधों की रचना की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेर नाथ राय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विवेकी राय, ने ललित निबंधों की रचना की है। हरिशंकर परसांई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींन्द्रनाथ त्यागी, तथा के पी सक्सेना, के व्यंग्य आज के जीवन की विद्रूपताओं के उद्धाटन में सफल हुए हैं। जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव और भगवती चरण वर्मा ने उल्लेखनीय उपन्यासों की रचना की. नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु, अमृतराय, तथा राही मासूम रजा ने लोकप्रिय आंचलिक उपन्यास लिखे हैं। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त, आदि ने आधुनिक भाव बोध वाले अनेक उपन्यासों और कहानियों की रचना की है। अमरकांत, निर्मल वर्मा तथा ज्ञानरंजन आदि भी नए कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं।

प्रसादोत्तर नाटकों के क्षेत्र में लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, मोहन राकेश तथा कमलेश्वर के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने संस्मरण रेखाचित्र व जीवनी आदि की रचना की है। शुक्ल जी के बाद पं हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंद दुलारे वाजपेयी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा तथा नामवर सिंह ने हिंदी समालोचना को समृद्ध किया। आज गद्य की अनेक नयी विधाओं जैसे यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज, रेडियो रूपक, आलेख आदि में विपुल साहित्य की रचना हो रही है और गद्य की विधाएं एक दूसरे से मिल रही हैं।

शुक्रवार, 8 मई 2020

हिंदी कहानी का स्वरूप एवं विकास


हिन्दी कहानी का स्वरूप एवं विकास -

गद्य साहित्‍य में कहानी सबसे सशक्‍त एवं लोकप्रिय विधा रही है। मानवीय परिवेश के प्रति जिज्ञासा और अपने अनुभवों, विचारों तथा आकांक्षाओं की अभिव्‍यक्‍ति की कामना मानवमात्र की सहज प्रवृत्‍ति होती है। कहानी के विकास की कहानी भी उतनी ही पुरानी है जितनी संसार के विकास कीकहानी। जहाँ जीवन के अनुभवों, अपने विचार और अपनी अभिलाषाओं को मानव एक तरफ अभिव्‍यक्‍त करता है वहीं दूसरी तरफ सामाजिक प्राणी होने के कारण दूसरों के अनुभवों एवं विचारों के प्रति उसकी सहज रूचि भी होती है। अतः अपनी कथा कहने और दूसरों को सुनने की प्रवृत्‍ति के साथ ही कहानी के विकास की धारा आरम्‍भ हो जाती है। जिज्ञासा और आत्‍माभिव्‍यंजना की नैसर्गिक प्रवृत्‍तियाँ ही कहानी-कला की मूल सृजन-शक्‍तियाँ हैं। प्रारम्‍भ में मनोरंजन और आत्‍म-परितोष के लिये कहानी कही सुनी जाती थी। कालान्‍तर में कहानी मनोरंजकता के साथ व्‍यक्‍ति और समाज के महत्‍वपूर्ण अनुभवों के प्रकटीकरण का उत्‍तरदायित्‍व निर्वहन करते हुये नीति और उपदेश तथा सामाजिक सुधार आदि की संवाहिका बनी, तो आज कहानी मानव की बाह्‍य ही नहीं, अपितु गहरी से गहरी आन्‍तरिक अनुभूतियों की अभिव्‍यक्‍ति का माध्‍यम बनकर जीवन-मर्म के अनछुए पहलुओं को उद्‌घाटित कर रही है।

डॉ. रामचन्‍द्र तिवारी का कहना है कि - ‘‘हिन्‍दी कहानियों के उद्‌भव और विकास में भारत के प्राचीन कथा साहित्‍य, पाश्‍चात्‍य कथा साहित्‍य एवं लोक कथा साहित्‍य का सम्‍मिलित प्रभाव देखा जा सकता है।''

भारतवर्ष में कथा-कहानियों का इतिहास सहस्‍त्रों वर्ष पुराना है। इसका प्रारम्‍भ उपनिषदों की रूपक-कथाओं, महाभारत के उपाख्‍यानों तथा बौद्ध साहित्‍य की जातक-कथाओं से प्राप्‍त होता है। भारतवर्ष में कथा साहित्‍य के विकास के मुख्‍य तीन युग हैं। प्राचीनकाल में उपनिषदों की रूपक-कथाओं, महाभारत के उपाख्‍यानों तथा जातक-कथाओं का उल्‍लेख मिलता है। ऐतिहासिक दृष्‍टि से इन कथाओं का महत्‍व बहुत अधिक है, परन्‍तु साधारण जनता कहानी को जिस अर्थ में ग्रहण करती है, उस अर्थ में इन कहानियों का महत्‍व उतना अधिक नहीं है, क्‍योंकि उनका उद्‌देश्‍य मनोरंजन नहीं था, वरन्‌ कहानी के रूप में किसी गम्‍भीर तत्‍व की आलोचना अथवा नीति और धर्म की शिक्षा ही इनका एकमात्र ध्‍येय था। विश्‍वकवि रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर ने अपने लेख ‘कादम्‍बरी के चित्र' में सत्‍य ही लिखा है कि ः

पृथ्‍वी पर सब जातियाँ कथा-कहानियों को सुनना पसन्‍द करती हैं। सभी सभ्‍य देश अपने साहित्‍य में इतिहास, जीवन-चरित्र और उपन्‍यासों का संचय करते हैं परन्‍तु भारतवर्ष के साहित्‍य में यह बात नहीं दीख पड़ती।

वास्‍तव में संस्‍कृत-साहित्‍य में मनोरंजन के लिये लिखी गई कथा-कहानियों का बहुत अभाव है। ‘वासवदत्‍ता', ‘कादम्‍बरी', ‘दशकुमार चरित' इत्‍यादि कुछ इनी-गिनी कथाएँ ही संस्‍कृत साहित्‍य की निधि हैं। परन्‍तु साहित्‍य में इसका अभाव होने पर भी सम्‍भव है साधारण जनता में कथा-कहानियों का प्रसार पर्याप्‍त मात्रा में ही रहा हो। अवंती-नगरी की बैठकों में बैठकर लोग राजा उदयन की कथा कहते थे, इसका प्रमाण ‘मेघदूत' में प्राप्‍त है। कवि-कुल-गुरु कालिदास ने उन कथाओं का उल्‍लेख नहीं किया जिससे हम उस काल की कहानियों का आस्‍वादन पा सकते, परन्‍तु इतना तो निश्‍चित है कि देश के अन्‍य भागों में और भी कितने ‘उदयनों' की कथा वृद्ध लोग अपने उत्‍सुक श्रोताओं को सुनाते रहे होंगे। बहुत दिन बाद विक्रमादित्‍य, भरथरी (भर्तृहरि), मुंज और राजा भोज की कथाएँ भी वृद्ध लोग उसी चाव से अपने श्रोताओं को सुनाते रहे होंगे और मध्‍यकाल में आल्‍हा-ऊदल, पृथ्‍वीराज तथा अन्‍य शूर-वीरों की कहानियाँ भी उसी प्रकार कथाओं की श्रेणी में सम्‍मिलित कर ली गई होंगी। ये कथाएँ मौखिक प्रथा से निरन्‍तर चलती थीं। इनमें प्रसिद्ध और लोक-प्रचलित राजाओं तथा शूर-वीरों की वीरता, उनके प्रेम, न्‍याय, विद्या और वैराग्‍य इत्‍यादि गुणों का अतिरंजित वर्णन हुआ करता था। ‘सिंहासन बत्‍तीसी', ‘बैताल पच्‍चीसी' तथा ‘भोज-प्रबन्‍ध' इत्‍यादि कथा-संग्रह उन्‍हीं असंख्‍य कहानियों के कुछ अवशेष-मात्र बच गये हैं।

महाभारत के उपाख्‍यानों, उपनिषदों की रूपक-कथाओं तथा जातक-कथाओं की परम्‍परा भी लोप नहीं हुई, वरन्‌ पुराणों में उस परम्‍परा का एक विकसित रूप मिलता है। इन पुराणों में आर्यों की अद्‌भुत कल्‍पना-शक्‍ति ने असंख्‍य नये देवी-देवताओं की सृष्‍टि की और उनके सम्‍बन्‍ध में कितनी ही तरह की कहानियों की सृष्‍टि हुई। आजकल की बुद्धिवादी जनता उन पौराणिक कथाओं को कपोल-कल्‍पना कह कर उनकी उपेक्षा और अवहेलना कर सकती है, परन्‍तु भारतवर्ष की सरल जनता का इन कहानियों पर अटल विश्‍वास था और इनमें उसे कोई अस्‍वाभाविकता अथवा अतिशयोक्‍ति नहीं दिखाई पड़ती थी।

‘कादम्‍बरी' तथा ‘दशकुमार-चरित्र' आदि साहित्‍यिक रचनाओं में भाषा का आडम्‍बर और अद्‌भुत शब्‍द-जाल, विविध प्रकार के लम्‍बे-लम्‍बे वर्णन तथा अवांतर प्रसंग ही अधिक मिलते हैं; कला सौन्‍दर्य की ओर लेखकों की रुचि कम पाई जाती है। इस प्रकार की रचनाएँ हैं भी बहुत कम। इससे जान पड़ता है कि प्राचीनकाल में जनता मुख्‍य दो वर्गों में विभाजित थी - एक शिक्षित द्विजों का वर्ग जो महाभारत के उपाख्‍यानों, जातक-कथाओं तथा पुराणों की अद्‌भुत कल्‍पनापूर्ण कथाओं से अपना मनोरंजन करती थी और दूसरा अशिक्षित शूद्रों, वर्णसंकरों तथा स्‍त्रियों का वर्ग जो उदयन की प्रेम-कथाओं, विक्रमादित्‍य के पराक्रम और न्‍याय की अतिरंजित कहानियों तथा भरथरी, मुंज, पृथ्‍वीराज, आल्‍हा-ऊदल इत्‍यादि की प्रेम-वीरता तथा विद्या-वैराग्‍य की कथाओं से अपना मनोरंजन करती थी। एक बहुत ही छोटा वर्ग उन साहित्‍यिकों का था, जिन्‍हें कथा-कहानियों से विशेष रुचि न थी, वरन्‌ कथा-आख्‍यानों की ओट में अपना पांडित्‍य-प्रदर्शन करना ही उनका उद्‌देश्‍य हुआ करता था।

कथा-साहित्‍य के विकास का दूसरा युग तेरहवीं शताब्‍दी के प्रारम्‍भ में होता है, जब उत्‍तर भारत में मुसलमानों का आधिपत्‍य फैल गया। पंजाब तो महमूद गजनवी के समय-ग्‍यारहवीं शताब्‍दी-से ही मुसलमानी राज्‍य का प्रांत रहा था, परन्‍तु तेरहवीं शताब्‍दी में समस्‍त उत्‍तरी भारत में मुसलमानों का आधिपत्‍य हो गया। इतना ही नहीं, भारत में मुसलमानों की संख्‍या बढ़ती ही गई और वे गाँवों तक में अधिक संख्‍या में बस गये। वे अपने साथ अपनी एक संस्‍कृति ले आने के साथ ले आये थे कथा-कहानियों की एक समृद्ध परम्‍परा। अरब-निवासी अपने साथ ‘सहस्‍त्र रजनी-चरित्र' तक फारस देश के प्रेमाख्‍यात लेने आये थे। यहाँ भारत में पुराणों की कथा-परम्‍परा सजीव थी। इन परम्‍पराओं के परस्‍पर-सम्‍पर्क से, आदान-प्रदान से, एक नयी कथा-परम्‍परा का प्रारम्‍भ हुआ होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। जिस प्रकार धर्म, कला, समाज और संस्‍कृति के क्षेत्र में हिन्‍दू और मुसलमान दो महान्‌ जातियों के परस्‍पर सम्‍पर्क और आदान-प्रदान से एक नये धर्म और समाज, कला और संगीत, साहित्‍य और संस्‍कृति का विकास हुआ, उसी प्रकार अथवा उससे कहीं अधिक विकास कथा-कहानियों की परम्‍परा में हुआ होगा, क्‍योंकि कथा-कहानियों का सम्‍पर्क साधारण जनता का सम्‍पर्क था, किसी वर्ग-विशेष का नहीं। धार्मिक, सांस्‍कृतिक, राजनीतिक तथा अन्‍य क्रांतियों का प्रभाव तो तत्‍कालीन साहित्‍य और इतिहास में मिल जाता है, परन्‍तु कथा-कहानियों की परम्‍परा में जो अद्‌भुत क्रांति हुई होगी वह बहुत कुछ मूक-मौखिक क्रांति थी। साहित्‍य में उसका उल्‍लेख नहीं मिलता, फिर भी प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्‍यानों तथा लोक-प्रचलित अकबर और बीरबल के नाम से प्रसिद्ध विनोदपूर्ण कथाओं में इस परम्‍परा का कुछ आभास मिल जाता हैं, जो आगे बढ़कर अठारहवीं तथा उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में मुंशी इंशाअल्‍ला खाँ की ‘उदयभानचरित' या ‘रानी केतकी की कहानी' के रूप में प्रकट होता है। 1950-60 ई. के आसपास जब मुद्रण यन्‍त्र के प्रचार से कुछ कथा-कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुये तब ‘तोता मैना', ‘सारंगा-सदाबृज', ‘छबीली-भटियारिन', ‘गुल-बकावली', ‘किस्‍सये चार यार' इत्‍यादि कहानियाँ जिन्‍हें जनता बड़े चाव से पढ़ती थी, उसी परम्‍परा की प्रतिनिधि कहानियाँ थीं।

मुसलमान-युग की कहानियों की प्रमुखतम विशेषता उनमें प्रेम का चित्रण है। प्रेम का चित्रण प्राचीन भारतीय साहित्‍य में भी पर्याप्‍त मात्रा में मिलता है। कालिदास के नाटक ‘शकुन्‍तला', ‘विक्रमोर्वशी' और ‘मालविकाग्‍निमित्र', भवभूति की ‘मालतीमाधव', हर्ष की ‘रत्‍नावली', शूद्रक की ‘मृच्‍छकटिक' तथा वाण की ‘कादम्‍बरी' में प्रेम का ही चित्रण मिलता है। पुराणों में भी गोपियों और श्रीकृष्‍ण की रासलीला, उषा-अनिरूद्ध, और नल-दमयन्‍ती की प्रेम कथाएँ विस्‍तारपूर्वक वर्णित हैं। लोक-प्रचलित कहानियों में भी राजा उदयन की प्रेम कथाएं बड़े चाव से सुनी जाती थी। सच बात तो यह है कि गुप्‍तकाल से ही उत्‍तर भारत में एक ऐसी संस्‍कृति का विकास हो रहा था, जिसमें प्रेम और विलासिता की ही प्रधानता थी। फिर इधर मुसलमान अपने साथ लैला-मजनू और शीरीं-फरहाद की प्रेम-कथाएँ ले आये थे। दोनों के सम्‍पर्क से कहानी की नयी परम्‍परा चल निकली। उसमें प्रेम की प्रधानता स्‍वाभाविक ही थी। प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्‍यानों का विशद्‌ विवेचन भी देखने को मिलता है। इन कहानियों का कथानक फारस देश के प्रेमाख्‍यानों के आधार पर भारतीय वातावरण के अनुरूप कल्‍पित हुआ। नल-दमयन्‍ती, उषा-अनिरूद्ध और शकुन्‍तला-दुष्‍यन्‍त इत्‍यादि की भारतीय प्रेम-कथाओं के साथ फारसी प्रेमाख्‍यानों का सम्‍मिश्रण कर भारतीय वातावरण के अनुरूप आदर्शों की रक्षा करते हुये इसी प्रकार की कितनी प्रेम-कहानियाँ जनता में प्रचलित रही होंगी। इन कहानियों में पारलौकिक और विशुद्ध प्रेम से प्रारम्‍भ करके विषय-भोग जन्‍य अश्‍लील प्रेम तक का चित्रण मिलता है। प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्‍यानों में प्रेम आदर्श विशुद्ध रूप में मिलता है और उसमें स्‍थान-स्‍थान पर अलौकिक और पारलौकिक प्रेम की ओर भी संकेत होता है। जायसी के ‘पद्‌मावत' को ही लीजिये - उसमें रतनसेन और पद्‌मावती का प्रेम कितना विशुद्ध और आदर्श है। मुंशी इंशाअल्‍ला खाँ रचित ‘रानी केतकी की कहानी' में भी प्रेम का वही रूप मिलता है। धीरे-धीरे समय बीतने पर राजकुमारों और राजकुमारियों के आदर्श और विशुद्ध प्रेम के स्‍थान पर साधारण प्रेमियों और नायक-नायिकाओं के लौकिक प्रेम का भी प्रदर्शन होने लगा और क्रमशः वासना-जनित भोग और विलास की भी अभिव्‍यक्‍ति होने लगी। ‘छबीली भटियारिन', ‘तोता-मैना' और ‘गुलबकावली' इत्‍यादि कहानियों में इसी लौकिक प्रेम तथा भोग-विलास का चित्रण मिलता है।

इस युग की कहानियों की दूसरी विशेषता हास्‍य और विनोद की परम्‍परा का प्रचलन में रहना। गम्‍भीर प्रकृति वाले आर्य हास्‍य-विनोद से दूर ही रहते थे, परन्‍तु मुसलमान प्रायः विनोद-प्रिय होते थे। इसीलिये उनके संसर्ग से विनोद-प्रिय कहानियों की सृष्‍टि आरम्‍भ हो गयी। अकबर और बीरबल के नाम से प्रसिद्ध विनोदपूर्ण कहानियों की सृष्‍टि इसी काल में हुई थी। इस युग की तीसरी प्रमुख विशेषता अस्‍वाभाविक, अतिप्राकृतिक और अतिमानुषिक प्रसंगों की अवतारणा थी। यों तो पौराणिक कथाओं में भी इसी प्रकार के प्रसंग पर्याप्‍त मात्रा में मिलते हैं, परन्‍तु पुराणों में जहाँ आर्यों की सृजनात्‍मक कल्‍पना प्रतीकवादी ढंग के अधिकांश देवी-देवताओं तथा अन्‍य शक्‍तियों की सृष्‍टि करती थी, वहाँ इन कहानियों में प्रतीक की भावना है ही नहीं, वरन्‌ कथा को मनोरंजक बनाने के लिये और कभी-कभी कथा को आगे बढ़ाने के लिये भी अभौतिक अथवा अतिभौतिक सत्‍ताओं तथा अस्‍वाभाविक और अतिमानुषिक प्रसंगों का उपयोग किया जाता था। उड़नखटोला, उड़नेवाला घोड़ा, बातचीत करने वाले मनुष्‍यों की भाँति चतुर पशु और पक्षी, प्रेत, राक्षस, देव, परी और अप्‍सरा इत्‍यादि की कल्‍पना केवल कल्‍पना-मात्र थी। इनसे किसी आध्‍यात्‍मिक सत्‍य अथवा गम्‍भीर तत्‍व की गवेषणा नहीं होती थी, केवल कथा में एक आकर्षण और सौन्‍दर्य आ जाता था। उदाहरण के लिये कुतुबन की ‘मृगावती' में राजकुमारी मृगावती उड़ने की विद्या जानती थी। मंझन-कृत ‘मधुमालती' में अप्‍सराएँ मनोहर नामक एक सोते हुये राजकुमार को रातों-रात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आती हैं। मनोहर से अचल प्रेम होने के कारण जब मधुमालती की माता क्रोध में आकर उसे पक्षी हो जाने का शाप देती है, तो राजकुमारी पक्षी बनकर उड़ने लगती है, फिर भी उसे मनुष्‍यों की भाँति वाणी, भाषा और पहचान की शक्‍ति है। ‘पद्‌मावत' में हीरामन तोता तो पूरा पण्‍डित है और प्रेमदूत बनने में नल में हंस का भी कान काटता है। ‘रानी केतकी की कहानी' में तो इस प्रकार के अस्‍वाभाविक और अतिमानुषिक प्रसंग आवश्‍यकता से अधिक मिलते हैं।

भारतीय कहानियों के विकास का तीसरा युग बीसवीं शताब्‍दी से प्रारम्‍भ होता है। 1750 ई. से ही अंग्रेजों ने भारत में अपनी जड़ जमाना प्रारम्‍भ कर दिया था और 1857 ई. तक सारे भारतवर्ष में उनका साम्राज्‍य स्‍थापित हो गया था। उन्‍होंने अंग्रेजी शिक्षा के लिये स्‍कूल और कालेज खोले, न्‍यायालयों की सृष्‍टि की, मुद्रण-तंत्र का प्रचार किया और रेल, तार, डाक, अस्‍पताल इत्‍यादि खोले। साथ ही ईसाई मिशनरियों ने घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार करना आरम्‍भ कर दिया। इसके फलस्‍वरूप हमारे साहित्‍य, संस्‍कृति, धर्म, समाज और राजनीति इत्‍यादि सभी क्षेत्रों में एक अभूतपूर्व परिवर्तन दिखाई पड़ा। कहानी-साहित्‍य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उसमें भी अद्‌भुत परिवर्तन हुआ। परन्‍तु तेरहवीं-चौदहवीं शताब्‍दी में मुसलमानों के आगमन से कहानी-साहित्‍य में जो परिवर्तन हुआ था, उससे यह नितांत भिन्‍न था। आधुनिक काल में पाश्‍चात्‍य कथा-साहित्‍य और परम्‍परा से सम्‍पर्क हुआ ही नहीं और यदि हुआ भी तो बहुत कम, क्‍योंकि अंग्रेजों ने अपना साम्राज्‍य तो स्‍थापित अवश्‍य किया, परन्‍तु मुसलमानों की भाँति वे भारत में बसे नहीं और अपने को भारतीय जनता से दूर ही रखते रहे। फिर भी पाश्‍चात्‍य साहित्‍य, संस्‍कृति, वैज्ञानिक दृष्‍टिकोण और भौतिक विचारधारा का भारतवासियों पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि आधुनिक काल में जनता की रुचि, विचार, भावना, आदर्श और दृष्‍टिकोण प्राचीनकाल से एकदम भिन्‍न हो गया और इतना अधिक भिन्‍न हो गया कि कहानी को अब हम कहानी मानने के लिये भी प्रस्‍तुत नहीं होते। राजकुमारों और राजकुमारियों की प्रेम-कथाएँ, राजा-रानी की आश्‍चर्यजनक बातें, विक्रमादित्‍य की न्‍याय-कहानियाँ, राजा भोज का विद्याव्‍यसन और उसके दान की कथाएँ, कर्ण और दधीचि का दान, अर्जुन और भीम की वीरता हमें कपोलकल्‍पना जान पड़ने लगीं। फल यह हुआ कि बीसवीं शताब्‍दी के प्रारम्‍भ से कहानी की एक बिल्‍कुल नयी परम्‍परा चल निकली जिसे ‘आधुनिक कहानी' कहते हैं।

प्राचीन और आधुनिक कहानियों में मूलभूत अन्‍तर है और इस अन्‍दर का कारण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति और विचारों के सम्‍पर्क से उत्‍पन्‍न एक नवीन जागृति और चेतना है। पाश्‍चात्‍य शिक्षा के प्रभाव से हमारे दृष्‍टिकोण में महान्‌ परिवर्तन उपस्‍थित हो गया। आधुनिक शिक्षा की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं - यह आलोचनात्‍मक और वैज्ञानिक है; यह सन्‍देह का पोषण करती है और गुरुडम की विरोधी है; प्रकृति की भौतिक सत्‍ताओं पर विश्‍वास करती है और अभौतिक अथवा अतिभौतिक सत्‍ताओं की अविश्‍वासी है; व्‍यक्‍तिगत स्‍वाधीनता की घोषणा करती है और रुढ़ियों, परम्‍पराओं तथा अंधविश्‍वासों का विरोध करती है। इस बुद्धिवाद के प्रभाव से हमें भूत, प्रेत, जिन्‍न, देव, राक्षस, उड़न-खटोला, उड़ने वाला घोड़ा इत्‍यादि अभौतिक अथवा अतिभौतिक, अप्राकृत अथवा अतिप्राकृत अमानुषिक सत्‍ताओं में अविश्‍वास होने लगा। फलतः कहानियों में इनका उपयोग असह्‌य जान पड़ने लगा। इस प्रकार आधुनिक काल में कहानी की सृष्‍टि करने में केवल आकस्‍मिक घटनाओं और संयोगों का ही सहारा लिया जा सकता है। ‘प्रसाद', ज्‍वालादत्‍त शर्मा और विशम्‍भरनाथ शर्मा ‘कौशिक' की प्रारम्‍भिक कहानियों में यही हुआ भी। कहानी-लेखक को कथानक चुनने और उसका क्रम सजाने में अधिक सतर्क रहना पड़ता था, क्‍योंकि अभौतिक तथा अतिभौतिक सत्‍ताओं के लोप से कथा की मनोरंजकता का सारा भार आकस्‍मिक घटनाओं और संयोगों के कौशलपूर्ण प्रयोग पर आ पड़ा। ठीक इसी बीच भारतवर्ष में मनोविज्ञान के अध्‍ययन की ओर विद्वानों की अभिरुचि बढ़ने लगी। लोगों को यह जानकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि देखने और सुनने जैसे साधारण कार्यों में भी आँखों और कानों की अपेक्षा मस्‍तिष्‍क का ही अधिक महत्‍वपूर्ण कार्य होता है। इस प्रकार हमें मानव-मस्‍तिष्‍क की व्‍यापक महत्‍ता का बोध हुआ और यह अनुभव होने लगा कि आकस्‍मिक घटनाओं तथा संयोग की अपेक्षा जीवन में मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क और मन का कहीं अधिक प्रभाव और महत्‍व है। संसार का वास्‍तविक नाटक मानव-मस्‍तिष्‍क और मन का नाटक है; आँख, कान तथा अन्‍य इन्‍द्रियों का नहीं। फलतः कहानियों में इसी मानव-मस्‍तिष्‍क और मन के नाटक का चित्रण होने लग गया। अभौतिक और अतिभौतिक सत्‍ताओं के निराकरण से कहानियों की मनोरंजकता में जो कमी आ गयी थी, उसे इस मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण ने पूरा ही नहीं किया, वरन्‌ और आगे भी बढ़ाया। जैसे मुंशी प्रेमचन्‍द ने लिखा है - ‘आधुनिक कहानी मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण और जीवन के यथार्थ चित्रण को अपना ध्‍येय समझती है'।

यों तो साहित्‍य के प्रत्‍येक अंग और रूप की परिभाषा प्रस्‍तुत करना सरल बात नहीं है, परन्‍तु आधुनिक कहानी की परिभाषा प्रस्‍तुत करना शायद सबसे कठिन है। फिर भी साहित्‍य के अन्‍य रूपों के साथ इसकी समता और विषमता प्रदर्शित कर, इसकी विशेषताओं का सूक्ष्‍म विश्‍लेषण और इसकी व्‍याख्‍या सन्‍तोषजनक रूप से की जा सकती है। अब प्रश्‍न यह उठता है कि आखिर आधुनिक कहानी क्‍या है ?

कुछ कथाकारों का मानना है कि कहानी और उपन्‍यास में विशेष अन्‍तर नहीं है कथानक और शैली की दृष्‍टि से कहानी उपन्‍यास के बहुत निकट है। केवल कहानी का विस्‍तार उपन्‍यास से बहुत कम होता है। इस मत के अनुसार हम इस सारांश पर पहुँचते हैं कि कहानी उपन्‍यास का ही लघु रूप है और एक ही कथानक इच्‍छानुसार बढ़ाकर उपन्‍यास और छोटा करके कहानी के रूप में प्रस्‍तुत किया जा सकता है, परन्‍तु यह मत सर्वथा भ्रान्‍तिपूर्ण है। कहानी, उपन्‍यास का छोटा रूप नहीं, वरन्‌ वह उससे एक सर्वथा भिन्‍न और स्‍वतंत्र साहित्‍य रूप है। बाह्‌य दृष्‍टि से कहानी और उपन्‍यास में समानता अवश्‍य है, परन्‍तु सूक्ष्‍म दृष्‍टि से देखने पर दोनों में स्‍पष्‍ट अन्‍तर दृष्‍टिगोचर होता है।

उपन्‍यास में सबसे प्रधान वस्‍तु उसका कथानक हुआ करता है और बिना कथानक के उपन्‍यास की सृष्‍टि हो ही नहीं सकती। भाव-प्रधान उपन्‍यासों में भी एक कथानक का होना अनिवार्य होता है। परन्‍तु आधुनिक कहानी में कथानक का होना आवश्‍यक होते हुये भी अनिवार्य नहीं है, कितनी ही कहानियों में कथानक होता ही नहीं। कभी-कभी केवल कुछ मनोरंजक बातों, चुटकुलों और चित्‍त को आकर्षित करने वाली सूझों के आधार पर ही कहानी की सृष्‍टि हो जाया करती है। उदाहरण के लिये प्रस्‍तुत पुस्‍तक में संकलित भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘मुगलों ने सल्‍तनत बख्‍श दी' देखिये। इसमें कथानक कुछ भी नहीं है, केवल एक मनोरंजक बात जिसे लेखक ने अपनी अद्‌भुत कल्‍पना-शक्‍ति से, केवल अपनी शैली के बल पर एक सुन्‍दर कहानी के रूप में प्रस्‍तुत किया है। इसी प्रकार प्रेमचन्‍द की कहानी ‘पूस की रात' में कुछ चरित्रों के द्वारा एक वातावरण की सृष्‍टि की गई है, परन्‍तु उसमें कथा-भाग नगण्‍य है। इसी प्रकार ‘अज्ञेय' की कहानी ‘रोज' में कथानक का अंश बहुत ही गौण है। लेखक ने कुछ चरित्रों के द्वारा एक अद्‌भुत प्रभाव की सृष्‍टि की है, जिससे नायक की ओर पाठकों का ध्‍यान भी नहीं जाता।

आधुनिक कहानी में जहाँ कथानक होता भी है, वहाँ कहानी का कथानक उपन्‍यास के कथानक से बहुत भिन्‍न हुआ करता है। उपन्‍यास में प्रायः एक मुख्‍य कथानक के साथ-ही-साथ दो-तीन गौण कथाएँ भी चलती रहती हैं और जहाँ गौण कथानक नहीं होते, वहाँ मुख्‍य कथानक ही इतना विस्‍तृत हुआ करता है कि उससे जीवन का पूरा चित्र प्रस्‍तुत किया जा सकता है। परन्‍तु कहानी में अधिकांश गौण कथाएँ होती ही नहीं; केवल एक मुख्‍य कथा होती है और उससे भी जीवन का पूरा चित्र प्रकाश में नहीं आता, केवल किसी अंग-विशेष पर ही प्रकाश पड़ता है। कुछ कहानियों में जहाँ मुख्‍य कथानक के अतिरिक्‍त कुछ गौण कथाएँ भी होती हैं वहाँ भी जीवन के किसी अंग-विशेष पर ही प्रकाश पड़ता है, पूरे जीवन का चित्र उपस्‍थित नहीं होता। इससे यह न समझ लेना चाहिये कि कहानी का कथानक अपूर्ण-सा होता है और उसे इच्‍छानुसार पूर्ण किया जा सकता है - आगे बढ़ाया जा सकता है। कहानी का कथानक अपने में ही पूर्ण होता है और उसे कठिनाई से आगे बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार कहानी और उपन्‍यास में महान्‌ अन्‍तर होता है।

चरित्र की दृष्‍टि से भी कहानी और उपन्‍यास में उतना ही अन्‍तर है जितना कथानक की दृष्‍टि से। उपन्‍यास में चरित्र भी एक आवश्‍यक अंग है। घटना-प्रधान तथा भाव-प्रधान उपन्‍यासों में भी चरित्र होते हैं और उनका यथार्थ चित्रण किया जाता है, परन्‍तु कहानियों में चरित्र का होना अनिवार्य नहीं है। कितनी ही कहानियों में चरित्र होते ही नहीं, या होते भी हैं तो गौण होते हैं। उदाहरण के लिये भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘मुगलों ने सल्‍तनत बख्‍श दी' में चरित्र है ही नहीं और ‘पूस की रात' तथा ‘रोज' कहानियों में चरित्र-चित्रण का प्रयास नहीं मिलता, वरन्‌ उनमें चरित्र केवल निमित्‍त मात्र हैं, लेखक का मुख्‍य उद्‌देश्‍य वातावरण और प्रभाव की सृष्‍टि करना है। चरित्र-प्रधान और कथा-प्रधान कहानियों में चरित्र होते अवश्‍य हैं, परन्‍तु उपन्‍यासों की भाँति उनका सम्‍पूर्ण चरित्र-चित्रण कहानी में नहीं मिलता, वरन्‌ किसी पक्ष-विशेष का ही चित्रण मिलता है। सच तो यह है कि पूर्ण रूप से चरित्र-चित्रण के लिये कहानी में स्‍थान नहीं होता।

शैली की दृष्‍टि से कहानी और उपन्‍यास में विशेष अन्‍तर नहीं है। केवल स्‍थानाभाव के कारण कहानी में विस्‍तृत प्रकृति-वर्णन अथवा अन्‍य प्रकार के वर्णनों के लिये क्षेत्र बहुत ही कम है। इसलिये कहानी की शैली अत्‍यन्‍त सुगठित और संक्षिप्‍त होती है।

प्रभाव-क्षेत्र और विस्‍तार की दृष्‍टि से आधुनिक कहानी एकांकी नाटक और निबन्‍ध के बहुत निकट है। कहानी में एकांकी नाटक और निबन्‍ध की ही भाँति जीवन का पूरा चित्र नहीं मिलता, वरन्‌ उसके किसी विशेष मनोरंजक, चित्‍ताकर्षक एवं प्रभावशाली दृश्‍य अथवा पक्ष का ही चित्र मिलता है और इसका विस्‍तार भी उन दोनों साहित्‍य-रूपों (एकांकी नाटक और निबन्‍ध) की ही भाँति छोटा होता है, जिससे पूरी कहानी एक बैठक में ही अर्थात्‌ डेढ़ घण्‍टे के भीतर ही भली प्रकार पढ़ी जा सके। परन्‍तु इतनी समानता होने पर भी कहानी उन दोनों से सर्वथा भिन्‍न रहती है। एकांकी नाटक अभिनय की वस्‍तु है, इसलिये उसमें प्रकृति-वर्णन तथा अन्‍य प्रकार के वर्णनों का सर्वथा अभाव रहता है और शैली की दृष्‍टि से तो कहानी एकांकी नाटकों से बिल्‍कुल भिन्‍न साहित्‍य रूप है। निबन्‍ध में स्‍वाभाविक वर्णन तो मिलता है और वह कहानी की भाँति सुगठित एवं संक्षिप्‍त शैली में होता है परन्‍तु इसमें उसकी कल्‍पना-शक्‍ति का अभाव रहता है जिसके सहारे आधुनिक कहानी में किसी मनोरंजक कथा, किसी प्रभावशाली और सुन्‍दर चरित्र, किसी मनोवैज्ञानिक चित्र, कवित्‍वपूर्ण अथवा यथार्थ वातावरण तथा किसी शक्‍तिशाली और सुन्‍दर प्रभाव की सृष्‍टि होती है।

आधुनिक कहानी की दो विशेषताएँ हैं। प्रथम विशेषता इसमें कल्‍पना-शक्‍ति का आरोप है। यों तो साहित्‍य के प्रत्‍येक क्षेत्र और विभाग में कल्‍पना का उपयोग आवश्‍यक एवं अनिवार्य हुआ करता है, परन्‍तु कहानी में ही शायद इसका सबसे अधिक उपयोग होता है। वास्‍तव में देखा जाए तो कल्‍पना कहानी का प्राण है। चाहे प्रेमचन्‍द और ‘प्रसाद' के गम्‍भीर मानव-चरित्र का चित्रण हो, चाहे जैनेन्‍द्र कुमार और भगवती प्रसाद बाजपेयी का सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण; चाहे हृदयेश, राधिकारमण प्रसाद सिंह और गोविन्‍दवल्‍लभ पंत की कवित्‍तपूर्ण वातावरण-प्रधान कहानियाँ हों, चाहे ‘अज्ञेय' और चंद्रगुप्‍त विद्यालंकार की प्रभाववादी कहानियाँ; चाहे भगवतीचरण वर्मा की व्‍यंग्‍यात्‍मक कहानियोँ, चाहे जी. पी. श्रीवास्‍तव की अतिनाटकीय प्रसंगों से युक्‍त हास्‍यमय गल्‍प, चाहे गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियाँ हों, चाहे दुर्गा प्रसाद खत्री की रहस्‍यमयी और साहसिक कहानियाँ - इन सभी स्‍थानों में कल्‍पना की ही प्रमुखता देखने को मिलती है। सच तो यह है बिना कल्‍पना के कहानी की सृष्‍टि हो ही नहीं सकती। किसी भावना को कहानी का रूप देने के लिये, किसी मनोवैज्ञानिक सत्‍य को प्रदर्शित करने के लिये, किसी प्रभाव की सृष्‍टि करने के लिये, किसी मनोरंजक बात को साहित्‍यिक रूप प्रदान करने के लिये अथवा किसी चरित्र-विशेष के सूक्ष्‍म मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण के लिये घटनाओं का क्रम एवं घात-प्रतिघात-संयुक्‍त कथानक की सृष्‍टि करना कल्‍पना-शक्‍ति का ही काम है। कोई भी कहानी हो - सब की तह में कल्‍पना का ही प्रभाव स्‍पष्‍ट रूप से देखने को मिलता है। आधुनिक कहानी में कल्‍पना की सबसे अधिक जादूगरी पुराण-कथा ;डलजी डांपदहद्ध शैली में देखनें को मिलती है। मोहनलाल महतो की कहानी ‘कवि' में कल्‍पना के अतिरिक्‍त और है ही क्‍या ? कमलाकान्‍त वर्मा की ‘पगडंडी' में - लेखक ने अमराइयों को चीर कर जाती हुई एक छोटी-सी ‘पगडंडी' देखी थी और उसी पर एक दार्शनिक भावनापूर्ण सुन्‍दर कहानी की सृष्‍टि कर दी - केवल अपनी कल्‍पना-शक्‍ति से! वास्‍तव में आधुनिक कहानी की प्रमुख विशेषता कल्‍पना के अद्‌भुत आरोपण में है।

आधुनिक कहानी की दूसरी विशेषता कम से कम पात्रों अथवा चरित्रों द्वारा कम से कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से कथानक, चरित्र, वातावरण और प्रभाव इत्‍यादि की सृष्‍टि करना है। किसी व्‍यर्थ चरित्र अथवा निरर्थक घटना और प्रसंग के लिये कहानी में स्‍थान ही नहीं है। यों तो व्‍यर्थ चरित्र और निरर्थक घटना और प्रसंग नाटक, उपन्‍यास और एकांकी नाटक में भी अनावश्‍यक है, परन्‍तु स्‍थानाभाव के कारण कहानी में उनका निराकरण अत्‍यन्‍त आवश्‍यक होता है। आधुनिक कहानी साहित्‍य का एक विकसित कलात्‍मक रूप है, जिसमें व्‍यर्थ चरित्र और निरर्थक प्रसंग उसके सौन्‍दर्य के लिये घातक प्रमाणित हो सकते हैं।

स्‍पष्‍ट है कि आधुनिक कहानी साहित्‍य का विकसित कलात्‍मक रूप है जिसमें लेखक अपनी कल्‍पना-शक्‍ति के सहारे, कम से कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा, कम से कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्‍य अथवा प्रभाव की सृष्‍टि करता है।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

स्वर विज्ञान


स्वर विज्ञान 

स्वर विज्ञान भारत की अत्यत प्राचीन विद्या है। इस विद्या के द्वारा सासारिक कार्यो की सफलता के लिए किसी कार्य के शुभारभ का मुहूर्त निकाला जाता है। स्वर विज्ञान की मूल पुस्तक शिव स्वरोदय में ऐसा वर्णन है कि स्वर विज्ञान से निकाले गये मुहूर्त कभी असफल नहीं हो सकते।

स्वर और उसके प्रकार

नासिका द्वारा सास के अंदर जाने व बाहर आने के समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसी को स्वर कहते है। स्वर तीन प्रकार के होते है- 1. सूर्य स्वर। 2. चद्र स्वर। 3. सुषुम्ना स्वर।

दाहिनी नासिका के अव्यक्त स्वर को सूर्य स्वर कहते है। और बायीं के अव्यक्त स्वर को चद्र स्वर कहते है। स्वर विज्ञान के अनुसार जब सूर्य स्वर चल रहा हो, तो शरीर को गर्मी मिलती है और जब चद्र स्वर चल रहा हो तो शरीर को ठडक मिलती है, किन्तु जब दोनों स्वर एक साथ चल रहे हों, तब शरीर गर्मी और ठडक के सतुलन में रहता है।

विशेष लाभ

जैसे प्राणायाम करते समय स्वच्छ वायु का ध्यान रखना जरूरी है, उसी प्रकार स्वर विज्ञान के अनुसार दोनों स्वरों के एक साथ चलने का ध्यान रखने से या इन्हे चलाकर प्राणायाम करने से प्राणायाम अभ्यासी को किसी भी प्रकार की कभी हानि की सभावना नहीं होती और उसे विशेष लाभ भी प्राप्त होते हैं

-मान लीजिये आपका दाहिना स्वर या सूर्य स्वर चल रहा है अर्थात् शरीर में गर्मी की वृद्धि हो रही है और आपको शरीर में गर्मी बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसी स्थिति मे स्वाभाविक है कि प्राणायाम से गर्मी और बढ़ेगी, परिणामस्वरूप न चाहने पर भी प्राणायाम से शरीर को नुकसान होगा।

-मान लीजिए आपका बाया स्वर चल रहा है और इस कारण शरीर में ठडक की वृद्धि हो रही है। आपको शरीर में ठडक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है, तो स्वाभाविक है कि प्राणायाम करने से ठडक और बढ़ेगी। परिणामत: शरीर को नुकसान होगा।

-प्राणायाम के अनुभवी जानकार इसीलिए प्राणायाम के पहले योगासनों का अभ्यास करते है या मध्यम या तेज गति से प्रात: भ्रमण या जॉगिग करते हैं या एक ही स्थान पर खड़े होकर 10-15 मिनट भ्रमण योग करते है। फलस्वरूप दोनों स्वर एक साथ चलने लगते है। फिर प्राणायाम से न गर्मी अनावश्यक बढ़ती है और न ही सर्दी अनावश्यक बढ़ती है।

यदि साधक अनुभव करते है कि उन्हें गर्मी की आवश्यकता है, तब साधक दाहिने स्वर को चलाकर प्राणायाम करें तो वह लाभकारी होगा। वहीं साधक को यदि ठडक की आवश्यकता है तो साधक बाएं स्वर को चलाकर प्राणायाम करे तो लाभकारी होगा। जिस स्वर को चलाना चाहते है, उसके विपरीत नासिका द्वार में रुई लगा दें, तो कुछ देर में वह स्वर चलने लगेगा या अगर आप दाहिना स्वर चलाना चाहते हैं, तो फिर कुछ देर तक बायींकरवट लेट जाएं। इसी तरह यदि बाया स्वर चलाना चाहते तो कुछ देर तक दाहिनी करवट लेट जाएं। स्वर विज्ञान के अनुरूप प्राणायाम करने से पहले योग विशेषज्ञ से परामर्श लेकर प्राणायाम की विधि की अच्छी तरह से जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए।

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