रविवार, 17 मई 2020

हिंदी के प्रमुख नाटककार


प्रमुख नाटककार : भारतेंदु हरिश्चंद्र; जयशंकर प्रसाद और मोहन राकेश-

भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी के प्रथम मौलिक नाटककार हैं । उन्होंने ना केवल नाटक को युगीन समस्याओं से जोड़ा बल्कि नाटक और रंगमंच के परस्पर संबंध को समझाते हुए रंगकर्म भी किया। भारतेंदु ने हिंदी नाट्य विकास के लिए योजनाबद्ध ढंग से एक संपूर्ण आंदोलन की तरह काम किया है।


प्रमुख नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र-

भारतेंदु ने पारसी नाटकों के विपरीत जनसामान्य को जागृत करने एवं उनमें आत्मविश्वास जगाने के उद्देश्य से नाटक लिखे हैं । इसलिए उनके नाटकों में देशप्रेम , न्याय , त्याग , उदारता  जैसे मानवीय मूल्यों नाटकों की मूल संवेदना बनकर आए हैं प्राचीन संस्कृति के प्रति प्रेम एवं ऐतिहासिक पात्रों से प्रेरणा लेने का प्रयास भी इन नाटकों में हुआ है।

भारतेंदु के लेखन की एक मुख्य विशेषता यह है कि वह अक्सर व्यंग्य का प्रयोग यथार्थ को तीखा बनाने में करते हैं । हालांकि उसका एक कारण यह भी है कि तत्कालीन पराधीनता के परिवेश में अपनी बात को सीधे तौर पर कह पाना संभव नहीं था । इसलिए जहां भी राजनीतिक , सामाजिक चेतना , के बिंदु आए हैं वहां भाषा व्यंग्यात्मक हो चली है ।

इसलिए भारतेंदु ने कई प्रहसन भी लिखे हैं।

भारतेंदु ने मौलिक व अनुदित दोनों मिलाकर 17 नाटकों का सृजन किया भारतेंदु के प्रमुख नाटक का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

‘ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ‘ मांस भक्षण पर व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया नाटक है ।

‘ प्रेमयोगिनी ‘ में काशी के धर्मआडंबर का वही की बोली और परिवेश में व्यंग्यात्मक चित्रण किया गया है।‘ विषस्य विषमौषधम् ‘ मैं अंग्रेजों की शोषण नीति और भारतीयों की महाशक्ति मानसिकता पर चुटीला व्यंग है।

‘ चंद्रावली ‘ वैष्णव भक्ति पर लिखा गया नाटक है ।

‘ अंधेर नगरी ‘ में राज व्यवस्था की स्वार्थपरखता, भ्रष्टाचार , विवेकहीनता एवं मनुष्य की लोभवृति पर तीखा कटाक्ष है जो आज भी प्रासंगिक है।

‘ नीलदेवी ‘ में नारी व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा है । यह दुखांत नाटक की परंपरा के नजदीक है ।

‘ भारत दुर्दशा ‘ में पराधीन भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति एवं सामाजिक – सांस्कृतिक अधः पतन  का चित्रण है ।

‘सती प्रताप’ सावित्री के पौराणिक आख्यान पर लिखा गया है।

भारतेंदु ने अंग्रेजी के ‘ मर्चेंट ऑफ वेनिस ‘ नाटक का ‘ दुर्लभबंधु ‘ नाम से अधूरा अनुवाद भी किया है।

भारतेंदु के नाटक सोद्देश्य लिखे गए हैं । उनकी भाषा आम आदमी की भाषा है । लोकजीवन के प्रचलित शब्द मुहावरे एवं अंग्रेजी , उर्दू , अरबी , फारसी के सहज चलन में आने वाले शब्द उनके नाटकों में प्रयुक्त हुए हैं ।

रंगमंचीय दृष्टि से वह प्रायः भारतीय परंपरा की नीतियों का अनुसरण करते हैं

जैसे – नांदीपाठ , मंगलाचरण आदि ।

वैसे उन्होंने ‘ नीलदेवी ‘ नामक दुखांत नाटक लिखकर पाश्चात्य नाट्य परंपरा से भी प्रभाव ग्रहण किया है ।

‘ भारत दुर्दशा ‘ में भी दुखांत का प्रभाव विद्यमान है ।

भारतेंदु को हिंदी के प्रथम नाटककार एवं युग प्रवर्तक के रूप में स्वीकार किया गया है ।

हिंदी नाट्य साहित्य को उनकी देन निम्नलिखित है-

1  उन्होंने पहली बार हिंदी में अनेक विषयों पर मौलिक नाटकों की रचना की तथा कथानक के क्षेत्र में विविधता लाए ।

2 पहली बार हास्य व्यंग्य प्रधान प्रहसन लिखने की परंपरा का सूत्रपात किया।

3 पहली बार भारतीय जीवन के यथार्थ के विविध नवीन पक्षों का उद्घाटन किया।

4  पहली बार हिंदी के मौलिक रंगमंच की स्थापना का प्रयास किया ।

5 अनेक भाषाओं से नाटकों के सुंदर अनुवाद किए ।

6 संस्कृत , बांग्ला , अंग्रेजी नाटक कला का समन्वय कर हिंदी की स्वतंत्र नाट्यकला  की नींव डाली।



प्रमुख नाटककार  जयशंकर प्रसाद-

भारतेंदु के बाद जयशंकर प्रसाद ने ही हिंदी नाटक को एक नया आयाम दिया । उन्होंने ऐतिहासिक , सांस्कृतिक परंपराओं को आत्मसात कर पाश्चात्य एवं भारतीय नाट्य साहित्य का समन्वय किया। यह श्रेय प्रसाद को ही है कि उन्होंने सात्विक मनोरंजन के साथ पहली बार हिंदी नाटकों को हास्य-व्यंग्य , गहरी संवेदना, आदर्श , मनोवैज्ञानिक विश्लेषण , एवं ऐतिहासिक चेतना से युक्त किया।

प्रसाद के नाटक हैं –

‘  सज्जन ‘  ,

‘ कल्याणी परिणय ‘ ,

 करुणालय ‘ ,

‘ प्रायश्चित ‘ ,

‘ राज्यश्री ‘ ,

‘ विशाख ‘,

 ‘ अजातशत्रु ‘ ,

‘ जनमेजय का नागयज्ञ ‘ ,

‘ कामना ‘, 

‘ स्कंदगुप्त ‘ ,

‘ एक घूंट ‘ ,

‘ चंद्रगुप्त ‘ ,

‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ ,

‘  अग्निमित्र ‘ ।

इन में प्रथम चार नाटक प्राचीन नाट्य परंपरा से मुक्त नहीं है ।

यद्यपि ‘ करुणालय ‘ में उन्होंने गीतिनाट्य शैली का प्रयोग किया है । ‘ स्कंदगुप्त ‘ , ‘ चंद्रगुप्त ‘,  ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ आदि नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रयास किया है ।  इन नाटकों में उन्होंने इतिहास के बीच से ही प्रेम और सौंदर्य के मधुर चित्र खींचे हैं । यहां प्रसाद की दृष्टि रोमांटिक होते हुए भी संयमित रही है । प्रसाद ने इन नाटकों में ऐतिहासिक तथ्यों के द्वारा वर्तमान जीवन की सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया है । जैसे ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ नाटक के माध्यम से उन्होंने आधुनिक नारी की संबंध – विच्छेद व पुनर्विवाह की समस्या को प्रस्तुत किया है।

प्रसाद ने पहली बार पात्रों को उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान किया ।

उन्होंने पात्रों के अंतर्मन की सूक्ष्म सम्वेदनाओं को प्रस्तुत किया है । उनके पात्र अंतर्द्वंद्व से युक्त हैं इसलिए कहीं-कहीं उनका नायकत्व खंडित होता भी प्रस्तुत होता है । परंतु प्रसाद ने पात्रों को यथार्थवादी मानव सुलभ रूप प्रदान करने का प्रयास किया है । यद्यपि उनके पात्र त्याग व उत्सर्ग में ही संतोष प्राप्त करते हैं लेकिन यह समय की जरूरत थी। साथ ही पारसी नाटकों की सस्ती मनोरंजककारी प्रकृति से प्रसाद क्षुब्ध थे । इसलिए भी नाटकों में वह आदर्शों , मूल्यों की स्थापना करना चाहते थे।

प्रसाद ने भारतीय व पाश्चात्य नाट्य परंपरा का समन्वय कर नई  संस्थापनाएं भी कि ।

उन्होंने पाश्चात्य दुखान्त  व भारतीय सुखांत नाटकों के सामंजस्य से ‘ प्रसादांत ‘ नाटकों की रचना की।

उन्होंने नाटकों में सस्ते गीतों की जगह रसपूर्ण व स्तरीय गीतों का प्रयोग किया है ।

यद्यपि कहीं-कहीं इन गीतों से नाटकों के प्रभाव में व्यावधान प्रतीत होता है फिर भी काव्य तत्व की दृष्टि से यह गीत सुंदर बन  पड़े हैं ।

जहां तक प्रसाद की भाषा का प्रश्न है उनके नाटकों की भाषा संस्कृतनिष्ठ है ।

दार्शनिक संवादों , स्वगत कथनों वह गीतों की अधिकता के कारण उनकी भाषा पर दोहराव के आरोप भी लगते हैं ।

एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि प्रसाद के नाटक रंगमंच की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है । वस्तुतः प्रसाद ने पहले ही यह घोषित कर दिया था कि –

” नाटकों के लिए रंगमंच होना चाहिए , रंगमंच के लिए नाटक नहीं “।

फिर भी उनके नाटकों के सफल मंचन होते रहे हैं।

आधुनिक तकनीकों ने भी इनके मंचन को संभव बनाया है।

समग्रतः  प्रसाद का हिंदी नाटक साहित्य में वही स्थान है जो उपन्यास व कहानी परंपरा में ‘ प्रेमचंद ‘ का है । आधुनिक नाटकों में आज जिस मानवीय द्वंद्व को प्रस्तुत किया जा रहा है उसकी नींव प्रसाद ने ही डाली थी । ऐतिहासिक नाटकों द्वारा समसामयिक  समस्याओं पर चित्रण की परंपरा मोहन राकेश आदि नाटककारों  मैं बाद में भी चलती रही । प्रसाद के नाटक इस अर्थ में आज भी प्रासंगिक है कि न केवल उन्होंने नाटक को नई संवेदना दी बल्कि एक नया शिल्प भी दिया है।



 प्रमुख नाटककार मोहन राकेश-

हिंदी की ‘ नवनाट्य लेखन ‘ का ‘ नया नाटक ‘ परंपरा को एक  व्यापक सृजनात्मक एवं ठोस आंदोलन के रुप में स्थापित करने का श्रेय मोहन राकेश को है । सामान्यतः राकेश को प्रसाद की परंपरा का नाटककार कहा जा सकता है । क्योंकि उनके नाटकों में ऐतिहासिकता , नारी पात्रों की प्रधानता , भावुकता,  काव्यात्मकता मौजूद है। फिर भी मोहन राकेश ने इस परंपरा का नए रुप में विकसित किया है एवं प्रसाद की परंपरा से इत्तर आधुनिक भाव-बोध के नाटक लिखे गए हैं । उन्होंने आधुनिक सम्वेदनाओं आधुनिक मानव के द्वंद्व को पकड़ना चाहा है । उनके नाटकों में पात्रों की भीड़भाड़ नहीं है ।

साथ ही साथ उन्होंने नाटकों में प्रचलित रूप को आधे अधूरे नाटक में तोडा भी है ।

मोहन राकेश ने निम्नलिखित नाटक लिखे –

‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ ,

‘ लहरों के राजहंस ‘ ,

‘ आधे अधूरे ‘ ,

तथा ‘ पैरो तले की जमीन ‘

कुल चार नाटक लिखे ।

इसके अतिरिक्त उन्होंने कुछ एकांकियों की भी रचना की है।

‘ आषाढ़ का एक दिन ‘ नाटक कवि कालिदास के सत्ता एवं सृजनात्मकता के मध्य अंतर संघर्ष का चित्रण करता है । यह केवल कालिदास का द्वंद्व नहीं बल्कि आधुनिक मानव का भी अंतर्द्वंद्व है । कालिदास एक ऐसे सृजनशील कलाकार का प्रतीक है जिसकी सृजनशीलता व्यवस्था द्वारा कुचल दी जाती है।

‘ लहरों के राजहंस ‘ बुद्ध के भ्राता नंद पर आधारित नाटक है । इसमें भी भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का द्वंद्व है । इन दोनों किनारों के मध्य खड़े मनुष्य को उचित समन्वय से ही सही दिशा मिल सकती है। इसमें ‘ सुंदरी ‘ में प्रवृत्ति पक्ष  की प्रतीक है  तो ‘ बुद्ध ‘ निवृत्ति पक्षों के , और नंद दोनों के बीच द्वंद्वग्रस्त मानव चेतना का। प्रतीकों की बहुलता से कहीं – कहीं यह नाटक बोझिल प्रतीत होता है लेकिन चारित्रिक अंतर्द्वंद्व ,  मनोवैज्ञानिकता के स्तर पर यह नाटक उल्लेखनीय बन पड़ा है।

‘ आधे अधूरे ‘ में मोहन राकेश आभिजात्य संस्कारों से मुक्त हो सीधे यथार्थ से टकराते हैं ।

प्रश्नों यहां भी द्वंद्व , असंतोष और एक अंतहीन खोज का है । केवल परिवेश भिन्न है । मध्यम वर्गीय महानगरीय जीवन में आर्थिक संकट एवं अस्तित्व के संकट के कारण एक परिवार के विघटन को यह नाटक रूपायित करता है।

यह नाटक कई स्तरों पर संकेत देता है ।

यह एक साथ पारिवारिक विघटन मानवीय संबंधों में दरार , दांपत्य संबंधों की कटुता , आपसी रिश्तो की रिक्तता , योन विकृतियों , द्वंद्व एवं नियति आदि को समेटता चलता है। ‘  आधे अधूरे ‘ नाटक में उन्होंने एक ही अभिनेता से पांच भूमिकाएं कराने का प्रयोग किया है । लेकिन यह प्रयोग एक नाटकीय युक्ति बनकर ही रह गया है ।

इसमें उन्होंने प्रस्तावना का भी प्रयोग किया तथा परंपरा को नए संदर्भ में प्रयुक्त किया । यह नाटक पहले के दो नाटकों से एक अन्य दृष्टि से विभिन्न है। पहले दोनों नाटकों के पुरुष पात्र नंद एवं कालिदास अंत में चले जाते हैं , जबकि इस में महेंद्रनाथ पुनः वापस लौट आता है जो नाटककार की समसामयिक दृष्टि की प्रमाणिकता को सिद्ध करता है।

‘ पैरों तले की जमीन ‘  अधूरा नाटक है ।

इसमें कोई कथानक नहीं है इसमें मुख्यतः स्थितियों की विसंगतियों से उतपन्न अंतर्द्वंदों की अभिव्यक्ति की गई है , जिसमें नेपथ्य की ध्वनियों के आधार पर रंगमंच को नया अर्थ देने का प्रयोग है।

इन चारों नाटकों के अतिरिक्त मोहन राकेश ने ‘ अंडे के छिलके ‘, ‘ शायद ‘ , ‘ धारियां ‘ नामक लघु नाटक भी लिखे हैं । इन सभी नाटकों में ‘ आधे अधूरे ‘ की भाषा सबसे शानदार बन पड़ती है । आज के जीवन के तनाव को पकड़ पाती है यह स्थितियों का चित्रण उतना नहीं है जितना पात्रों की मनःस्थितियों का है।

मोहन राकेश ने अपनी सभी नाटकों में भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयत्न किया है । शिल्प की बनावट का उतना नहीं फिर भी उनकी कोशिश रही है कि शब्दों के संयोजन से ही दृश्यत्व पैदा हो न की अन्य उपकरणों से ।

यही उनके अंतरिक शिल्प की खोज है ।

उनके नाटकों में रंगमंच नाटक की बनावट में ही है कहीं से आरोपित नहीं ।

मोहन राकेश के नाटकों में कथा की उतनी चिंता नहीं की गई जितनी संवेदना को सही रूप में व्यक्त करने की उन्होंने हिंदी नाटक को प्रसाद में और कृत्रिम भाषा से मुक्त कर योग्य विसंगतियों को दूर करने के लिए समर्थ भाषा प्रदान की। मोहन राकेश के नाटक रंगमंचीय दृष्टि से अत्यंत सफल एवं प्रयोगशील है।





भारतेन्दु: आधुनिक हिंदी के जनक


आधुनिक हिंदी के जनक थे भारतेन्दु-

साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ ‘भारतेन्दु काल’ से माना जाता है. भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी के जन्मदाता और भारतीय नवजागरण के अग्रदूत थे. वह बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे. उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी की वह एक साथ कवि, नाटककार, पत्रकार एवं निबंधकार थे. उन्होंने एक उत्कृष्ट कवि, नाटककार और गद्य लेखक के रूप में अप्रतिम योगदान दिया, वहीं एक पत्रकार के रूप में समस्त देश को जागरण का नवसंदेश दिया. उनका सुधारवादी दृष्टिकोण रहा था. उनके द्वारा किये गए कार्य उन रेखाओं की भांति हो गए जिन पर भारत के अनेकों महापुरुषों ने उनके बाद भारत के भविष्य की आधार-शिलाएं रखीं.

समाज सुधार से लेकर स्वदेशी आन्दोलन तक उनकी दृष्टि गयी थी. वे देश की जनता में एक नई चेतना जगाना चाहते थे जो प्रत्येक क्षेत्र में उसे सजग रखे. उन्होंने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया. साथ ही अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी खड़ी कीं. वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने ‘तदीय समाज’ की स्थापना की थी. अपनी देश भक्ति के कारण राजभक्ति प्रकट करते हुए भी उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा. उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि प्रदान की थी, जो उनके नाम का पर्याय बन गया.

उन्होंने अपनी रचना के माध्यम से भारतीय समाज ख़ास कर हिंदी जनमानस में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम किया. अपनी पत्रिका ‘कवि वचन सुधा’ के माध्यम से उन्होंने लेखन की दिशा में अनेक प्रयोग किये. उनके द्वारा सम्पादित ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’, ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ और ‘बाला बोधनी’ आदि पत्रिकाओं की भूमिका भी कम महत्व नहीं रखती. ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ तथा ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ ने जहाँ देश की शिक्षित और जागरूक जनता को राष्ट्रभाषा हिंदी में अपने विचारों के प्रचार करने का खुला मंच प्रदान किया, वहीं ‘बाला बोधनी’ के माध्यम से उन्होंने महिलाओं को भी इस दिशा में आगे बढाने का सराहनीय कार्य किया.

उन्नीसवीं शताब्दी कि आरंभ में भारत के नवशिक्षित बौद्धिकों में एक नई चेतना का उदय हुआ था. इस चेतना को अपने देश में कहीं पुनर्जागरण और कहीं नवजागरण कहा जाता है. नवजागरण के लिए पुनरूत्थान, पुनर्जागरण, प्रबोधन, समाज सुधार आदि अनेक शब्द प्रचलित हैं. निस्स्न्देह इनमें से प्रत्येक शब्द के साथ एक निश्चित अर्थ, एक निश्चित प्रत्यय जुड़ा हुआ है. चेतना की लहर देर-सवेर कमोवेश भारत के सभी प्रदेशों में फैली. देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए जहाँ भारत माता के कुछ सपूतों ने जंग छेड़ी हुई थी,  वहीं कुछ लोग गुलाम होने के कारणों को जानकर उन्हें हटाने में जुटे हुए थे. भारतेन्दु उनमें से एक थे. उनके विचार में साहित्य की उन्नति देश और समाज की उन्नति देश और समाज की उन्नति से जुड़ी है. सामाजिक उन्नति का एक महत्वपूर्ण सूत्र था ‘नारि नर सम होहिं’. यह बात रुढ़िवादियों को वैसे ही पसंद नहीं थी जैसे भारत के भारत के निज स्वत्व प्राप्त करने की बात अंग्रेजों को. भारतेन्दु दोनों के ही कोपभाजन हुए. नवजागरण काल के इस प्रणेता को आज का भारत कभी नहीं भुला सकता. वे एक व्यक्ति नहीं विचार थे. कर्म नहीं क्रांति में विश्वास रखते थे.

भारतेन्दु का मानना था कि अंग्रेजी राज ख़त्म होने पर ही देश की वास्तविक उन्नति संभव होगी. भारतेन्दु ने अंग्रेजी राज में भारत के आर्थिक ह्रास का जो विश्लेषण किया था, उससे स्वदेशी आन्दोलन की आवश्यकता प्रमाणित होती थी. उन्होंने ऐसी सभा बनाई जिसके सदस्य स्वदेशी वस्तुओ का ही व्यवहार करते थे. स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार से उद्योगीकरण में सहायता मिलेगी, यह बात वह अच्छी तरह से जानते थे. भारतेन्दु को विश्वास था कि जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेषित होकर स्वाधीन हुआ वैसे ही भारत भी स्वाधीनता लाभ कर सकता है. भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, जो उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है. इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण गद्य साहित्य की रचना की.  देश सेवा और साहित्य सेवा के साथ-साथ वह समाज सेवा भी करते रहे. दीन-दुखियों, साहित्यिकों तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे. धन के अत्यधिक व्यय से भारतेंदु ऋणी बन गए और अल्पायु में ही उनका देहांत हो गया.

आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास


आधुनिक हिंदी गद्य का इतिहास-

हिंदी गद्य के आरंभ के संबंध में विद्वान एकमत नहीं है। कुछ 10वीं शताब्दी मांनते हैं कुछ 11 वीं शताब्दी,कुछ 13 शताब्दी। राजस्थानी एवं ब्रज भाषा में हमें गद्य के प्राचीनतम प्रयोग मिलते हैं। राजस्थानी गद्य की समय सीमा 11वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी तथा ब्रज गद्य की सीमा 14वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि 10वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी के मध्य ही हिंदी गद्य की शुरुआत हुई थी।खड़ी बोली के प्रथम दर्शन अकबर के दरबारी कवि गंग द्वारा रचित चंद छंद बरनन की महिमा में होते हैं अध्ययन की दृष्टि से हिंदी गद्य साहित्य के विकास को इस प्रकार विभाजित किया जा सकता है। हिन्दी गद्य के विकास को विभिन्न सोपानों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) पूर्व भारतेंदु युग(प्राचीन युग): 13 वी सदी से 1868 ईस्वी तक.

(2) भारतेंदु युग(नवजागरण काल): 1868ईस्वी से 1900 ईस्वी तक।

(3) द्विवेदी युग: 1900 ईस्वी से 1922 ईस्वी तक.

(4) शुक्ल युग(छायावादी युग): 1922 ईस्वी से 1938 ईस्वी तक

(5) शुक्लोत्तर युग(छायावादोत्तर युग): 1938 ईस्वी से अब तक।

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19वीं सदी से पहले का हिन्दी गद्य-

हिन्दी गद्य के उद्भव को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान हिन्दी गद्य की शुरूआत 19वीं सदी से ही मानते हैं जबकि कुछ अन्य हिन्दी गद्य की परम्परा को 11वीं-12वीं सदी तक ले जाते हैं। आधुनिक काल से पूर्व हिन्दी गद्य की निम्न परम्पराएं मिलती हैं-

(1) राजस्थानी में हिन्दी गद्य:-राजस्थानी गद्य के प्राचीनतम रुप 10 वीं शताब्दी के दान पत्रों, पट्टे-परवानों, टीकाओं व अनुवाद ग्रंथों में देखने को मिलता है.आराधना, अतियार, बाल शिक्षा, तत्व विचार, धनपाल कथा आदि रचनाओं में राजस्थानी गद्य के प्राचीनतम प्रयोग दृष्टिगत होते हैं.

(2) मैथिली में हिन्दी गद्य:-कालक्रम की दृष्टि से राजस्थानी के बाद मैथिली में हिन्दी गद्य के प्रयोग दृष्टिगत होते हैं. मैथिली में प्राचीन हिन्दी गद्य ग्रन्थ ज्योतिरिश्वर की रचना वर्ण रत्नाकर है. इसका रचना काल 1324 ईस्वी सन् है.

(3) ब्रजभाषा में हिन्दी गद्य:- ब्रजभाषा में हिन्दी गद्य की प्राचीनतम रचनाएँ 1513 ईस्वी से पूर्व की प्रतीत नही होती. इनमें गोस्वामी विट्ठलनाथ कृत "श्रृंगार रस मंडन", "यमुनाष्टाक", " नवरत्न सटीक ", चतुर्भुज दास कृत षड्ऋतु वार्ता ", गोकुल नाथ कृत " चौरासी वैष्णवन की वार्ता ", " दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता " गोस्वामी हरिराम कृत "कृष्णावतार स्वरूप निर्णय", "सातों स्वरूपों की भावना","द्वादश निकुंज की भावना", नाभादास कृत " अष्टयाम ", बैकुंठ मणि शुक्ल कृत "अगहन माहात्म्य", "वैशाख माहात्म्य" तथा लल्लू लाल कृत "माधव विलास" विशेष रूप से उल्लेखनीय है.

(4) दक्खिनी में हिन्दी गद्य:- गेसुदराज कृत"मेराजुलआशिकीन" तथा मूल्ला वजही कृत "सबरस" में प्राचीन दक्खिनी हिन्दी गद्य रुप को देखा जा सकता है.

भारतेंदु पूर्व युग-

खड़ीबोली हिन्दी में गद्य का विकास 19वीं शताब्दी के आसपास हुआ। इस विकास में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस कॉलेज के दो विद्वानों लल्लूलाल जी तथा सदल मिश्र ने गिलक्राइस्ट के निर्देशन में क्रमशः प्रेमसागर तथा नासिकेतोपाख्यान नामक पुस्तकें तैयार कीं। इसी समय सदासुखलाल ने सुखसागर तथा मुंशी इंशा अल्ला खां ने 'रानी केतकी की कहानी' की रचना की इन सभी ग्रंथों की भाषा में उस समय प्रयोग में आनेवाली खडी बोली को स्थान मिला। ये सभी कृतियाँ सन् 1803 में रची गयी थीं।

आधुनिक खडी बोली के गद्य के विकास में विभिन्न धर्मों की परिचयात्मक पुस्तकों का खूब सहयोग रहा जिसमें ईसाई धर्म का भी योगदान रहा। बंगाल के राजा राम मोहन राय ने 1815 ईस्वी में वेदांत सूत्र का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवाया। इसके बाद उन्होंने 1829 में बंगदूत नामक पत्र हिन्दी में निकाला। इसके पहले ही 1826 में कानपुर के पं जुगल किशोर ने हिन्दी का पहला समाचार पत्र उदंतमार्तंड कलकत्ता से निकाला. इसी समय गुजराती भाषी आर्य समाज संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश हिन्दी में लिखा।

भारतेंदु युग-

भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) को हिन्दी-साहित्य के आधुनिक युग का प्रतिनिधि माना जाता है। उन्होंने कविवचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन और हरिश्चंद्र पत्रिका निकाली. साथ ही अनेक नाटकों की रचना की. उनके प्रसिध्द नाटक हैं- चंद्रावली, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी. ये नाटक रंगमंच पर भी बहुत लोकप्रिय हुए. इस काल में निबंध नाटक उपन्यास तथा कहानियों की रचना हुई. इस काल के लेखकों में बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, राधा चरण गोस्वामी, उपाध्याय बदरीनाथ चौधरी प्रेमघन, लाला श्रीनिवास दास, बाबू देवकी नंदन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी आदि उल्लेखनीय हैं। इनमें से अधिकांश लेखक होने के साथ साथ पत्रकार भी थे।

श्रीनिवासदास के उपन्यास परीक्षागुरू को हिन्दी का पहला उपन्यास कहा जाता है। कुछ विद्वान श्रद्धाराम फुल्लौरी के उपन्यास भाग्यवती को हिन्दी का पहला उपन्यास मानते हैं। बाबू देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता तथा चंद्रकांता संतति आदि इस युग के प्रमुख उपन्यास हैं। ये उपन्यास इतने लोकप्रिय हुए कि इनको पढने के लिये बहुत से अहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी. इस युग की कहानियों में शिवप्रसाद सितारे हिन्द की राजा भोज का सपना महत्त्वपूर्ण है।

बलदेव अग्रहरि की सन १८८७ मे प्रकाशित नाट्य पुस्तक 'सुलोचना सती' में सुलोचना की कथा के साथ आधुनिक कथा को भी स्थान दिया गया हैं, जिसमे संपादको और देश सुधारको पर व्यंग्य किया गया हैं। कई नाटको में मुख्य कथानक ही यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करते हैं। बलदेव अग्रहरि की सुलोचना सती में भिन्नतुकांत छंद का आग्रह भी दिखाई देता हैं।[1][2]

द्विवेदी युग-

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस युग का नाम द्विवेदी युग रखा गया। सन 1903 ईस्वी में द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका के संपादन का भार संभाला. उन्होंने खड़ी बोली गद्य के स्वरूप को स्थिर किया और पत्रिका के माध्यम से रचनाकारों के एक बडे समुदाय को खड़ी बोली में लिखने को प्रेरित किया। इस काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ।

इस युग के निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, श्याम सुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं। किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।

हिंदी कहानी का वास्तविक विकास द्विवेदी युग से ही शुरू हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की इंदुमती कहानी को कुछ विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में बंग महिला की दुलाई वाली, शुक्ल जी की ग्यारह वर्ष का समय, प्रसाद जी की ग्राम और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की उसने कहा था महत्त्वपूर्ण हैं। समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं। हरिऔध, शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा कुछ नाटक लिखे गए। इस युग ने कई सम्पादकों जन्म दिया। पन्डित ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने आधा दर्जन से अधिक पत्रों का सम्पादन किया। शिव पूजन सहाय उनके योग्य शिष्यों में शुमार हुए। इस युग में हिन्दी आलोचना को एक दिशा मिली। इस युग ने हिन्दी के विकास की नींव रखी। यह कई मायनों मे नई मान्यताओं की स्थापना करने वाला युग रहा।

शुक्ल युग-

गद्य के विकास में इस युग का विशेष महत्त्व है। पं रामचंद्र शुक्ल (1884-1941) ने निबंध, हिन्दी साहित्य के इतिहास और समालोचना के क्षेत्र में गंभीर लेखन किया। उन्होंने मनोविकारों पर हिंदी में पहली बार निबंध लेखन किया। साहित्य समीक्षा से संबंधित निबंधों की भी रचना की. उनके निबंधों में भाव और विचार अर्थात् बुद्धि और हृदय दोनों का समन्वय है। हिंदी शब्दसागर की भूमिका के रूप में लिखा गया उनका इतिहास आज भी अपनी सार्थकता बनाए हुए है। जायसी, तुलसीदास और सूरदास पर लिखी गयी उनकी आलोचनाओं ने भावी आलोचकों का मार्गदर्शन किया। इस काल के अन्य निबंधकारों में जैनेन्द्र कुमार जैन, सियारामशरण गुप्त, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और जयशंकर प्रसाद आदि उल्लेखनीय हैं।

कथा साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद ने क्रांति ही कर डाली। सेवा सदन, रंगभूमि, निर्मला, गबन एवं गोदान आदि उपन्यासों की रचना की। उनकी तीन सौ से अधिक कहानियां मानसरोवर के आठ भागों में तथा गुप्तधन के दो भागों में संग्रहित हैं। पूस की रात, कफन, शतरंज के खिलाडी, पंच परमेश्वर, नमक का दरोगा तथा ईदगाह आदि उनकी कहानियां खूब लोकप्रिय हुई। इसकाल के अन्य कथाकारों में विश्वंभर शर्मा कौशिक, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, उपेन्द्रनाथ अश्क, जयशंकर प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

नाटक के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद का विशेष स्थान है। इनके चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी जैसे ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास और कल्पना तथा भारतीय और पाश्चात्य नाट्य पद्धतियों का समन्वय हुआ है। लक्ष्मीनारायण मिश्र, हरिकृष्ण प्रेमी, जगदीशचंद्र माथुर आदि इस काल के उल्लेखनीय नाटककार हैं।

शुक्लोत्तर युग-

इस काल में गद्य का चहुंमुखी विकास हुआ। पं हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैनेंद्र कुमार, अज्ञेय, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ॰ नगेंद्र, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा डॉ॰ रामविलास शर्मा आदि ने विचारात्मक निबंधों की रचना की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेर नाथ राय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विवेकी राय, ने ललित निबंधों की रचना की है। हरिशंकर परसांई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवींन्द्रनाथ त्यागी, तथा के पी सक्सेना, के व्यंग्य आज के जीवन की विद्रूपताओं के उद्धाटन में सफल हुए हैं। जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, रांगेय राघव और भगवती चरण वर्मा ने उल्लेखनीय उपन्यासों की रचना की. नागार्जुन, फणीश्वर नाथ रेणु, अमृतराय, तथा राही मासूम रजा ने लोकप्रिय आंचलिक उपन्यास लिखे हैं। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, भैरव प्रसाद गुप्त, आदि ने आधुनिक भाव बोध वाले अनेक उपन्यासों और कहानियों की रचना की है। अमरकांत, निर्मल वर्मा तथा ज्ञानरंजन आदि भी नए कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं।

प्रसादोत्तर नाटकों के क्षेत्र में लक्ष्मीनारायण लाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, मोहन राकेश तथा कमलेश्वर के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा बनारसीदास चतुर्वेदी आदि ने संस्मरण रेखाचित्र व जीवनी आदि की रचना की है। शुक्ल जी के बाद पं हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंद दुलारे वाजपेयी, नगेन्द्र, रामविलास शर्मा तथा नामवर सिंह ने हिंदी समालोचना को समृद्ध किया। आज गद्य की अनेक नयी विधाओं जैसे यात्रा वृत्तांत, रिपोर्ताज, रेडियो रूपक, आलेख आदि में विपुल साहित्य की रचना हो रही है और गद्य की विधाएं एक दूसरे से मिल रही हैं।

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