रविवार, 15 सितंबर 2019

हिंदी साहित्य का आदिकाल


हिंदी साहित्य का आदिकाल-
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          हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के मध्य तक के काल को आदिकाल कहा जाता है। इस युग को "आदिकाल" नाम डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी से मिला है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे 'वीरगाथा काल' तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे 'वीरकाल' नाम दिया है। इस काल की समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम "प्रारंभिक काल" किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने "बीजवपन काल"। जार्ज  ग्रियर्सन और डॉक्टर रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियों के आधार पर इसको "चारण-काल" कहा है और राहुल संकृत्यायन ने सिद्ध-सामन्त काल।

इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है :

1- सिद्ध-साहित्य तथा नाथ-साहित्य,

2- जैन साहित्य,

3- चारणी-साहित्य,

4- प्रकीर्णक साहित्य।

1- सिद्ध और नाथ साहित्य-
           यह साहित्य उस समय लिखा गया जब हिंदी अपभ्रंश से आधुनिक हिंदी की ओर विकसित हो रही थी। बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी संख्या चौरासी मानी गई है। सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र) प्रथम सिद्ध माने गए हैं। इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि सिद्ध साहित्य के प्रमुख कवि हैं। ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जन भाषा में करते थे। उनकी सहजिया प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में रखकर निर्धारित हुई थी। इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।
          राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा पहले बौद्धसिद्ध हैं जिन्होंने चर्यागीतों और दोहाकोश की रचना की। उन्होंने सरहपा का समय 8 वीं शताब्दी ईस्वी ठहराया है। इन्हें सहोरुपाद, सरोज वज्र, राहुल वज्र भी कहा जाता था। राहुल सांकृत्यायन ने सरह का समय (770-815 ई.) निर्धारित किया है। उन्होंने अपने संपादकत्व में लिखे ग्रंथ ‘दोहाकोश’ में यह भी बताया है कि सरहपा राजा धर्मपाल के समकालीन थे। राजा धर्मपाल का शासन काल 764 -809 ई. तक था। कुछ अन्य विद्वानों ने भी सरह का समय आठवीं शताब्दी ही माना है।
          धर्म के बाह्याडंबर का विरोध तो सभी सिद्धों ने किया पर सरहपा के स्वरों में जो आक्रामकता, उग्रता और तीखापन था वह बाद में चलकर कबीर में सुनाई पड़ता है। आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है। सामाजिक और धार्मिक जीवन की कृत्रिमता, घुटन और रुढिग्रस्तता के विरूद्ध कितना तीखा व्यंग्य है। जिस समय और पंडित लोग शास्त्रज्ञान के प्रकाश में परमतत्व का ज्ञानदान कर रहे थे, उस समय उसका मखौल उड़ाते हुए देहस्थ बुद्ध को पहचानने पर जोर दे रहे थे। शास्त्रज्ञ एक विशेष वर्ग तक सीमित था जिससे वास्तविक नहीं हो सकता था। देहस्थ बुद्ध की पहचान सहज मार्ग से ही हो सकती थी -
          पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ ।
          देहहि बुद्ध वसन्त ण जाणअ ।।
          इसकी प्रतिध्वनि कबीर में सुनाई पड़ती है – पोथि पढि - पढि  जग मुआ पंडित भया न कोय । शास्त्रवाद से हटकर लोकवाद की ओर जाने की प्रक्रिया अपभ्रंश काल से ही शुरू हो गई थी ।
          हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का आरंभिक चरण सिद्ध–नाथों का ही है। इतिहास में चौरासी सिद्ध और नौ नाथों की चर्चा आती है, जिनमें अधिकांश निम्न जाति के थे। ये वज्रयानी सिद्ध अपने वामाचारों के लिए बदनाम हैं किन्तु यदि उनके आचार इतने ही अगर्हित थे, तो वे विश्वप्रसिद्व नालंदा और विक्रमशिला के शिष्य और आचार्य कैसे हो गये? सच तो यह है कि सिद्ध–नाथों की इस परम्परा ने दलित और स्त्रियों के लिए जितना कुछ किया, उतना किसी ने नहीं। धार्मिक कर्मकांड, अंधविश्वास और रुढियों का विरोध करके इन सिद्ध–संतों ने मानवीय समानता की जो उच्च भूमि तैयार की, उसी पर बाद में कबीर आदि संतों के समानतावादी दर्शन खड़े हुए। इसी परम्परा ने स्त्रियों ओए दलितों की मुक्ति के दरवाजे खोले। तमाम विद्वानों ने सिद्धों का सम्बन्ध शूद्र आदि दलित जातियों से बताया है, किन्तु सिद्ध चाहे किसी भी जाति के रहे हों, उनके कुक्कुरिप्पा, चमरिप्पा, कन्हाप्पा, लुइप्पा आदि तथाकथित सभ्य समाज को चिढाने के लिए काफी हैं।
          साहित्य के क्षेत्र में सिद्धों ने चर्यापद और दोहे जैसे छन्द दिये, जिनमें वैदिक आचारों के खंडन – मंडन और ब्राह्मणवादी विचारधारा का विरोध मिलता है। दोहकोशों के माध्यम से समाज में प्रचलित रुढियों, बाह्य विधानों और ब्राह्मणवादी आडम्बरों का खंडन किया है तथा चर्यापदों के माध्यम से जनमानस को प्रबोधित करते हुए अपने उपदेश दिए हैं। यहाँ सरहपा के कुछ पदों के उदाहरण दिए गये हैं ; पानी और कुश लेकर संकल्प करने–कराने वाले, रात–दिन अग्निहोत्र में निमग्न रहने वाले, घड़ी–घंटा बजाकर आरती उतारने वाले, मुंड–मुंडाकर संन्यासी बनने वाले, नग्न रहने वाले, केशों को लुंचित करने वाले, झूठे साधकों की लानत–मलामत करने वाले में वे समूचे बौद्ध साधकों के अद्वितीय थे। इस संदर्भ में लिखा है –
‘जइ रागग्गा बिअ होइ मुत्ति ता सगुणह णिअम्बइ ।
लोमुपाटणें अत्थि सिद्वि ता जुबइ णिअम्बइ  ।।
पिच्छी गहणे दिट्ठ मोक्ख तो मोरह चमरह ।
उच्छे भोअणे होइ जाण ता करिह तुरंगह ।।
          एक दूसरे स्थान पर ब्राह्मणों की भत्सर्ना करते हुए वे लिखते हैं – ‘यह कथन कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए थे, कुछ चतुर और धूर्त लोगों द्वारा गढ़ी गयी कपोल कल्पना है। जिस समय सिद्धों की वाणियाँ उत्तर–पूर्वी भारत को खंडन–मंडन द्वारा ब्राह्मणवादी आचारों का निषेध कर रही थीं, लगभग उसी समय उत्तर–पश्चिम भारत में नाथों का उदय हो रहा था। नाथपंथ के प्रवर्तक बाबा गोरखनाथ को अधिकांश विद्वान ब्राह्मण मानते हैं, किन्तु ब्राह्मण होने पर भी ब्राह्मणवादी पाखंडो का विरोध करके उन्होंने भक्ति का एक नया मार्ग सुझाया, जो सबके लिए ग्राह्य था। इसलिए डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं – भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्तिमार्ग ही था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे।
           इस प्रकार जाति–प्रथा का विरोध, अन्धविश्वाश और कर्मकांडों का खंडन, मानवीय समानता, परम सत्ता में विश्वास आदि नाथपंथियों की देन है। इसके अतिरिक्त इस काल में प्रचुर संख्या में जैन और बौद्ध साहित्य मिलते हैं, जिनकी शिक्षाएं दलित चेतना के करीब है। सरहपाद आज भी उतने ही सार्थक हैं, जितने कि वे अपने युग में थे। यह बात इसी आधार पर कही जा सकती है कि उस युग में और आज के युग में बहुत सी बातें समान है। बहुत से सामाजिक प्रश्न जो उस युग में चर्चित थे, वे आज भी चर्चित हैं। वर्ण–व्यवस्था, अन्ध-विश्वास, धार्मिक पाखण्ड आदि पर उन्होंने पूरी चोट की है।
            वर्णव्यवस्था के बारे में सरहपाद बहुत स्पष्ट थे । वे स्वयं ब्राह्मणकुल में उत्पन्न थे, फिर भी जातिगत उच्चता के हामीं नहीं थे। यही कारण है कि अपनी जाति पर उन्होंने वैसा ही प्रहार किया, जैसा कि कोई ब्राह्मणेतर कर सकता है। इस अर्थ में सरहपाद अपने युग के तमाम विद्वानों से आगे थे। यद्धपि सरहपाद पहले व्यक्ति नहीं थे, जिन्होंने ऐसा कदम उठाया हो। बौद्ध व जैन साहित्य के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि बुद्ध व महावीर के युग में और बाद के युगों में भी ऐसे अनेक विद्वान व साधक थे।
           अंधविश्वास पर सरहपाद ने वैसा ही प्रहार किया है जैसा कि स्वयं भगवान बुद्ध ने किया था। धार्मिक पाखण्ड के सरहपाद वैसे ही विरोधी थे जैसा कि अन्य तर्क–विपरीत बातों के। उनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है कि उनके युग में यह दोष और भी नुमायाँ था। यही कारण है कि सरहपाद ने उस पर पूरी शक्ति से प्रहार किया है। इस प्रकार सरहपाद के समूचे साहित्य के अवलोकन से स्पष्ठ होता है कि वे बहुत बड़े विद्वान भी थे और साधक भी। अपने युग की मान्यताओं को बदलने के लिए उन्होंने लेखनी का प्रयोग किया। इस अर्थ में सरहपाद पूरे क्रांतिकारी थे।
           सरहपा ने वैदिक या ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध नागार्जुन के शून्यवाद घोर- असंग और बसुबंधू के आलय–विज्ञान को मान्यता दी थी और उसके आधार पर सरहपा ने ब्रह्म, ईश्वर, आत्मा और जगत की सत्यता का खंडन किया था। यह दार्शनिक संघर्ष यह सिद्ध करता है कि आस्तिक विचारधारा के विरुद्ध सिद्धों ने नास्तिक बौद्ध दार्शनिकों नागार्जुन-असंग, दिड्.नाग और धर्मकीर्ति आदि का समर्थन किया था अर्थात् बौद्ध सिद्ध साहित्य में वैदिक ब्राह्मणवादी विचारधारा के समानांतर स्वतंत्र विचार प्रवाह की स्थापना हुई थी जो सामाजिक दृष्टि से भेदभाव और विषमता के विपरीत सहज मानवीय व्यवस्था की पक्षधर थी।
            यदि तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से देखा जाए तो सिद्ध साहित्य और साधना प्रचलित वैदिक या ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरोध में जाती हैं। सिद्ध साधक वर्ण–जाति–कुलगत भेद और तज्जन्य अलगाव के विरुद्ध समता, एकता, करुणा और सामंजस्य के पक्षधर थे। दार्शनिक दृष्टि से भी उन्होंने वैदिक परम्परा से विद्रोह किया था और ब्रह्म, आत्मा और जगत के विषय में नास्तिक दर्शन या स्वतंत्र विचार-प्रवाह प्रस्तुत किया था।
            यह स्थिति सिद्ध परम्परा के योग और साधना को विशेष स्थान देती है। अतएव जो वामपंथी समाज-सुधारक हैं वे सिद्धों के साधना काल को उसके रहस्यवाद के कारण नहीं मानते तथापि उनके माध्यम से जो भारतीय समाज व्यवस्था के वैषम्य का विरोध हुआ है और उसमें दमित नारी, शुद्र या दलित समुदायों का जो पक्ष समर्थन है, उसे न्यायपूर्ण माना गया है या माना जाना चाहिए।
            सरह स्वयं सरल जीवन बिताते थे क्योंकि उन्हें आडम्बर पसंद न था। यह बात सत्य थी कि वे इहलोकवादी, भौतिकवादी थे परन्तु यह बात भी सत्य है कि सामाजिक से सरहपा अति दुखी थे, इसलिए तो सरहपा ने अपने से बाहर मोक्ष को ढूँढने वाले तथा ज्ञान-विडंबित वेश वाले णपकी मोक्ष की खूब खिल्ली उड़ाई है। डॉ. नामवर सिंह इस सम्बन्ध में कहते हैं – सरह की इस इच्छा को अभिधा में नहीं लेना चाहिए, इसे तो सामाजिक आडम्बर की तीव्र प्रतिक्रिया समझना चाहिए। साथ ही इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सरह के दिल में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष था।
             वस्तुतः सरह उस युग के निराला थे, जिन्होंने खुलकर सिर्फ विचारों की दुनियाँ में ही परिवर्तन नहीं किया, बल्कि सामाजिक पाखंड व रुढ़िवादिता के विरुद्ध भी जबरदस्त संघर्ष किया, इसलिए तो दोहाकोश गीति के कुछ दोहों में अपने समय के धार्मिक सम्प्रदायों और उनके विचारों का खंडन करते हुए उन्होंने कहा है – ये शिव के भक्त रंडी–मुंडी के वेश धारण कर भीख माँगने के उद्देश्य से इधर-उधर दिखाई पड़ते हैं। इस तरह वे समाज को, दुनिया के मानवों को उत्कृष्ठ रूप में देखना चाहते थे। यही कारण था कि वेद-शास्त्र की, वे निंदा करते हैं। उन्होंने निंदा करने का कारण नहीं बताया है, परन्तु यह संभव है कि वे तपोमय जीवन का आदेश देने वाले वेद तथा शास्त्र के दर्शन को सहज जीवनयापन में बाधा समझते हो।

सिद्धों की संख्या 84 है। इन्होंने बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा के प्रचार-प्रसार के लिए ग्रंथ लिखे।

प्रमुख सिद्ध एवं उनकी रचनाएँ

1. सरहपा (769 ई.) : दोहाकोश, उपदेश गीति, द्वादशोपदेश, डाकिनीगुहयावज्रगीति, चर्यागीति, चित्तकोष अजव्रज गीति ।इनके कुल 32 ग्रंथ हैं।
2. शबरपा (780 ई.) : चर्यापद, सितकुरु, वज्रयोगिनी, आराधन-विधि ।
3. भूसुकपा (नवीं सदी)
4. लुइपा  (830 ई., शबरपा के शिष्य) : अभिसमयविभगं, तत्वस्वभाव दोहाकोष, बुद्धोदय, भगवदअमभिसय, लुइपा-गीतिका ।
5.  विरूपा  (9वीं सदी)
6.  डोभ्भिपा (840ई.) : योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश, डोंबि गीतिका, नाड़ीविंदुद्वारियोगचर्या । इनके कुल 21 ग्रंथ हैं ।
7.  दारिकपा (9वीं सदी): तथतादृष्टि, सप्तमसिद्धांत, ओड्डियान विनिर्गत-महागयह्यातत्वोपदेश
8.      गंडरिपा (9वीं सदी)
9.      कुकुरिपा (9वीं सदी)
10. कमरिपा (9वीं सदी)
11. कण्हपा (820 ई., जालन्धरपा के शिष्य) : योगरत्नमाला, असबधदृष्टि, वज्रगीति, दोहाकोष, बसंत तिलक, कान्हपाद गीतिका ।
12. गोरक्षपा (9वीं सदी)
13. तिलोपा (9वीं सदी)
14. शांतिपा : सुख दुख द्वयपरित्याग ।
15. तंतिपा : चतुर्योगभावना ।
16. विरूपा :अमृतसिद्ध, विरुपगीतिका, मार्गफलान्विताव वादक ।
17. भुसुकपा : बोधिचर्यावतार, शिक्षा-समुच्चय ।
18. वीणापा : वज्रडाकिनी निष्पन्नक्रम ।
19. कुकुरिपा :तत्वसुखभावनासारियोगभवनोपदेश, स्रवपरिच्छेदन ।
20. मीनपा : बाहयतरंबोधिचितबंधोपदेश ।
21. महीपा : वायुतत्व, दोहा गीतिका ।
22. कंबलपाद : असबध दृष्टि, कंबलगीतिका ।
23. नारोपा : नाडपंडित गीतिका, वज्रगीति, ।
24. गोरीपा : गोरखवाणी, पद-शिष्य दर्शन
25. आदिनाथ : विमुक्त मर्जरीगीत, हुंकारचित बिंदु भावना क्रम ।
26. तिलोपा : करुणा भावनाधिष्ठान, महा भद्रोपदेश ।

नाथ-साहित्यः-

सिद्धों की योग-साधना नारी भोग पर आधारित थी । इसकी प्रतिक्रिया में नाथ-धारा का आविर्भाव माना जाता है । यह हठयोग पर आधारित मतहै । आगे चलकर यह साधना रहस्यवाद के रूप में प्रतिफलित हुई और नाथपंथ से ही भक्तिकाल के संतमत का विकास हुआ ।

आदिकाल की नाथ धारा के कवि और उनकी रचनाएँ

इस धारा के प्रवर्त्तक गोरखनाथ हैं । नाथों की संख्या नौ होने के कारण ये नवनाथ कहलाए। इन नवनाथों की रचनाएँ निम्नलिखित हैं :-

1.      गोरखनाथ : पंचमासा, आत्मबोध, विराटपुराण, नरवैबोध, ज्ञानतिलक, सप्तवार, गोरखगणेश संवाद, सबदी, योगेश्वरी, साखी, गोरखसार, गोरखवाणी, पद शिष्या दर्शन (इनके 14 काव्यग्रंथ मिलते हैं ) । डॉ पीताम्बर बड़थ्वाल ने गोरखबानीनाम से इनकी रचनाओं का एक संकलन संपादित किया है ।
2.      मत्स्येन्द्र या मच्छन्द्रनाथ : कौलज्ञान निर्णय, कुलानंदज्ञान-कारिका, अकुल-वीरतंत्र।
3.      जालंधर नाथ : विमुक्तमंजरी गीत, हुंकारचित बिंदु भावना क्रम ।
4.      चर्पटनाथ : चतुर्भवाभिवासन
5.      चौरंगीनाथ : प्राण संकली, वायुतत्वभावनोपदेश
6.      गोपीचंद : सबदी
7.      भर्तृनाथ (भरथरीनाथ) : वैराग्य शतक
8.      ज्वालेन्द्रनाथ : अप्राप्य
9.     गाहिणी नाथ : अप्राप्य


2- जैन साहित्य-
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            आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रन्थ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रमाणिक रूप में मिलते हैं। जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य, रास काव्य आदि विविध प्रकार के ग्रंथ रचे। स्वयंभू , पुष्प दंत, आचार्य हेेमचंद्रजी, सोमप्रभ सूरीजीआदि मुख्य जैन कवि हैं। इन्होंने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुसार दिखाई।
            अपभ्रंश की जैन-साहित्य परंपरा हिंदी में भी विकसित हुई है। बड़े-बड़े प्रबंधकाव्यों के उपरांत लघु खंड-काव्य तथा मुक्तक रचनाएं भी जैन-साहित्य के अंतर्गत आती हैं। स्वयंभू का पउम-चरिउ वास्तव में राम-कथा ही है। स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल आदि उस समय के प्रख्यात कवि हैं। गुजरात के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र भी लगभग इसी समय के हैं। जैनों का संबंध राजस्थान तथा गुजरात से विशेष रहा है, इसीलिए अनेक जैन कवियों की भाषा प्राचीन राजस्थानी रही है, जिससे अर्वाचीन राजस्थानी एवं गुजराती का विकास हुआ है। सूरियों के लिखे राम-ग्रंथ भी इसी भाषा में उपलब्ध हैं।

             आदिकालीन जैन धारा के कवि और उनकी रचनाएँ :

1. स्वयम्भू (8वीं सदी) : 1.पउम चरिउ (रामकाव्य), 2. रिट्ठणेमि चरिउ, 3.पचाम चरिउ, 4. स्वयम्भू छंद। पउम चरिउ (रामकाव्य) के कारण स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा जाता है।
2.  पुष्पदंत (10वीं सदी) : महापुराण, णायकुमार चरिउ, जसहर चरिउ, कोश ग्रंथ। महापुराण में इन्होंने कृष्णलीला का वर्णन किया है, इसलिए अपभ्रंश का व्यास कहा जाता है।
3. धनपाल  (10वीं सदी) : भविस्यत्तकहा (एक बनिए की कहानी)
4. देवसेन : श्रावकाचार (933 ई., डॉ. नगेन्द्र के अनुसार हिन्दी का पहला काव्यग्रंथ, सावधम्म दोहा), लघुनयचक्र, दर्शनसार
5. वीर : जम्बूसामिचरिउ (11वीं शती)
6.  शालिभद्र सूरि : भरतेश्वर बाहुबलीरास (1184 ई., मुनि जिन विजय के अनुसार जैन साहित्य की रास परम्परा का प्रथम ग्रंथ)
7.  सोमप्रभ सूरि : कुमारपाल प्रतिबोध (1195 ई., चम्पूकाव्य)
8.  आसगु : चन्दनबालारास (1200 ई., खंडकाव्य, करुण रस की रचना)
9.   जिनधर्म सूरि : स्थूलीभद्ररास (1209 ई.)
10. जिनदत्त सूरि : उपदेश रसायन रास
11.  जिन पदम सूरि : धूमि भद्दफाग (1243 ई. के लगभग)
12.  विनयचन्द्र सूरि : नेमिनाथ चतुष्पदिका  ((1243 ई. के लगभग)
13. राजशेखर सूरि : नेमिनाथ फागु (12वीं-13वीं शती)
14. जिनधर्म सूरि : स्थूलीभद्ररास (1309 ई.)
15. सुमति गणि : नेमिनाथरास (1213 ई., नेमिनाथ-चरित)
16. विजय सेन सूरि : रेवन्तगिरिरास (1231 ई., नेमिनाथ की प्रतिमा और रेवन्तगिरि तीर्थ का वर्णन)
17. प्रज्ञातिलक : कचछूलिरास  (1306 ई.)
18. हेमचंद्र सूरि (1085 ई.-1172 ई.)  : कुमारपाल चरित, हेमचंद्रशब्दानुशासन, देशी नाममाला, छन्दानुशासन, योगशास्त्र
19.  मुनि राम सिंह  (11वीं शती) : पाहुड़ दोहा
20.  जोइन्दु  (6ठी शती) : परमात्म प्रकाश (मुक्तक काव्य), योगसार
21.  जिन पदम सूरि : धूमि भद्दफाग (1243 ई.)
22.  विनयचन्द्र सूरि : नेमिनाथ चतुष्पादिका
23.  राजशेखर सूरि : नेमिनाथ फागु (13वीं-13वीं सदी)
24.  जैनाचार्य मेरुतुंग : प्रबंध चिंतामणि (1304 ई.)
25.  धर्म सूरि : जम्बू स्वामी रास, स्थूलिभद्र रास (1200 के बाद)
26.  देवसेनमणि : सुलोचना चरिउ
27.  मुनि कनकामर : करकंड चरिउ
28.  धवल : हरिवंश पुराण
29.  वरदत्त : बैरसामि चरिउ
30.  हरिभद्र सूरी : णाभिणाह चरिउ
31.  धाहिल : पउमसिरी चरिउ
32.  लक्खन : जिवदत्त चरिउ
33.  जल्ह कवि : बुद्धि रासो
34.  माधवदास चारण : राम रासो
35.  देल्हण : गद्य सुकुमाल रासो
36.  श्रीधर : रणमल छंद, पारीछत रायसा
37.  रोडा कवि : राउलवेल (10वीं शती)
38.  योगसार : सानयधम्म दोहा
39.  श्यधू : धन कुमार चरित

3- चारणी-साहित्य-
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            इसके अंतर्गत चारण के उपरांत ब्रह्मभट्ट और अन्य बंदीजन कवि भी आते हैं। सौराष्ट्र, गुजरात और पश्चिमी राजस्थान में चारणों का, तथा ब्रज-प्रदेश, दिल्ली तथा पूर्वी राजस्थान में भट्टों का प्राधान्य रहा था। चारणों की भाषा साधारणतः राजस्थानी रही है और भट्टों की ब्रज। इन भाषाओं को डिंगलऔर पिंगल नाम भी मिले हैं। ये कवि प्रायः राजाओं के दरबारों में रहकर उनकी प्रशस्ति किया करते थे। अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा करते थे। श्रृंगारऔर वीर उनके मुख्य रस थे। इस समय की प्रख्यात रचनाओं में चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो, दलपति कृत खुमाण-रासो, नरपति-नाल्ह कृत बीसलदेव रासो, जगनिक कृत आल्ह खंडआदि मुख्य हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पृथ्वीराज रासो है। इन सब ग्रंथों के बारे में आज यह सिद्ध हुआ है कि उनके कई अंश क्षेपक हैं।

4- प्रकीर्णक साहित्य-
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          खड़ी बोली के आदि-कवि अमीर खुसरो इसी समय हुए है। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। विद्यापति के मधुर पदों के कारण इन्हें 'अभिनव जयदेव' भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट में भी इनकी रचनाएं मिलती हैं। इनकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है। अब्दुल रहमान कृत 'संदेश रासक' भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं।

           आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशंसाएं, युद्धों का सुन्दर वर्णन, श्रृंगार-मिश्रित वीररस का आलेखन वगैरह इस साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस्लाम का भारत में प्रवेश हो चुका था। देशी रजवाड़े परस्पर कलह में व्यस्त थे। सब एक साथ मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग सबको हराकर मुसलमान यहीं स्थिर हो गए। दिल्ली की गद्दी उन्होंने प्राप्त कर ली और क्रमशः उनके राज्य का विस्तार बढ़ने लगा। तत्कालीन कविता पर इस स्थिति का प्रभाव देखा जा सकता है।

हिन्दी का सर्वप्रथम कवि-
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हिन्दी का प्रथम कवि कौन है, इस पर मतैक्य नहीं है। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार हिंदी का पहला कवि निम्नलिखित हैं-

रामकुमार वर्मा के अनुसार -- स्वयंभू (६९३ ई.)

राहुल सांकृत्यायन के अनुसार -- सरहपा (७६९ ई.)

शिवसिंह सेंगर के अनुसार -- पुष्पदन्त या पुण्ड (१०वीं शताब्दी)

चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' के अनुसार -- राजा मुंज (९९३ ई.)

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार -- राजा मुंज व भोज (९९३ ई.)

गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार -- शालिभद्र सूरि (११८४ ई.)

हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- अब्दुल रहमान (१३वीं शताब्दी)

बच्चन सिंह के अनुसार -- विद्यापति (१५वीं शताब्दी)
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आदिकाल का नामकरण-
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हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल का नामकरण विद्वानों ने इस प्रकार किया है-

1. डॉ॰ ग्रियर्सन - चारणकाल,
2. मिश्रबंधु - आरम्भिक काल
3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल   - वीरगाथा काल,
4. राहुल संकृत्यायन - सिद्ध सामंत युग,
5. महावीर प्रसाद द्विवेदी - बीजवपन काल,
6. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - वीरकाल,
7. हजारी प्रसाद द्विवेदी - आदिकाल,
8. रामकुमार वर्मा - चारण काल या संधि काल।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत -
           आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल रखा है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं- ...आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़-सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता-धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढाइयों का आरंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबंध परंपरा रासो के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है। इसके संदर्भ में वे तीन कारण बताते हैं-
            1.इस काल की प्रधान प्रवृत्ति वीरता की थी अर्थात् इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रधानता रही है।
            2.अन्य जो ग्रंथ प्राप्त होते हैं वे जैन धर्म से संबंध रखते हैं, इसलिए नाम मात्र हैं और
            3. इस काल के फुटकर दोहे प्राप्त होते हैं, जो साहित्यिक हैं तथा विभिन्न विषयों से संबंधित हैं, किन्तु उसके आधार पर भी इस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं होती है। शुक्ल जी वे इस काल की बारह रचनाओं का उल्लेख किया है-
           1. विजयपाल रासो (नल्लसिंह कृत-सं.1355),
           2. हम्मीर रासो (शारंगधर कृत-सं.1357),
           3. कीर्तिलता (विद्यापति-सं.1460),
           4. कीर्तिपताका (विद्यापति-सं.1460),
           5. खुमाण रासो (दलपतिविजय-सं.1180),
           6. बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह-सं.1212),
           7. पृथ्वीराज रासो (चंद बरदाई-सं.1225-1249),
           8. जयचंद्र प्रकाश (भट्ट केदार-सं. 1225),
           9. जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि-सं.1240),
          10. परमाल रासो (जगनिक कवि-सं.1230),
          11. खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो-सं.1350),
           12. विद्यापति की पदावली (विद्यापति-सं.1460)
           शुक्ल जी द्वारा किये गये वीरगाथाकाल नामकरण के संबंध में कई विद्वानों ने अपना विरोध व्यक्त किया है। इनमें श्री मोतीलाल मैनारिया, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि मुख्य हैं। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी और यह एक अर्ध-प्रामाणिक रचना है। यही नहीं शुक्ल ने जिन गंथों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है, उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई संबंध नहीं है। बीसलदेव रासो गीति रचना है। जयचंद्र प्रकाश तथा जयमयंक जस चंद्रिका -इन दोनों का वीरता से कोई संबंध नहीं है। ये ग्रंथ केवल सूचना मात्र हैं। अमीर खुसरो की पहेलियों का भी वीरत्व से कोई संबंध नहीं है। विजयपाल रासो का समय मिश्रबंधुओं ने सं.1355 माना है अतः इसका भी वीरता से कोई संबंध नहीं है। परमाल रासो पृथ्वीराज रासो की तरह अर्ध प्रामाणिक रचना है तथा इस ग्रंथ का मूल रूप प्राप्य नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका- इन दोनों ग्रंथों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की कीर्ति के गुणगान के लिए लिखे थे। उनका वीररस से कोई संबंध नहीं है। विद्यापति की पदावली का विषय राधा तथा अन्य गोपियों से कृष्ण की प्रेम-लीला है। इस प्रकार शुक्ल जी ने जिन आधार पर इस काल का नामकरण वीरगाथा काल किया है, वह योग्य नहीं है।

डॉ॰ ग्रियर्सन का मत -
            डॉ॰ ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को चारणकाल नाम दिया है। पर इस नाम के पक्ष में वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 643 ई. से मानी है किन्तु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएँ 1000 ई.स. तक मिलती ही नहीं हैं। इस लिए डॉ॰ग्रियर्सन द्वारा दिया गया नाम योग्य नहीं है।

मिश्रबंधुओं का मत -
            मिश्रबंधुओं ने ई.स. 643 से 1387 तक के काल को प्रारंभिक काल कहा है। यह एक सामान्य नाम है और इसमें किसी प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।

डॉ॰ रामकुमार वर्मा का मत -
            डॉ॰रामकुमार वर्मा- इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को चारणकाल नाम दिया है। इस नामकरण के बारे में उनका कहना है कि इस काल के सभी कवि चारण थे, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि सभी कवि राजाओं के दरबार-आश्रय में रहनेवाले, उनके यशोगान करनेवाले थे। उनके द्वारा रचा गया साहित्य चारणी कहलाता है। किन्तु विद्वानों का मानना है कि जिन रचनाओं का उल्लेख वर्मा जी ने किया है उनमें अनेक रचनाएँ संदिग्ध हैं। कुछ तो आधुनिक काल की भी हैं। इस कारण डॉ॰वर्मा द्वारा दिया गया चारणकाल नाम विद्वानों को मान्य नहीं है।

राहुल संकृत्यायन का मत -
            राहुल संकृत्यायन- उन्होंने 8वीं से 13 वीं शताब्दी तक के काल को सिद्ध-सांमत युग की रचनाएँ माना है। उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है- 1.सिद्धों की वाणी- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ-सिद्धों की तथा जैनमुनियों की उपदेशमुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करनेवाली रहस्यमूलक रचनाएँ आती हैं। 2.सामंतों की स्तृति- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित काव्य (रासो ग्रंथ) आते हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवं सामंतों की स्तृति के लिए युद्ध, विवाह आदि के प्रसंगों का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नवीन स्वर मुखरित हुआ है। राहुल जी का यह मत भी विद्वानों द्वारा मान्य नहीं है। क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करनेवाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। नाथपंथी तथा हठयोगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य-प्रवृत्तियों का इस नाम में समावेश नहीं होता है।hu

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का मत -
         आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी- उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल का नाम बीज-बपन काल रखा। उनका यह नाम योग्य नहीं है क्योंकि साहित्यिक प्रवृत्तियों की दृष्टि से यह काल आदिकाल नहीं है। यह काल तो पूर्ववर्ती परिनिष्ठित अपभ्रंश की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत -
              आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- इन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल को आदिकाल नाम दिया है। विद्वान भी इस नाम को अधिक उपयुक्त मानते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है- वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम, मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढि़यों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक वहीं है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढि़ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदिकाल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है, पर भाषा की दृष्टि से यह परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है।
           आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण-निरूपण के लिए निम्नलिखित पुस्तकें आधारभूत बतायी हैं-
           1.पृथ्वीराज रासो, 2.परमाल रासो, 3. विद्यापति की पदावली, 4.कीर्तिलता, 5.कीर्तिपताका, 6.संदेशरासक (अब्दुल रेहमान), 7.पउमचरिउ (स्वयंभू कृत रामायण), 8.भविषयत्कहा (धनपाल), 9.परमात्म-प्रकाश (जोइन्दु), 10.बौद्ध गान और दोहा (संपादक पं.हरप्रसाद शास्त्री), 11.स्वयंभू छंद और 12.प्राकृत पैंगलम्।

नाम निर्णय--
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             हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल के नामकरण के रूप में आदिकाल नाम ही योग्य व सार्थक है, क्योंकि इस नाम से उस व्यापक पुष्ठभूमि का बोध होता है, जिस पर परवर्ती साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से इस काल के साहित्य में हिंदी के प्रारंभिक रूप का पता चलता है तो भाव की दृष्टि से भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीज इसमें खोजे जा सकते हैं। इस काल की रचना-शैलियों के मुख्य रूप इसके बाद के कालों में मिलते हैं। आदिकाल की आध्यात्मिक, श्रृंगारिक तथा वीरता की प्रवृत्तियों का ही विकसित रूप परवर्ती साहित्य में मिलता है। इस कारण आदिकाल नाम ही अधिक उपयुक्त तथा व्यापक नाम है।
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