बुधवार, 11 सितंबर 2019

General Hindi (For Competition) सामान्य हिंदी (प्रतियोगी परीक्षा के लिए)

General  Hindi  (For Competition) अनिवार्य / सामान्य हिंदी (प्रतियोगी परीक्षा के लिए)
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क्रिया (Verb) की परिभाषा

जिस शब्द से किसी काम का करना या होना समझा जाय, उसे क्रिया कहते है।
जैसे- पढ़ना, खाना, पीना, जाना इत्यादि।
'क्रिया' का अर्थ होता है- करना। प्रत्येक भाषा के वाक्य में क्रिया का बहुत महत्त्व होता है। प्रत्येक वाक्य क्रिया से ही पूरा होता है। क्रिया किसी कार्य के करने या होने को दर्शाती है। क्रिया को करने वाला 'कर्ता' कहलाता है।
अली पुस्तक पढ़ रहा है।
बाहर बारिश हो रही है।
बाजार में बम फटा।
बच्चा पलंग से गिर गया।
उपर्युक्त वाक्यों में अली और बच्चा कर्ता हैं और उनके द्वारा जो कार्य किया जा रहा है या किया गया, वह क्रिया है; जैसे- पढ़ रहा है, गिर गया।
अन्य दो वाक्यों में क्रिया की नहीं गई है, बल्कि स्वतः हुई है। अतः इसमें कोई कर्ता प्रधान नहीं है।
वाक्य में क्रिया का इतना अधिक महत्त्व होता है कि कर्ता अथवा अन्य योजकों का प्रयोग न होने पर भी केवल क्रिया से ही वाक्य का अर्थ स्पष्ट हो जाता है; जैसे-
(1) पानी लाओ। 
(2) चुपचाप बैठ जाओ। 
(3) रुको। 
(4) जाओ।
अतः कहा जा सकता है कि,
जिन शब्दों से किसी काम के करने या होने का पता चले, उन्हें क्रिया कहते है।
क्रिया का मूल रूप 'धातु' कहलाता है। इनके साथ कुछ जोड़कर क्रिया के सामान्य रूप बनते हैं; जैसे-
धातु रूप
सामान्य रूप
बोल, पढ़, घूम, लिख, गा, हँस, देख आदि।बोलना, पढ़ना, घूमना, लिखना, गाना, हँसना, देखना आदि।
मूल धातु में 'ना' प्रत्यय लगाने से क्रिया का सामान्य रूप बनता है।

क्रिया के भेद

रचना के आधार पर क्रिया के भेद
रचना के आधार पर क्रिया के चार भेद होते हैं-
(1) संयुक्त क्रिया (Compound Verb)
(2) नामधातु क्रिया(Nominal Verb)
(3) प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)
(4) पूर्वकालिक क्रिया(Absolutive Verb)

(1)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)- 

जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- दो या दो से अधिक क्रियाएँ मिलकर जब किसी एक पूर्ण क्रिया का बोध कराती हैं, तो उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।
जैसे- बच्चा विद्यालय से लौट आया
किशोर रोने लगा
वह घर पहुँच गया।
उपर्युक्त वाक्यों में एक से अधिक क्रियाएँ हैं; जैसे- लौट, आया; रोने, लगा; पहुँच, गया। यहाँ ये सभी क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण कर रही हैं। अतः ये संयुक्त क्रियाएँ हैं।
इस प्रकार,
जिन वाक्यों की एक से अधिक क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण करती हैं, उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।
संयुक्त क्रिया में पहली क्रिया मुख्य क्रिया होती है तथा दूसरी क्रिया रंजक क्रिया।
रंजक क्रिया मुख्य क्रिया के साथ जुड़कर अर्थ में विशेषता लाती है;
जैसे- माता जी बाजार से आ गई।
इस वाक्य में 'आ' मुख्य क्रिया है तथा 'गई' रंजक क्रिया। दोनों क्रियाएँ मिलकर संयुक्त क्रिया 'आना' का अर्थ दर्शा रही हैं।
विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भित्र है, क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद 'हो', 'रो', 'सो', 'खा' इत्यादि धातुओं से बनते है, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ 'होना', 'आना', 'जाना', 'रहना', 'रखना', 'उठाना', 'लेना', 'पाना', 'पड़ना', 'डालना', 'सकना', 'चुकना', 'लगना', 'करना', 'भेजना', 'चाहना' इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।
इसके अतिरिक्त, सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से- लेट जाना, गिर पड़ना।
सकर्मक क्रिया से- बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना।
संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। जैसे- मैं पढ़ सकता हूँ। इसमें 'सकना' क्रिया 'पढ़ना' क्रिया के अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग अधिक होता है।

संयुक्त क्रिया के भेद

अर्थ के अनुसार संयुक्त क्रिया के 11 मुख्य भेद है-
(i) आरम्भबोधक- 
जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरम्भ होने का बोध होता है, उसे 'आरम्भबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।
(ii) समाप्तिबोधक- 
जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह 'समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह खा चुका है; वह पढ़ चुका है। धातु के आगे 'चुकना' जोड़ने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(iii) अवकाशबोधक- 
जिससे क्रिया को निष्पत्र करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह 'अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह मुश्किल से सोने पाया; जाने न पाया।
(iv) अनुमतिबोधक- 
जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह 'अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया 'देना' धातु के योग से बनती है।
(v) नित्यताबोधक- 
जिससे कार्य की नित्यता, उसके बन्द न होने का भाव प्रकट हो, वह 'नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- हवा चल रही है; पेड़ बढ़ता गया; तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे 'जाना' या 'रहना' जोड़ने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।
(vi) आवश्यकताबोधक- 
जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह 'आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- यह काम मुझे करना पड़ता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ 'पड़ना' 'होना' या 'चाहिए' क्रियाओं को जोड़ने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(vii) निश्र्चयबोधक- 
जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्र्चयता का बोध हो, उसे 'निश्र्चयबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह बीच ही में बोल उठा; उसने कहा- मैं मार बैठूँगा, वह गिर पड़ा; अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।
(viii) इच्छाबोधक- 
इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है।
जैसे- वह घर आना चाहता है; मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में 'चाहना' क्रिया जोड़ने से इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
(ix) अभ्यासबोधक- 
इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में 'करना' क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
जैसे- यह पढ़ा करता है; तुम लिखा करते हो; मैं खेला करता हूँ।
(x) शक्तिबोधक- 
इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है।
जैसे- मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें 'सकना' क्रिया जोड़ी जाती है।
(xi) पुनरुक्त संयुक्त क्रिया- 
जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनिवाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें 'पुनरुक्त संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ा-लिखा करता है; वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है; पड़ोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।

(2) नामधातु क्रिया (Nominal Verb)- 

संज्ञा अथवा विशेषण के साथ क्रिया जोड़ने से जो संयुक्त क्रिया बनती है, उसे 'नामधातु क्रिया' कहते हैं।
जैसे- लुटेरों ने जमीन हथिया ली। हमें गरीबों को अपनाना चाहिए।
उपर्युक्त वाक्यों में हथियाना तथा अपनाना क्रियाएँ हैं और ये 'हाथ' संज्ञा तथा 'अपना' सर्वनाम से बनी हैं। अतः ये नामधातु क्रियाएँ हैं।
इस प्रकार,
जो क्रियाएँ संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से बनती हैं, वे नामधातु क्रिया कहलाती हैं।
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से निर्मित कुछ नामधातु क्रियाएँ इस प्रकार हैं :
संज्ञा शब्द
नामधातु क्रिया
शर्मशर्माना
लोभलुभाना
बातबतियाना
झूठझुठलाना
लातलतियाना
दुख
दुखाना

सर्वनाम शब्द
नामधातु क्रिया
अपना
अपनाना

विशेषण शब्द
नामधातु क्रिया
साठ
सठियाना
तोतला
तुतलाना
नरमनरमाना
गरमगरमाना
लज्जालजाना
लालचललचाना
फ़िल्म
फिल्माना

अनुकरणवाची शब्द
नामधातु क्रिया
थप-थप
थपथपाना
थर-थरथरथराना
कँप-कँपकँपकँपाना
टन-टनटनटनाना
बड़-बड़बड़बड़ाना
खट-खटखटखटाना
घर-घर
घरघराना

द्रष्टव्य- 

नामबोधक क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ नहीं हैं। संयुक्त क्रियाएँ दो क्रियाओं के योग से बनती है और नामबोधक क्रियाएँ संज्ञा अथवा विशेषण के मेल से बनती है। दोनों में यही अन्तर है।

(3)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)-

जिन क्रियाओ से इस बात का बोध हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वे प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है।
जैसे- काटना से कटवाना, करना से कराना।
एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है-
मालिक नौकर से कार साफ करवाता है।
अध्यापिका छात्र से पाठ पढ़वाती हैं।
उपर्युक्त वाक्यों में मालिक तथा अध्यापिका प्रेरणा देने वाले कर्ता हैं। नौकर तथा छात्र को प्रेरित किया जा रहा है। अतः उपर्युक्त वाक्यों में करवाता तथा पढ़वाती प्रेरणार्थक क्रियाएँ हैं।
प्रेरणार्थक क्रिया में दो कर्ता होते हैं :
(1) प्रेरक कर्ता-प्रेरणा देने वाला; जैसे- मालिक, अध्यापिका आदि।
(2) प्रेरित कर्ता-प्रेरित होने वाला अर्थात जिसे प्रेरणा दी जा रही है; जैसे- नौकर, छात्र आदि।
प्रेरणार्थक क्रिया के रूप
प्रेरणार्थक क्रिया के दो रूप हैं :
(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया
(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया
(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया
माँ परिवार के लिए भोजन बनाती है।
जोकर सर्कस में खेल दिखाता है।
रानी अनिमेष को खाना खिलाती है।
नौकरानी बच्चे को झूला झुलाती है।
इन वाक्यों में कर्ता प्रेरक बनकर प्रेरणा दे रहा है। अतः ये प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया के उदाहरण हैं।
सभी प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं।
(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया
माँ पुत्री से भोजन बनवाती है।
जोकर सर्कस में हाथी से करतब करवाता है।
रानी राधा से अनिमेष को खाना खिलवाती है।
माँ नौकरानी से बच्चे को झूला झुलवाती है।
इन वाक्यों में कर्ता स्वयं कार्य न करके किसी दूसरे को कार्य करने की प्रेरणा दे रहा है और दूसरे से कार्य करवा रहा है। अतः यहाँ द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया है।
प्रथम प्रेरणार्थक और द्वितीय प्रेरणार्थक-दोनों में क्रियाएँ एक ही हो रही हैं, परन्तु उनको करने और करवाने वाले कर्ता अलग-अलग हैं।
प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया प्रत्यक्ष होती है तथा द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया अप्रत्यक्ष होती है।
याद रखने वाली बात यह है कि अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक होने पर सकर्मक (कर्म लेनेवाली) हो जाती है। जैसे-
राम लजाता है।
वह राम को लजवाता है।
प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं से बनती हैं। ऐसी क्रियाएँ हर स्थिति में सकर्मक ही रहती हैं। जैसे- मैंने उसे हँसाया; मैंने उससे किताब लिखवायी। पहले में कर्ता अन्य (कर्म) को हँसाता है और दूसरे में कर्ता दूसरे को किताब लिखने को प्रेरित करता है। इस प्रकार हिन्दी में प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप चलते हैं। प्रथम में 'ना' का और द्वितीय में 'वाना' का प्रयोग होता है- हँसाना- हँसवाना।
प्रेरणार्थक क्रियाओं के कुछ अन्य उदाहरण
मूल क्रिया
प्रथम प्रेरणार्थक
द्वितीय प्रेरणार्थक
उठना
उठानाउठवाना
उड़नाउड़ानाउड़वाना
चलनाचलानाचलवाना
देनादिलानादिलवाना
जीनाजिलानाजिलवाना
लिखनालिखानालिखवाना
जगनाजगानाजगवाना
सोनासुलानासुलवाना
पीनापिलानापिलवाना
देनादिलानादिलवाना
धोनाधुलानाधुलवाना
रोनारुलानारुलवाना
घूमनाघुमानाघुमवाना
पढ़नापढ़ानापढ़वाना
देखनादिखानादिखवाना
खानाखिलाना
खिलवाना

(4) पूर्वकालिक क्रिया (Absolutive Verb)- 

जिस वाक्य में मुख्य क्रिया से पहले यदि कोई क्रिया हो जाए, तो वह पूर्वकालिक क्रिया कहलाती हैं।
दूसरे शब्दों में- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया 'पूर्वकालिक' कहलाती है।
जैसे- पुजारी ने नहाकर पूजा की
राखी ने घर पहुँचकर फोन किया।
उपर्युक्त वाक्यों में पूजा की तथा फोन किया मुख्य क्रियाएँ हैं। इनसे पहले नहाकर, पहुँचकर क्रियाएँ हुई हैं। अतः ये पूर्वकालिक क्रियाएँ हैं।
पूर्वकालिक का शाब्दिक अर्थ है-पहले समय में हुई।
पूर्वकालिक क्रिया मूल धातु में 'कर' अथवा 'करके' लगाकर बनाई जाती हैं; जैसे-
चोर सामान चुराकर भाग गया।
व्यक्ति ने भागकर बस पकड़ी।
छात्र ने पुस्तक से देखकर उत्तर दिया।
मैंने घर पहुँचकर चैन की साँस ली।
कर्म के आधार पर क्रिया के भेद
कर्म की दृष्टि से क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :
(1)सकर्मक क्रिया(Transitive Verb) 
(2)अकर्मक क्रिया(Intransitive Verb)

(1)सकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जिस क्रिया के साथ कर्म भी हो, तो उसे सकर्मक क्रिया कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'सकर्मक क्रिया' उसे कहते है, जिसका कर्म हो या जिसके साथ कर्म की सम्भावना हो, अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का संचालन तो कर्ता से हो, पर जिसका फल या प्रभाव किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु, अर्थात कर्म पर पड़े।
दूसरे शब्दों में-वाक्य में क्रिया के होने के समय कर्ता का प्रभाव अथवा फल जिस व्यक्ति अथवा वस्तु पर पड़ता है, उसे कर्म कहते है।
सरल शब्दों में- जिस क्रिया का फल कर्म पर पड़े उसे सकर्मक क्रिया कहते है।
जैसे- अध्यापिका पुस्तक पढ़ा रही हैं।
माली ने पानी से पौधों को सींचा।
उपर्युक्त वाक्यों में पुस्तक, पानी और पौधे शब्द कर्म हैं, क्योंकि कर्ता (अध्यापिका तथा माली) का सीधा फल इन्हीं पर पड़ रहा है।
क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको लगाकर प्रश्न करने पर यदि उचित उत्तर मिले, तो वह सकर्मक क्रिया होती है; जैसे- उपर्युक्त वाक्यों में पढ़ा रही है, सींचा क्रियाएँ हैं। इनमें क्या, किसे तथा किसको प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं। अतः ये सकर्मक क्रियाएँ हैं।
कभी-कभी सकर्मक क्रिया का कर्म छिपा रहता है। जैसे- वह गाता है; वह पढ़ता है। यहाँ 'गीत' और 'पुस्तक' जैसे कर्म छिपे हैं।
सकर्मक क्रिया के भेद
सकर्मक क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :
(i) एककर्मक क्रिया
(ii) 
द्विकर्मक क्रिया

(i) एककर्मक क्रिया :-

जिस सकर्मक क्रियाओं में केवल एक ही कर्म होता है, वे एककर्मक सकर्मक क्रिया
कहलाती हैं।
जैसे- श्याम फ़िल्म देख रहा है।
नौकरानी झाड़ू लगा रही है।
इन उदाहरणों में फ़िल्म और झाड़ू कर्म हैं। 'देख रहा है' तथा 'लगा रही है' क्रिया का फल सीधा कर्म पर पड़ रहा है, साथ ही दोनों वाक्यों में एक-एक ही कर्म है। अतः यहाँ एककर्मक क्रिया है।

(ii) द्विकर्मक क्रिया :- 

द्विकर्मक अर्थात दो कर्मो से युक्त। जिन सकमर्क क्रियाओं में एक साथ दो-दो कर्म होते हैं, वे द्विकर्मक सकर्मक क्रिया कहलाते हैं।
जैसे- श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है।
नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है।
इन उदाहरणों में क्या, किसके साथ तथा किससे प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं; जैसे-
पहले वाक्य में श्याम किसके साथ, क्या देख रहा है ?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है।
दूसरे वाक्य में नौकरानी किससे, क्या लगा रही है?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है।
दोनों वाक्यों में एक साथ दो-दो कर्म आए हैं, अतः ये द्विकर्मक क्रियाएँ हैं।
द्विकर्मक क्रिया में एक कर्म मुख्य होता है तथा दूसरा गौण (आश्रित)।
मुख्य कर्म क्रिया से पहले तथा गौण कर्म के बाद आता है।
मुख्य कर्म अप्राणीवाचक होता है, जबकि गौण कर्म प्राणीवाचक होता है।
गौण कर्म के साथ 'को' विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, जो कई बार अप्रत्यक्ष भी हो सकती है; जैसे-
बच्चे गुरुजन को प्रणाम करते हैं।
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)
सुरेंद्र ने छात्र को गणित पढ़ाया।
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)

(2)अकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जब क्रिया के साथ कर्म नही होता तो उस क्रिया को अकर्मक क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन क्रियाओं का व्यापार और फल कर्ता पर हो, वे 'अकर्मक क्रिया' कहलाती हैं।
अ + कर्मक अर्थात कर्म रहित/कर्म के बिना। जिन क्रियाओं के साथ कर्म न लगा हो तथा क्रिया का फल कर्ता पर ही पड़े, उन्हें अकर्मक क्रिया कहते हैं।
अकर्मक क्रियाओं का 'कर्म' नहीं होता, क्रिया का व्यापार और फल दूसरे पर न पड़कर कर्ता पर पड़ता है।
उदाहरण के लिए -
श्याम सोता है। इसमें 'सोना' क्रिया अकर्मक है। 'श्याम' कर्ता है, 'सोने' की क्रिया उसी के द्वारा पूरी होती है। अतः, सोने का फल भी उसी पर पड़ता है। इसलिए 'सोना' क्रिया अकर्मक है।
अन्य उदाहरण 
पक्षी उड़ रहे हैं। बच्चा रो रहा है।
उपर्युक्त वाक्यों में कोई कर्म नहीं है, क्योंकि यहाँ क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको, कहाँ आदि प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिल रहे हैं। अतः जहाँ क्रिया के साथ इन प्रश्नों के उत्तर न मिलें, वहाँ अकर्मक क्रिया होती है।
कुछ अकर्मक क्रियाएँ इस प्रकार हैं :
तैरना, कूदना, सोना, ठहरना, उछलना, मरना, जीना, बरसना, रोना, चमकना आदि।
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान
सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान 'क्या', 'किसे' या 'किसको' आदि पश्र करने से होती है। यदि कुछ उत्तर मिले, तो समझना चाहिए कि क्रिया सकर्मक है और यदि न मिले तो अकर्मक होगी।
जैसे-
(i) 'राम फल खाता हैै।'
प्रश्न करने पर कि राम क्या खाता है, उत्तर मिलेगा फल। अतः 'खाना' क्रिया सकर्मक है।
(ii) 'सीमा रोती है।'
इसमें प्रश्न पूछा जाये कि 'क्या रोती है ?' तो कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः इस वाक्य में रोना क्रिया अकर्मक है।
उदाहरणार्थ- मारना, पढ़ना, खाना- इन क्रियाओं में 'क्या' 'किसे' लगाकर पश्र किए जाएँ तो इनके उत्तर इस प्रकार होंगे-
पश्र- किसे मारा ?
उत्तर- किशोर को मारा।
पश्र- क्या खाया ?
उत्तर- खाना खाया।
पश्र- क्या पढ़ता है।
उत्तर- किताब पढ़ता है।
इन सब उदाहरणों में क्रियाएँ सकर्मक है।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती है और प्रसंग अथवा अर्थ के अनुसार इनके भेद का निर्णय किया जाता है। जैसे-
अकर्मक
सकर्मक
उसका सिर खुजलाता है।वह अपना सिर खुजलाता है।
बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।मैं घड़ा भरता हूँ।
तुम्हारा जी ललचाता है।ये चीजें तुम्हारा जी ललचाती हैं।
जी घबराता है।विपदा मुझे घबराती है।
वह लजा रही है।वह तुम्हें लजा रही है।


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धातु (Stem) की परिभाषा
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धातु - क्रिया के मूल रूप को धातु कहते है।

दूसरे शब्दों में- 'धातु' क्रियापद के उस अंश को कहते है, जो किसी क्रिया के प्रायः सभी रूपों में पाया जाता है।
तात्पर्य यह कि जिन मूल अक्षरों से क्रियाएँ बनती है, उन्हें 'धातु' कहते है।
पढ़, जा, खा, लिख आदि।

उदाहरण -

'पढ़ना' क्रिया को ले। इसमें 'ना' प्रत्यय है, जो मूल धातु 'पढ़' में लगा है।
इस प्रकार 'पढ़ना' क्रिया की धातु 'पढ़' है।
इसी प्रकार 'खाना' क्रिया 'खा' धातु में 'ना' प्रत्यय लगाने से बनी है।

सामान्य क्रिया-

क्रिया के मूल रूप अर्थात धातु के साथ 'ना' जोड़ने से क्रिया का सामान्य रूप बनता है।
जैसे- पढ़ + ना =पढ़ना
लिख + ना =लिखना
जा + ना =जाना
खा + ना =खाना।

धातु के भेद

व्युत्पत्ति अथवा शब्द-निर्माण की दृष्टि से धातु पाँच प्रकार की होती है-
(1) मूल धातु

(2) यौगिक धातु

(3) नामधातु (Nominal Verb)

(4) मिश्र धातु

(5) अनुकरणात्मक धातु

(1) मूल धातु-

मूल धातु स्वतन्त्र होती है। यह किसी दूसरे शब्द पर आश्रित नहीं होती। जैसे- खा, देख, पी इत्यादि।

(2) यौगिक धातु-

यौगिक धातु किसी प्रत्यय के योग से बनती है। जैसे- 'खाना' से खिला, 'पढ़ना' से पढ़ा। इस प्रकार धातुएँ अनन्त है- कुछ एकाक्षरी, दो अक्षरी, तीन अक्षरी, तीन अक्षरी और चार अक्षरी धातुएँ होती हैं।

यौगिक धातु की रचना

यौगिक धातु तीन प्रकार से बनती है-

(i) धातु में प्रत्यय लगाने से अकर्मक से सकर्मक और प्रेरणार्थक धातुएँ बनती है;

(ii) कई धातुओं को संयुक्त करने से संयुक्त धातु बनती है;

(iii) संज्ञा या विशेषण से नामधातु बनती है।

(3)नामधातु (Nominal Verb)-

जो धातु संज्ञा या विशेषण से बनती है, उसे 'नामधातु' कहते है। जैसे-
संज्ञा से- हाथ - हथियाना।
संज्ञा से- बात - बतियाना।
विशेषण से- चिकना - चिकनाना।
विशेषण से- गरम - गरमाना।

(4)मिश्र धातु-

जिन संज्ञा, विशेषण, और क्रिया विशेषण शब्दों के बाद 'करना' या 'होना' जैसे क्रिया पदों के प्रयोग से जो नई क्रिया धातुएँ बनती है उसे मिश्र धातु कहते है।
होना या करना- काम करना, काम होना।
देना- पैसा देना, उधार देना।
मारना- गोता मारना, डींग मारना।
लेना- काम लेना, खा लेना।
जाना- चले जाना, सो जाना।
आना- किसी का याद आना, नजर आना।

(5)अनुकरणात्मक धातु-

जो धातुएँ किसी ध्वनि के अनुकरण पर बनाई जाती है, उसे अनुकरणात्मक धातु कहते है।
जैसे-पटकना, टनटनाना, खटकना धातुएँ अनुकरणात्मक धातु के अंतर्गत आती है।

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हिंदी दिवस की बहुत बधाई और शुभकामनाएं हार्दिक शुभकामनाएं ।।
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हिंदी दिवस ।।
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Hindi Diwas 2019: क्‍यों मनाया जाता है हिंदी दिवस? जानिए इसका इतिहास और 8 दिलचस्प बातें।

Hindi Diwas 2019: हिंदी दिवस साल 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर साल मनाया जाता आ रहा है. हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है.

हिंदी दिवस (Hindi Diwas) हर साल 14 सितंबर (14 September) को मनाया जाता है. हिंदी विश्व की प्राचीन, समृद्ध और सरल भाषा है. हिंदी (Hindi) भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में बोली जाती है. हिंदी हमारी 'राजभाषा' (Hindi Rajbhasha) है. दुनिया की भाषाओं का इतिहास रखने वाली संस्था एथ्नोलॉग (Ethnologue) के मुताबिक हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है. हिंदी हमें दुनिया भर में सम्मान दिलाती है. 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी. इस निर्णय के बाद हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा.

क्‍या है हिन्‍दी दिवस का इतिहास?
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वैसे तो भारत विभिन्‍न्‍ताओं वाला देश है. यहां हर राज्‍य की अपनी अलग सांस्‍कृतिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पहचान है. यही नहीं सभी जगह की बोली भी अलग है. इसके बावजूद हिन्‍दी भारत में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है. यही वजह है कि राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने हिन्‍दी को जनमानस की भाषा कहा था. उन्‍होंने 1918 में आयोजित हिन्‍दी साहित्‍य सम्‍मेलन में हिन्‍दी को राष्‍ट्र भाषा बनाने के लिए कहा था.

आजादी मिलने के बाद लंबे विचार-विमर्श के बाद आखिरकार 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में हिन्‍दी को राज भाषा बनाने का फैसला लिया गया. भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्‍याय की धारा 343 (1) में हिन्‍दी को राजभाषा बनाए जाने के संदर्भ में कुछ इस तरह लिखा गया है, 'संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा.'
हालांकि हिन्‍दी को राजभाषा बनाए जाने से काफी लोग खुश नहीं थे और इसका विरोध करने लगे. इसी विरोध के चलते बाद में अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दे दिया गया.

हिन्‍दी दिवस क्‍यों मनाया जाता है?
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भारत सालों तक अंग्रेजों का गुलाम रहा. इसी वजह से उस गुलामी का असर लंबे समय तक देखने को मिला. यहां तक कि इसका प्रभाव भाषा में भी पड़ा. वैसे तो हिन्‍दी दुनिया की चौथी ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्‍यादा लोग बोलते हैं लेकिन इसके बावजूद हिन्‍दी को अपने ही देश में हीन भावना से देखा जाता है. आमतौर पर हिन्‍दी बोलने वाले को पिछड़ा और अंग्रेजी में अपनी बात कहने वाले को आधुनिक कहा जाता है.

इसे हिन्‍दी का दुर्भाग्‍य ही कहा जाएगा कि इतनी समृद्ध भाषा कोष होने के बावजूद आज हिन्‍दी लिखते और बोलते वक्‍त ज्‍यादातर अंग्रेजी भाषा के शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया जाता है. और तो और हिन्‍दी के कई शब्‍द चलन से ही हट गए. ऐसे में हिन्‍दी दिवस को मनाना जरूरी है ताकि लोगों को यह याद रहे कि हिन्‍दी उनकी राजभाषा है और उसका सम्‍मान व प्रचार-प्रसार करना उनका कर्तव्‍य है. हिन्‍दी दिवस मनाने के पीछे मंशा यही है कि लोगों को एहसास दिलाया जा सके कि जब तक वे इसका इस्‍तेमाल नहीं करेंगे तब तक इस भाषा का विकास नहीं होगा.

हिन्‍दी दिवस कैसे मनाया जाता है?
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हिन्‍दी दिवस के मौके पर कई कार्यक्रमों का आयोजन होता है. स्‍कूलों, कॉलेजों और  शैक्षणिक संस्‍थानों में निबंध प्रतियोगिता,  वाद-विवाद प्रतियोगता, कविता पाठ, नाटक, और प्रदर्शनियों का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा सरकारी दफ्तरों में हिन्‍दी पखवाड़े का आयोजन होता है. यानी कि 14 सितंबर से लेकर अगले 15 दिनों तक सरकारी दफ्तों में विभिन्‍न प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं. यही नहीं साल भर हिन्‍दी के विकास के लिए अच्‍छा काम करने वाले सरकारी दफ्तरों को पुरस्‍कार से भी सम्‍मानित किया जाता है.

हिन्‍दी से जुड़ी 8 दिलचस्प बातें, जिन्हें पढ़कर आपको गर्व होगा
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1. हिन्‍दी विश्‍व में चौथी ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्‍यादा लोग बोलते हैं. ताजा आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान में भारत में 43.63 फीसदी लोग हिन्‍दी भाषा बोलते हैं. जबकि 2001 में यह आंकड़ा 41.3 फीसदी था. तब 42 करोड़ लोग हिन्दी बोलते थे. जनगणना के आंकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच हिन्दी बोलने वाले 10 करोड़ लोग बढ़ गए. साफ है कि हिन्दी देश की सबसे तेजी से बढ़ती जा रही है ।
2. इसे आप हिन्‍दी की ताकत ही कहेंगे कि अब लगभग सभी विदेशी कंपनियां हिन्‍दी को बढ़ावा दे रही हैं. यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े सर्च इंजन गूगल में पहले जहां अंग्रेजी कॉनटेंट को बढ़ावा दिया जाता था वही गूगल अब हिन्‍दी और अन्‍य क्षेत्रीय भाषा वाले कॉन्‍टेंट को प्रमुखता दे रहा है. हाल ही में ई-कॉमर्स साइट अमेजन इंडिया ने अपना हिन्दी ऐप्‍प लॉन्च किया है. ओएलएक्स, क्विकर जैसे प्लेटफॉर्म पहले ही हिन्दी में उपलब्ध हैं. स्नैपडील भी हिन्दी में है.
3. इंटरनेट के प्रसार से किसी को अगर सबसे ज्‍यादा फायदा हुआ है तो वह हिन्‍दी है. 2016 में डिजिटल माध्यम में हिन्दी समाचार पढ़ने वालों की संख्या 5.5 करोड़ थी, जो 2021 में बढ़कर 14.4 करोड़ होने का अनुमान है.
4. 2021 में हिन्दी में इंटरनेट उपयोग करने वाले अंग्रेजी में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों से अधिक हो जाएंगे. 20.1 करोड़ लोग हिन्दी का उपयोग करने लगेंगे. गूगल के अनुसार हिन्दी में कॉन्‍टेंट पढ़ने वाले हर साल 94 फीसदी बढ़ रहे हैं, जबकि अंग्रेजी में यह दर सालाना 17 फीसदी है.
5. अभी विश्‍व के सैंकड़ों व‍िश्‍वविद्यालयों में हिन्‍दी पढ़ाई जाती है और पूरी दुनिया में करोड़ों लोग हिन्‍दी बोलते हैं. यही नहीं हिन्‍दी दुनिया भर में सबसे ज्‍यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक है.
6. दक्षिण प्रशान्त महासागर के मेलानेशिया में फिजी नाम का एक द्वीप है. फिजी में हिन्‍दी को आधाकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है. इसे फि‍जियन हिन्दी या फि‍जियन हिन्दुस्तानी भी कहते हैं. यह अवधी, भोजपुरी और अन्य बोलियों का मिलाजुला रूप है.

7. पाकिस्‍तान, नेपाल, बांग्‍लादेश, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, न्‍यूजीलैंड, संयुक्‍त अरब अमीरात, युगांडा, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद, मॉरिशस और साउथ अफ्रीका समेत कई देशों में हिन्‍दी बोली जाती है.

8. साल 2017 में ऑक्‍सफोर्ड डिक्‍शनरी में पहली बार 'अच्छा', 'बड़ा दिन', 'बच्चा' और 'सूर्य नमस्कार' जैसे हिन्‍दी शब्‍दों को शामिल किया गया.
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भाषा (Language) की परिभाषा -

भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है। 
दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है।
सरल शब्दों में- सामान्यतः भाषा मनुष्य की सार्थक व्यक्त वाणी को कहते है।
आदिमानव अपने मन के भाव एक-दूसरे को समझाने व समझने के लिए संकेतों का सहारा लेते थे, परंतु संकेतों में पूरी बात समझाना या समझ पाना बहुत कठिन था। आपने अपने मित्रों के साथ संकेतों में बात समझाने के खेल (dumb show) खेले होंगे। उस समय आपको अपनी बात समझाने में बहुत कठिनाई हुई होगी। ऐसा ही आदिमानव के साथ होता था। इस असुविधा को दूर करने के लिए उसने अपने मुख से निकली ध्वनियों को मिलाकर शब्द बनाने आरंभ किए और शब्दों के मेल से बनी- भाषा।
भाषा शब्द संस्कृत के भाष धातु से बना है। जिसका अर्थ है- बोलना। कक्षा में अध्यापक अपनी बात बोलकर समझाते हैं और छात्र सुनकर उनकी बात समझते हैं। बच्चा माता-पिता से बोलकर अपने मन के भाव प्रकट करता है और वे उसकी बात सुनकर समझते हैं। इसी प्रकार, छात्र भी अध्यापक द्वारा समझाई गई बात को लिखकर प्रकट करते हैं और अध्यापक उसे पढ़कर मूल्यांकन करते हैं। सभी प्राणियों द्वारा मन के भावों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा का प्रयोग किया जाता है। पशु-पक्षियों की बोलियों को भाषा नहीं कहा जाता।
इसके द्वारा मनुष्य के भावो, विचारो और भावनाओ को व्यक्त किया जाता है। वैसे भी भाषा की परिभाषा देना एक कठिन कार्य है। फिर भी भाषावैज्ञानिकों ने इसकी अनेक परिभाषा दी है। किन्तु ये परिभाषा पूर्ण नही है। हर में कुछ न कुछ त्रुटि पायी जाती है।
आचार्य देवनार्थ शर्मा ने भाषा की परिभाषा इस प्रकार बनायी है। उच्चरित ध्वनि संकेतो की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अथवा जिसकी सहायता से मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय या सहयोग करते है उस यादृच्छिक, रूढ़ ध्वनि संकेत की प्रणाली को भाषा कहते है।
यहाँ तीन बातें विचारणीय है- 
(1) भाषा ध्वनि संकेत है।
(2) वह यादृच्छिक है।
(3) वह रूढ़ है।
(1) सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। यह संकेत स्पष्ट होना चाहिए। मनुष्य के जटिल मनोभावों को भाषा व्यक्त करती है; किन्तु केवल संकेत भाषा नहीं है। रेलगाड़ी का गार्ड हरी झण्डी दिखाकर यह भाव व्यक्त करता है कि गाड़ी अब खुलनेवाली है; किन्तु भाषा में इस प्रकार के संकेत का महत्त्व नहीं है। सभी संकेतों को सभी लोग ठीक-ठीक समझ भी नहीं पाते और न इनसे विचार ही सही-सही व्यक्त हो पाते हैं। सारांश यह है कि भाषा को सार्थक और स्पष्ट होना चाहिए।
(2) भाषा यादृच्छिक संकेत है। यहाँ शब्द और अर्थ में कोई तर्क-संगत सम्बन्ध नहीं रहता। बिल्ली, कौआ, घोड़ा, आदि को क्यों पुकारा जाता है, यह बताना कठिन है। इनकी ध्वनियों को समाज ने स्वीकार कर लिया है। इसके पीछे कोई तर्क नहीं है।
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत रूढ़ होते हैं। परम्परा या युगों से इनके प्रयोग होते आये हैं। औरत, बालक, वृक्ष आदि शब्दों का प्रयोग लोग अनन्तकाल से करते आ रहे है। बच्चे, जवान, बूढ़े- सभी इनका प्रयोग करते है। क्यों करते है, इसका कोई कारण नहीं है। ये प्रयोग तर्कहीन हैं।
प्रत्येक देश की अपनी एक भाषा होती है। हमारी राष्टभाषा हिंदी है। संसार में अनेक भाषाए है। जैसे- हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला, गुजराती, उर्दू, तेलगु, कन्नड़, चीनी, जमर्न आदिै।
हिंदी के कुछ भाषावैज्ञानिकों ने भाषा के निम्नलिखित लक्षण दिए है।
डॉ शयामसुन्दरदास के अनुसार - मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुअों के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।
डॉ बाबुराम सक्सेना के अनुसार- जिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।
उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते है-
(1) भाषा में ध्वनि-संकेतों का परम्परागत और रूढ़ प्रयोग होता है। 
(2) भाषा के सार्थक ध्वनि-संकेतों से मन की बातों या विचारों का विनिमय होता है। 
(3) भाषा के ध्वनि-संकेत किसी समाज या वर्ग के आन्तरिक और ब्राह्य कार्यों के संचालन या विचार-विनिमय में सहायक होते हैं। 
(4) हर वर्ग या समाज के ध्वनि-संकेत अपने होते हैं, दूसरों से भित्र होते हैं।

भाषा एक संप्रेषण के रूप में :

'संप्रेषण' एक व्यापक शब्द है। संप्रेषण के अनेक रूप हो सकते हैं। कुछ लोग इशारों से अपनी बात एक-दूसरे तक पहुँचा देते हैं, पर इशारे भाषा नहीं हैं। भाषा भी संप्रेषण का एक रूप है।
भाषा के संप्रेषण में दो लोगों का होना जरूरी होता है- एक अपनी बात को व्यक्त करने वाला, दूसरा उसकी बात को ग्रहण करने वाला। जो भी बात इन दोनों के बीच में संप्रेषित की जाती है, उसे 'संदेश' कहते हैं। भाषा में यही कार्य वक्ता और श्रोता द्वारा किया जाता है। संदेश को व्यक्त करने के लिए वक्ता किसी-न-किसी 'कोड' का सहारा लेता है। कोई इशारों से तो कोई ताली बजाकर अपनी बात कहता है। इस तरह इशारे करना या ताली बजाना एक प्रकार के 'कोड' हैं। वक्ता और श्रोता के बीच भाषा भी 'कोड' का कार्य करती है। भाषा में यह 'कोड' दो तरह के हो सकते हैं- यदि वक्ता बोलकर अपनी बात संप्रेषित करना चाहता है तो वह उच्चरित या मौखिक भाषा (कोड) का सहारा लेना होता है और यदि लिखकर अपनी बात संप्रेषित करना चाहता है तो उसे लिखित भाषा का सहारा लेना होता है।
संप्रेषण के अंतर्गत वक्ता और श्रोता की भूमिकाएँ बदलती रहती हैं। जब पहला व्यक्ति अपनी बात संप्रेषित करता है तब वह वक्ता की भूमिका निभाता है और दूसरा श्रोता की तथा जब दूसरा (श्रोता) व्यक्ति अपनी बात कहता है तब वह वक्ता बन जाता है और पहला (वक्ता) श्रोता की भूमिका निभाता है। कुल मिलाकर यह स्थिति बनती है कि वक्ता पहले किसी संदेश को कोड में बदलता है या कोडीकरण करता है तथा श्रोता उस संदेश को ग्रहण कर कोड से उसके अर्थ तक पहुँचता है या उस कोड का विकोडीकरण करता है। वक्ता और श्रोता के बीच कोडीकरण तथा विकोडीकरण की प्रकिया बराबर चलती रहती है-
.......... संदेश........
वक्ता....................श्रोता
कोडीकरण .......... विकोडीकरण
यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वक्ता और श्रोता के बीच जिस 'कोड' का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे दोनों परिचित हों अन्यथा दोनों के बीच संप्रेषण नहीं हो सकता।

मानव संप्रेषण तथा मानवेतर संप्रेषण :

संप्रेषण अथवा विचारों का आदान-प्रदान केवल मनुष्यों के बीच ही नहीं होता; मानवेतर प्राणियों के बीच भी होता है। कुत्ते, बंदर तरह-तरह की आवाजें निकालकर दूसरे कुत्ते और बंदरों तक अपनी बात संप्रेषित करते हैं। मधुमक्खियाँ तरह-तरह के नृत्य कर दूसरी मधुमक्खियों तक अपना संदेश संप्रेषित करती हैं। परन्तु मानवेतर संप्रेषण को 'भाषा' नहीं कहा जाता भले ही पशु-पक्षी तरह-तरह की ध्वनियाँ उच्चरित कर संप्रेषण करते हैं। वस्तुतः भाषा का संबंध तो केवल मनुष्य मात्र से है। भाषा का संबंध मानव मुख से उच्चरित ध्वनियों के साथ है या दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि 'भाषा' मानव मुख से उच्चरित होती है।

भाषा एक प्रतीक व्यवस्था के रूप में :

यह तो ठीक है कि भाषा मनुष्य के मुख से (वागेंद्रियों से) उच्चरित होती है पर उच्चारण के अंतर्गत मनुष्य तरह-तरह की ध्वनियों (स्वर तथा व्यंजन) के मेल से बने शब्दों का उच्चारण करता है। इन शब्दों से वाक्य बनाता है और वाक्यों के प्रयोग से वह वार्तालाप करता है। एक ओर भाषा के इन शब्दों का कोई-न-कोई अर्थ होता है दूसरी ओर ये किसी-न-किसी वस्तु की ओर संकेत करते हैं। उदाहरण के लिए 'किताब' शब्द का हिंदी में एक अर्थ है, जिससे प्रत्येक हिंदी भाषा-भाषी परिचित है दूसरी ओर यह शब्द किसी वस्तु (object) यानी किताब की ओर भी संकेत करता है। यदि हम किसी से कहते हैं कि 'एक किताब लेकर आओ' तो वह व्यक्ति 'किताब' शब्द को सुनकर उसके अर्थ तक पहुँचता है और फिर 'किताब' को ही लेकर आता है, किसी अन्य वस्तु को नहीं।
कहने का तात्पर्य यही है कि 'शब्द' अपने में वस्तु नहीं होता बल्कि किसी वस्तु को अभिव्यक्त (represent) करता है। इसी बात को इस तरह से कहा जा सकता है कि शब्द तो किसी वस्तु का प्रतीक (sign) होता है।
'प्रतीक' जिस अर्थ तथा वस्तु की ओर संकेत करता है, वस्तुतः वह संसार में सबके लिए समान होते हैं अंतर केवल प्रतीक के स्तर पर ही होता है। 'किताब' शब्द (प्रतीक) का अर्थ तथा वस्तु किताब तो संसार में हर भाषा-भाषी के लिए समान है अंतर केवल 'प्रतीक' के स्तर पर ही है। कोई उसे 'बुक' (book) कहता है तो कोई 'पुस्तक' । इस तरह प्रत्येक 'प्रतीक' की प्रकृति त्रिरेखीय् (three dimentional) होती है। एक ओर वह 'वस्तु' की ओर संकेत करता है तो दूसरी ओर उसके अर्थ की ओर-
अर्थ (कथ्य)
प्रतीक (अभिव्यक्ति)....वस्तु/पशु
घोड़ा (हिंदी)
अश्व (संस्कृत)
होर्स (अंग्रेजी)
कोनि (पोलिश)
वस्तुतः प्रतीक वह है जो किसी समाज या समूह द्वारा किसी अन्य वस्तु, गुण अथवा विशेषता के लिए प्रयुक्त किया जाता है। उदाहरण के 'घोड़ा' वस्तु/पशु के लिए हिंदी में ध्वन्यात्मक प्रतीक है। 'घोड़ा', संस्कृत में 'अश्व', अंग्रेजी में 'होर्स' (horse) तथा पोलिश भाषा 'कोनि' कहलाता है। दूसरी ओर इन सभी भाषा-भाषियों के लिए घोड़ा (पशु) तथा उसका अर्थ समान है। इसी तरह 'लाल बत्ती' (red light) संसार में सभी के लिए रुकने का तथा 'हरी बत्ती' (green light) चलने का प्रतीक है। अतः ध्यान रखिए भाषा का प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी वस्तु का प्रतीक होता है। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है। भाषा में अर्थ ही 'कथ्य' होता है तथा प्रतीक अभिव्यक्ति। अतः भाषा कथ्य और अभिव्यक्ति का समन्वित रूप है।
प्रतीकों के संबंध में एक बात और ध्यान रखने योग्य यह है कि वस्तु के लिए प्रतीक का निर्धारण ईश्वर की इच्छा से न होकर मानव इच्छा द्वारा होता है। किसी व्यक्ति ने हिंदी में एक वस्तु को 'कुर्सी' और दूसरी को 'मेज' कह दिया और उसी को समस्त भाषा-भाषियों ने यदि स्वीकार कर लिया तो 'कुर्सी' और 'मेज' शब्द उन वस्तुओं के लिए प्रयोग में आने लगे। अतः वस्तुओं के लिए प्रतीकों का निर्धारण 'यादृच्छिक' (इच्छा से दिया गया नाम) होता है। इस तरह प्रतीक का निर्धारण व्यक्ति द्वारा होता है और उसे स्वीकृति समाज द्वारा दी जाती है। इसलिए भाषा का संबंध एक ओर व्यक्ति से होता है तो दूसरी ओर समाज से। अतः भाषा केवल ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था नहीं है, बल्कि यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था होती है।

भाषा एक व्यवस्था के रूप में :

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भाषा एक व्यवस्था (system) है। व्यवस्था से तात्पर्य है 'नियम व्यवस्था' । जहाँ भी कोई व्यवस्था होती है, वहाँ कुछ नियम होते हैं। नियम यह तय करते हैं कि क्या हो सकता है और क्या नहीं हो सकता। भाषा के किसी भी स्तर पर (ध्वनि, शब्द, पद, पदबंध, वाक्य आदि) देखें तो सभी जगह आपको यह व्यवस्था दिखाई देगी। कौन-कौन सी ध्वनियाँ किस अनुक्रम (combination) में मिलाकर शब्द बनाएँगी और किस अनुक्रम से बनी रचना शब्द नहीं कहलाएगी, यह बात उस भाषा की ध्वनि संरचना के नियमों पर निर्भर करती है। उदाहरण के लिए हिंदी के निम्नलिखित अनुक्रमों पर ध्यान दीजिए-
(1) क् + अ + म् + अ + ल् + अ = कमल ....(सही)
(2) क् + अ + ल् + अ + म् +अ =कलम .....(सही)
(3) म् + अ + क् + अ + ल् + अ = मकल ....(गलत)
(4) ल् + अ + क् + अ + म् + अ = लकम ....(गलत)
ऊपर के चारों अनुक्रमों में समान व्यंजन एवं स्वर ध्वनियों से शब्द बनाए गए हैं, किंतु सार्थक होने के कारण 'कमल' तथा 'कलम' तो हिंदी के शब्द हैं पर निरर्थक होने के कारण 'मकल' तथा 'लकम' हिंदी के शब्द नहीं हैं। अतः ध्यान रखिए, हर भाषा में कुछ नियम होते हैं ये नियम ही उस भाषा की संरचना को संचालित या नियंत्रित करते हैं। इसलिए भाषा को 'नियम संचालित व्यवस्था' कहा जाता है।

भाषा का उद्देश्य :

भाषा का उद्देश्य है- संप्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान।
भाषा के प्रकार
भाषा के तीन रूप होते है-
(1) मौखिक भाषा 
(2) लिखित भाषा 
(3) सांकेतिक भाषा।

(1) मौखिक भाषा :-

विद्यालय में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में वक्ताओं ने बोलकर अपने विचार प्रकट किए तथा श्रोताओं ने सुनकर उनका आनंद उठाया। यह भाषा का मौखिक रूप है। इसमें वक्ता बोलकर अपनी बात कहता है व श्रोता सुनकर उसकी बात समझता है।
इस प्रकार, भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति बोलकर विचार प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति सुनकर उसे समझता है, मौखिक भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जिस ध्वनि का उच्चारण करके या बोलकर हम अपनी बात दुसरो को समझाते है, उसे मौखिक भाषा कहते है।
उदाहरण:
टेलीफ़ोन, दूरदर्शन, भाषण, वार्तालाप, नाटक, रेडियो आदि।
मौखिक या उच्चरित भाषा, भाषा का बोल-चाल का रूप है। उच्चरित भाषा का इतिहास तो मनुष्य के जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। मनुष्य ने जब से इस धरती पर जन्म लिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा तभी से उसने बोलना प्रारंभ कर दिया होगा। इसलिए यह कहा जाता है कि भाषा मूलतः मौखिक है।
यह भाषा का प्राचीनतम रूप है। मनुष्य ने पहले बोलना सीखा। इस रूप का प्रयोग व्यापक स्तर पर होता है।
मौखिक भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का अस्थायी रूप है।
(2) उच्चरित होने के साथ ही यह समाप्त हो जाती है।
(3) वक्ता और श्रोता एक-दूसरे के आमने-सामने हों प्रायः तभी मौखिक भाषा का प्रयोग किया जा सकता है।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'ध्वनि' है। विभिन्न ध्वनियों के संयोग से शब्द बनते हैं जिनका प्रयोग वाक्य में तथा विभिन्न वाक्यों का प्रयोग वार्तालाप में किया जाता हैं।
(5) यह भाषा का मूल या प्रधान रूप हैं।

(2) लिखित भाषा :-

मुकेश छात्रावास में रहता है। उसने पत्र लिखकर अपने माता-पिता को अपनी कुशलता व आवश्यकताओं की जानकारी दी। माता-पिता ने पत्र पढ़कर जानकारी प्राप्त की। यह भाषा का लिखित रूप है। इसमें एक व्यक्ति लिखकर विचार या भाव प्रकट करता है, दूसरा पढ़कर उसे समझता है।
इस प्रकार भाषा का वह रूप जिसमें एक व्यक्ति अपने विचार या मन के भाव लिखकर प्रकट करता है और दूसरा व्यक्ति पढ़कर उसकी बात समझता है, लिखित भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जिन अक्षरों या चिन्हों की सहायता से हम अपने मन के विचारो को लिखकर प्रकट करते है, उसे लिखित भाषा कहते है।
उदाहरण:
पत्र, लेख, पत्रिका, समाचार-पत्र, कहानी, जीवनी, संस्मरण, तार आदि।
उच्चरित भाषा की तुलना में लिखित भाषा का रूप बाद का है। मनुष्य को जब यह अनुभव हुआ होगा कि वह अपने मन की बात दूर बैठे व्यक्तियों तक या आगे आने वाली पीढ़ी तक भी पहुँचा दे तो उसे लिखित भाषा की आवश्यकता हुई होगी। अतः मौखिक भाषा को स्थायित्व प्रदान करने हेतु उच्चरितध्वनि प्रतीकों के लिए 'लिखित-चिह्नों' का विकास हुआ होगा।
इस तरह विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों ने अपनी-अपनी भाषिक ध्वनियों के लिए तरह-तरह की आकृति वाले विभिन्न लिखित-चिह्नों का निर्माण किया और इन्हीं लिखित-चिह्नों को 'वर्ण' (letter) कहा गया। अतः जहाँ मौखिक भाषा की आधारभूत इकाई ध्वनि (Phone) है तो वहीं लिखित भाषा की आधारभूत इकाई 'वर्ण' (letter) हैं।
लिखित भाषा की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(1) यह भाषा का स्थायी रूप है।
(2) इस रूप में हम अपने भावों और विचारों को अनंत काल के लिए सुरक्षित रख सकते हैं।
(3) यह रूप यह अपेक्षा नहीं करता कि वक्ता और श्रोता आमने-सामने हों।
(4) इस रूप की आधारभूत इकाई 'वर्ण' हैं जो उच्चरित ध्वनियों को अभिव्यक्त (represent) करते हैं।
(5) यह भाषा का गौण रूप है।
इस तरह यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि भाषा का मौखिक रूप ही प्रधान या मूल रूप है। किसी व्यक्ति को यदि लिखना-पढ़ना (लिखित भाषा रूप) नहीं आता तो भी हम यह नहीं कह सकते कि उसे वह भाषा नहीं आती। किसी व्यक्ति को कोई भाषा आती है, इसका अर्थ है- वह उसे सुनकर समझ लेता है तथा बोलकर अपनी बात संप्रेषित कर लेता है।

(3) सांकेतिक भाषा :- 

जिन संकेतो के द्वारा बच्चे या गूँगे अपनी बात दूसरों को समझाते है, वे सब सांकेतिक भाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- जब संकेतों (इशारों) द्वारा बात समझाई और समझी जाती है, तब वह सांकेतिक भाषा कहलाती है।
जैसे- चौराहे पर खड़ा यातायात नियंत्रित करता सिपाही, मूक-बधिर व्यक्तियों का वार्तालाप आदि।
इसका अध्ययन व्याकरण में नहीं किया जाता।

भाषा की प्रकृति

भाषा सागर की तरह सदा चलती-बहती रहती है। भाषा के अपने गुण या स्वभाव को भाषा की प्रकृति कहते हैं। हर भाषा की अपनी प्रकृति, आंतरिक गुण-अवगुण होते है। भाषा एक सामाजिक शक्ति है, जो मनुष्य को प्राप्त होती है। मनुष्य उसे अपने पूवर्जो से सीखता है और उसका विकास करता है।
यह परम्परागत और अर्जित दोनों है। जीवन्त भाषा 'बहता नीर' की तरह सदा प्रवाहित होती रहती है। भाषा के दो रूप है- कथित और लिखित। हम इसका प्रयोग कथन के द्वारा, अर्थात बोलकर और लेखन के द्वारा (लिखकर) करते हैं। देश और काल के अनुसार भाषा अनेक रूपों में बँटी है। यही कारण है कि संसार में अनेक भाषाएँ प्रचलित हैं। भाषा वाक्यों से बनती है, वाक्य शब्दों से और शब्द मूल ध्वनियों से बनते हैं। इस तरह वाक्य, शब्द और मूल ध्वनियाँ ही भाषा के अंग हैं। व्याकरण में इन्हीं के अंग-प्रत्यंगों का अध्ययन-विवेचन होता है। अतएव, व्याकरण भाषा पर आश्रित है।

भाषा के विविध रूप

हर देश में भाषा के तीन रूप मिलते है-
(1) बोलियाँ
(2) परिनिष्ठित भाषा
(3) राष्ट्र्भाषा

(1) बोलियाँ :- 

जिन स्थानीय बोलियों का प्रयोग साधारण अपने समूह या घरों में करती है, उसे बोली (dialect) कहते है।
किसी भी देश में बोलियों की संख्या अनेक होती है। ये घास-पात की तरह अपने-आप जन्म लेती है और किसी क्षेत्र-विशेष में बोली जाती है। जैसे- भोजपुरी, मगही, अवधी, मराठी, तेलगु, इंग्लिश आदि।

(2) परिनिष्ठित भाषा :- 

यह व्याकरण से नियन्त्रित होती है। इसका प्रयोग शिक्षा, शासन और साहित्य में होता है। बोली को जब व्याकरण से परिष्कृत किया जाता है, तब वह परिनिष्ठित भाषा बन जाती है। खड़ीबोली कभी बोली थी, आज परिनिष्ठित भाषा बन गयी है, जिसका उपयोग भारत में सभी स्थानों पर होता है। जब भाषा व्यापक शक्ति ग्रहण कर लेती है, तब आगे चलकर राजनीतिक और सामाजिक शक्ति के आधार पर राजभाषा या राष्टभाषा का स्थान पा लेती है। ऐसी भाषा सभी सीमाओं को लाँघकर अधिक व्यापक और विस्तृत क्षेत्र में विचार-विनिमय का साधन बनकर सारे देश की भावात्मक एकता में सहायक होती है। भारत में पन्द्रह विकसित भाषाएँ है, पर हमारे देश के राष्ट्रीय नेताओं ने हिन्दी भाषा को 'राष्ट्रभाषा' (राजभाषा) का गौरव प्रदान किया है। इस प्रकार, हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा है- रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी, जर्मनी की जर्मन, जापान की जापानी आदि।

(3) राष्ट्र्भाषा :- 

जब कोई भाषा किसी राष्ट्र के अधिकांश प्रदेशों के बहुमत द्वारा बोली व समझी जाती है, तो वह राष्टभाषा बन जाती है।
दूसरे शब्दों में- वह भाषा जो देश के अधिकतर निवासियों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है, राष्ट्रभाषा कहलाती है।
सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा होती है; जैसे- अमरीका-अंग्रेजी, चीन-चीनी, जापान-जापानी, रूस-रूसी आदि।
भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी है। यह लगभग 70-75 प्रतिशत लोगों द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।
भाषा और लिपि
लिपि -शब्द का अर्थ है-'लीपना' या 'पोतना' विचारो का लीपना अथवा लिखना ही लिपि कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- भाषा की उच्चरित/मौखिक ध्वनियों को लिखित रूप में अभिव्यक्त करने के लिए निश्चित किए गए चिह्नों या वर्णों की व्यवस्था को लिपि कहते हैं।
हिंदी और संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है। अंग्रेजी भाषा की लिपि रोमन पंजाबी भाषा की लिपि गुरुमुखी और उर्दू भाषा की लिपि फारसी है।
मौखिक या उच्चरित भाषा को स्थायित्व प्रदान करने के लिए भाषा के लिखित रूप का विकास हुआ। प्रत्येक उच्चरित ध्वनि के लिए लिखित चिह्न या वर्ण बनाए गए। वर्णों की पूरी व्यवस्था को ही लिपि कहा जाता है। वस्तुतः लिपि उच्चरित ध्वनियों को लिखकर व्यक्त करने का एक ढंग है।
सभ्यता के विकास के साथ-साथ अपने भावों और विचारों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए, दूर-सुदूर स्थित लोगों से संपर्क बनाए रखने के लिए तथा संदेशों और समाचारों के आदान-प्रदान के लिए जब मौखिक भाषा से काम न चल पाया होगा तब मौखिक ध्वनि संकेतों (प्रतीकों) को लिखित रूप देने की आवश्यकता अनुभव हुई होगी। यही आवश्यकता लिपि के विकास का कारण बनी होगी।

अनेक लिपियाँ :

किसी भी भाषा को एक से अधिक लिपियों में लिखा जा सकता है तो दूसरी ओर कई भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है अर्थात एक से अधिक भाषाओं को किसी एक लिपि में लिखा जा सकता है। उदाहरण के लिए हिंदी भाषा को हम देवनागरी तथा रोमन दोनों लिपियों में इस प्रकार लिख सकते हैं-
देवनागरी लिपि - मीरा घर गई है। 
रोमन लिपि - meera ghar gayi hai.
इसके विपरीत हिंदी, मराठी, नेपाली, बोडो तथा संस्कृत सभी भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।
हिंदी जिस लिपि में लिखी जाती है उसका नाम 'देवनागरी लिपि' है। देवनागरी लिपि का विकास ब्राह्मी लिपिसे हुआ है। ब्राह्मी वह प्राचीन लिपि है जिससे हिंदी की देवनागरी का ही नहीं गुजराती, बँगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं की लिपियों का भी विकास हुआ है।
देवनागरी लिपि में बायीं ओर से दायीं ओर लिखा जाता है। यह एक वैज्ञानिक लिपि है। यह एक मात्र ऐसी लिपि है जिसमें स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों को मिलाकर लिखे जाने की व्यवस्था है। संसार की समस्त भाषाओं में व्यंजनों का स्वतंत्र रूप में उच्चारण स्वर के साथ मिलाकर किया जाता है पर देवनागरी के अलावा विश्व में कोई भी ऐसी लिपि नहीं है जिसमें व्यंजन और स्वर को मिलाकर लिखे जाने की व्यवस्था हो। यही कारण है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की तुलना में अधिक वैज्ञानिक लिपि है।
अधिकांश भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बायीं ओर से दायीं ओर ही लिखी जाती हैं। केवल उर्दू जो फारसी लिपि में लिखी जाती है दायीं ओर से बायीं ओर लिखी जाती है।
नीचे की तालिका में विश्व की कुछ भाषाओं और उनकी लिपियों के नाम दिए जा रहे हैं-
क्रमभाषालिपियाँ
1हिंदी, संस्कृत, मराठी, नेपाली, बोडोदेवनागरी
2अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, इटेलियन, पोलिश, मीजोरोमन
3पंजाबीगुरुमुखी
4उर्दू, अरबी, फारसीफारसी
5रूसी, बुल्गेरियन, चेक, रोमानियनरूसी
6बँगलाबँगला
7उड़ियाउड़िया
8असमियाअसमिया

हिन्दी में लिपि चिह्न

देवनागरी के वर्णो में ग्यारह स्वर और इकतालीस व्यंजन हैं। व्यंजन के साथ स्वर का संयोग होने पर स्वर का जो रूप होता है, उसे मात्रा कहते हैं; जैसे-
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ
क का कि की कु कू के कै को कौ

देवनागरी लिपि

देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है तथा ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई है। विद्वानों का मानना है कि ब्राह्मी लिपि से देवनागरी का विकास सीधे-सीधे नहीं हुआ है, बल्कि यह उत्तर शैली की कुटिल, शारदा और प्राचीन देवनागरी के रूप में होता हुआ वर्तमान देवनागरी लिपि तक पहुँचा है। प्राचीन नागरी के दो रूप विकसित हुए- पश्चिमी तथा पूर्वी। इन दोनों रूपों से विभिन्न लिपियों का विकास इस प्रकार हुआ-

प्राचीन देवनागरी लिपि:

पश्चिमी प्राचीन देवनागरी- गुजराती, महाजनी, राजस्थानी, महाराष्ट्री, नागरी
पूर्वी प्राचीन देवनागरी- कैथी, मैथिली, नेवारी, उड़िया, बँगला, असमिया
संक्षेप में ब्राह्मी लिपि से वर्तमान देवनागरी लिपि तक के विकासक्रम को निम्नलिखित आरेख से समझा जा सकता है-

ब्राह्मी:

उत्तरी शैली- गुप्त लिपि, कुटिल लिपि, शारदा लिपि, प्राचीन नागरी लिपि

प्राचीन नागरी लिपि: 

पूर्वी नागरी- मैथली, कैथी, नेवारी, बँगला, असमिया आदि।
पश्चिमी नागरी- गुजराती, राजस्थानी, महाराष्ट्री, महाजनी, नागरी या देवनागरी।

दक्षिणी शैली-

देवनागरी लिपि की निम्रांकित विशेषताएँ हैं-
(1) आ (ा), ई (ी), ओ (ो) और औ (ौ) की मात्राएँ व्यंजन के बाद जोड़ी जाती हैं (जैसे- का, की, को, कौ); इ (ि) की मात्रा व्यंजन के पहले, ए (े) और ऐ (ै) की मात्राएँ व्यंजन के ऊपर तथा उ (ु), ऊ (ू),
ऋ (ृ) मात्राएँ नीचे लगायी जाती हैं।
(2) 'र' व्यंजन में 'उ' और 'ऊ' मात्राएँ अन्य व्यंजनों की तरह न लगायी जाकर इस तरह लगायी जाती हैं-
र् +उ =रु । र् +ऊ =रू ।
(3)अनुस्वार (ां) और विसर्ग (:) क्रमशः स्वर के ऊपर या बाद में जोड़े जाते हैं;
जैसे- अ+ां =अं। क्+अं =कं। अ+:=अः। क्+अः=कः।
(4) स्वरों की मात्राओं तथा अनुस्वार एवं विसर्गसहित एक व्यंजन वर्ण में बारह रूप होते हैं। इन्हें परम्परा के अनुस्वार 'बारहखड़ी' कहते हैं।
जैसे- क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः।
व्यंजन दो तरह से लिखे जाते हैं- खड़ी पाई के साथ और बिना खड़ी पाई के।
(5) ङ छ ट ठ ड ढ द र बिना खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं और शेष व्यंजन (जैसे- क, ख, ग, घ, च इत्यादि) खड़ी पाईवाले व्यंजन हैं। सामान्यतः सभी वर्णो के सिरे पर एक-एक आड़ी रेखा रहती है, जो ध, झ और भ में कुछ तोड़ दी गयी है।
(6) जब दो या दो से अधिक व्यंजनों के बीच कोई स्वर नहीं रहता, तब दोनों के मेल से संयुक्त व्यंजन बन जाते हैं।
जैसे- क्+त् =क्त । त्+य् =त्य । क्+ल् =क्ल ।
(7) जब एक व्यंजन अपने समान अन्य व्यंजन से मिलता है, तब उसे 'द्वित्व व्यंजन' कहते हैं।
जैसे- क्क (चक्का), त्त (पत्ता), त्र (गत्रा), म्म (सम्मान) आदि।

मातृभाषा

मातृभाषा- खनूर सिंह का जन्म पंजाबीभाषी परिवार में हुआ है, इसलिए वह पंजाबी बोलता है। साक्षी शर्मा का जन्म हिंदीभाषी परिवार में हुआ है, इसलिए वह हिंदी बोलती है। पंजाबी व हिंदी क्रमशः उनकी मातृभाषाएँ हैं।
इस प्रकार वह भाषा जिसे बालक अपने परिवार से अपनाता व सीखता है, मातृभाषा कहलाती है।
दूसरे शब्दों में- बालक जिस परिवार में जन्म लेता है, उस परिवार के सदस्यों द्वारा बोली जाने वाली भाषा वह सबसे पहले सीखता है। यही 'मातृभाषा' कहलाती है।

प्रादेशिक भाषा

प्रादेशिक भाषा- जब कोई भाषा एक प्रदेश में बोली जाती है तो उसे 'प्रादेशिक भाषा' कहते हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा

अन्तर्राष्ट्रीय भाषा- जब कोई भाषा विश्व के दो या दो से अधिक राष्ट्रों द्वारा बोली जाती है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा बन जाती है। जैसे- अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है।

राजभाषा

राजभाषा- वह भाषा जो देश के कार्यालयों व राज-काज में प्रयोग की जाती है, राजभाषा कहलाती है।
जैसे- भारत की राजभाषा अंग्रेजी तथा हिंदी दोनों हैं। अमरीका की राजभाषा अंग्रेजी है।

मानक भाषा

मानक भाषा-विद्वानों व शिक्षाविदों द्वारा भाषा में एकरूपता लाने के लिए भाषा के जिस रूप को मान्यता दी जाती है, वह मानक भाषा कहलाती है।
भाषा में एक ही वर्ण या शब्द के एक से अधिक रूप प्रचलित हो सकते हैं। ऐसे में उनके किसी एक रूप को विद्वानों द्वारा मान्यता दे दी जाती है; जैसे-
गयी - गई (मानक रूप)
ठण्ड - ठंड (मानक रूप)
अन्त - अंत (मानक रूप)
रव - ख (मानक रूप)
शुद्ध - शुदध (मानक रूप)
******************************************

वर्ण, वर्णमाला(Alphabet) की परिभाषा-

वर्ण- 

वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते। जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि।
वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते।
उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। 'राम' और 'गया' में चार-चार मूल ध्वनियाँ हैं, जिनके खंड नहीं किये जा सकते- र + आ + म + अ = राम, ग + अ + य + आ = गया। इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में 52 वर्ण हैं।

वर्णमाला- 

वर्णों के समूह को वर्णमाला कहते हैं।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है, किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।
प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है।
हिंदी- अ, आ, क, ख, ग.....
अंग्रेजी- A, B, C, D, E....

वर्ण के भेद

हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है।-
(1)स्वर (vowel) 
(2) व्यंजन (Consonant)

(1) स्वर (vowel) :- 

वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है।
इसके उच्चारण में कंठ, तालु का उपयोग होता है, जीभ, होठ का नहीं।
हिंदी वर्णमाला में 16 स्वर है
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ।

स्वर के भेद

स्वर के दो भेद होते है-
(i) मूल स्वर
(ii) संयुक्त स्वर
(i) मूल स्वर:- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ
(ii) संयुक्त स्वर:- ऐ (अ +ए) और औ (अ +ओ)

मूल स्वर के भेद

मूल स्वर के तीन भेद होते है -
(i) ह्स्व स्वर
(ii) दीर्घ स्वर
(iii)प्लुत स्वर

(i)ह्रस्व स्वर :- 

जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है।
ह्स्व स्वर चार होते है -अ आ उ ऋ।
'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।

(ii)दीर्घ स्वर :-

वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से दोगुना समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- स्वरों उच्चारण में अधिक समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
दीर्घ स्वर सात होते है -आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।
दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते है।
जैसे- आ =(अ +अ )
ई =(इ +इ )
ऊ =(उ +उ )
ए =(अ +इ )
ऐ =(अ +ए )
ओ =(अ +उ )
औ =(अ +ओ )

(iii)प्लुत स्वर :-

वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं।
इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, राऽऽम, ओऽऽम्।
हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' स्वर भी कहते हैं।
अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। अं को अनुस्वार तथा अः को विसर्ग कहा जाता है।
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग
अनुनासिक, निरनुनासिक, अनुस्वार और विसर्ग- हिन्दी में स्वरों का उच्चारण अनुनासिक और निरनुनासिक होता हैं। अनुस्वार और विर्सग व्यंजन हैं, जो स्वर के बाद, स्वर से स्वतंत्र आते हैं। इनके संकेतचिह्न इस प्रकार हैं।
अनुनासिक (ँ)-
ऐसे स्वरों का उच्चारण नाक और मुँह से होता है और उच्चारण में लघुता रहती है। जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।
अनुस्वार ( ं)-
यह स्वर के बाद आनेवाला व्यंजन है, जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है। जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।
निरनुनासिक-
केवल मुँह से बोले जानेवाला सस्वर वर्णों को निरनुनासिक कहते हैं। जैसे- इधर, उधर, आप, अपना, घर इत्यादि।
विसर्ग( ः)-
अनुस्वार की तरह विसर्ग भी स्वर के बाद आता है। यह व्यंजन है और इसका उच्चारण 'ह' की तरह होता है। संस्कृत में इसका काफी व्यवहार है। हिन्दी में अब इसका अभाव होता जा रहा है; किन्तु तत्सम शब्दों के प्रयोग में इसका आज भी उपयोग होता है। जैसे- मनःकामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।
टिप्पणी-
अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। इस सम्बन्ध में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का कथन है कि ''ये स्वर नहीं हैं और व्यंजनों की तरह ये स्वरों के पूर्व नहीं पश्र्चात आते हैं, ''इसलिए व्यंजन नहीं। इसलिए इन दोनों ध्वनियों को 'अयोगवाह' कहते हैं।'' अयोगवाह का अर्थ है- योग न होने पर भी जो साथ रहे।

अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर

अनुनासिक के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि।
पर अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक साँस निकलती है और मुख से कम, जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि।
अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।
अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है ; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत।

(2) व्यंजन (Consonant):- 

जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
जैसे- क, ख, ग, च, छ, त, थ, द, भ, म इत्यादि।
'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। स्वरवर्ण स्वतंत्र और व्यंजनवर्ण स्वर पर आश्रित है। हिन्दी में व्यंजनवर्णो की संख्या ३३ है।

व्यंजनों के प्रकार -

व्यंजनों तीन प्रकार के होते है-
(1)स्पर्श व्यंजन
(2)अन्तःस्थ व्यंजन 
(3)उष्म व्यंजन

(1)स्पर्श व्यंजन :- 

स्पर्श का अर्थ होता है -छूना। जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं।
इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।
ये 25 व्यंजन होते है
(1)कवर्ग- क ख ग घ ङ ये कण्ठ का स्पर्श करते है।
(2)चवर्ग- च छ ज झ ञ ये तालु का स्पर्श करते है।
(3)टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्श करते है।
(4)तवर्ग- त थ द ध न ये दाँतो का स्पर्श करते है।
(5) पवर्ग- प फ ब भ म ये होठों का स्पर्श करते है।

(2)अन्तःस्थ व्यंजन :- 

'अन्तः' का अर्थ होता है- 'भीतर'। उच्चारण के समय जो व्यंजन मुँह के भीतर ही रहे उन्हें अन्तःस्थ व्यंजन कहते है।
अन्तः = मध्य/बीच, स्थ = स्थित। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है। उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।
ये व्यंजन चार होते है- य, र, ल, व। इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं।

(3)उष्म व्यंजन :- 

उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्म व्यंजन कहते है।
ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख से गर्म हवा निकलती है।
उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है- श, ष, स, ह।

उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण

व्यंजनों का उच्चारण करते समय हवा मुख के अलग-अलग भागों से टकराती है। उच्चारण के अंगों के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है :
(i) कंठ्य (गले से) - क, ख, ग, घ, ङ
(ii) तालव्य (कठोर तालु से) - च, छ, ज, झ, ञ, य, श
(iii) मूर्धन्य (कठोर तालु के अगले भाग से) - ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, ष
(iv) दंत्य (दाँतों से) - त, थ, द, ध, न
(v) वर्त्सय (दाँतों के मूल से) - स, ज, र, ल
(vi) ओष्ठय (दोनों होंठों से) - प, फ, ब, भ, म
(vii) दंतौष्ठय (निचले होंठ व ऊपरी दाँतों से) - व, फ
(viii) स्वर यंत्र से - ह

श्वास (प्राण-वायु) की मात्रा के आधार पर वर्ण-भेद

उच्चारण में वायुप्रक्षेप की दृष्टि से व्यंजनों के दो भेद हैं-
(1) अल्पप्राण (2) महाप्राण

(1) अल्पप्राण :-

जिनके उच्चारण में श्वास पुरव से अल्प मात्रा में निकले और जिनमें 'हकार'-जैसी ध्वनि नहीं होती, उन्हें अल्पप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा कम होती है, वे अल्पप्राण कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं।
जैसे- क, ग, ङ; ज, ञ; ट, ड, ण; त, द, न; प, ब, म,।
अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही हैं।

(2) महाप्राण:-

जिनके उच्चारण में 'हकार'-जैसी ध्वनि विशेषरूप से रहती है और श्वास अधिक मात्रा में निकलती हैं। उन्हें महाप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की मात्रा अधिक होती है, वे महाप्राण कहलाते हैं।
प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं।
जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह।
संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता हैं।

संयुक्त व्यंजन :- 

जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के मेल से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।
ये संख्या में चार हैं :
क्ष = क् + ष + अ = क्ष (रक्षक, भक्षक, क्षोभ, क्षय)
त्र = त् + र् + अ = त्र (पत्रिका, त्राण, सर्वत्र, त्रिकोण)
ज्ञ = ज् + ञ + अ = ज्ञ (सर्वज्ञ, ज्ञाता, विज्ञान, विज्ञापन)
श्र = श् + र् + अ = श्र (श्रीमती, श्रम, परिश्रम, श्रवण)
संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।

द्वित्व व्यंजन :- 

जब एक व्यंजन का अपने समरूप व्यंजन से मेल होता है, तब वह द्वित्व व्यंजन कहलाता हैं।
जैसे- क् + क = पक्का
च् + च = कच्चा
म् + म = चम्मच
त् + त = पत्ता
द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।

संयुक्ताक्षर :- 

जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं।
जैसे- क् + त = क्त = संयुक्त
स् + थ = स्थ = स्थान
स् + व = स्व = स्वाद
द् + ध = द्ध = शुद्ध
यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते।

वर्णों की मात्राएँ

व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें 'मात्राएँ' कहते हैं।
दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के इन रूपों को भी 'मात्रा' कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।
ये मात्राएँ दस है; जैसे- ा े, ै ो ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि। स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।

घोष और अघोष व्यंजन

(1) घोष व्यंजन:- 
नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष कहलाते हैं।
(2)अघोष व्यंजन:- 
नाद की दृष्टि से जिन व्यंजनवर्णों के उच्चारण में स्वरतन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं।
'घोष' में केवल नाद का उपयोग होता हैं, जबकि 'अघोष' में केवल श्र्वास का। उदाहरण के लिए-
अघोष वर्ण- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ, श, ष, स।
घोष वर्ण- प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ वर्ण, सारे स्वरवर्ण, य, र, ल, व और ह।
हल्
हल्- व्यंजनों के नीचे जब एक तिरछी रेखा लगाई जाय, तब उसे हल् कहते हैं।
'हल्' लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा हैं।
जैसे- 'क' व्यंजनवर्ण हैं, इसमें 'अ' स्वरवर्ण की ध्वनि छिपी हैं।
यदि हम इस ध्वनि को बिलकुल अलग कर देना चाहें, तो 'क' में हलन्त या हल् चिह्न लगाना आवश्यक होगा। ऐसी स्थिति में इसके रूप इस प्रकार होंगे- क्, ख्, ग्, च् ।

हिन्दी के नये वर्ण:

हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़ - जोड़े गये हैं। किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे- क्+ष =क्ष; त्+र=त्र; ज्+ञ=ज्ञ।
अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये हैं। ये संयुक्त व्यंजन हैं।
यहाँ ड़-ढ़ में 'र' की ध्वनि मिली हैं। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्द्धा से होता हैं। किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्द्धा में लगाने से भी वे उच्चरित होते हैं।
हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्टा हैं। व्यंजनों के नीचे बिन्दु लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं। जैसे- कलम, खैर, जरूरत। किन्तु हिन्दी के विद्वानों (पं० किशोरीदास वाजपेयी, पराड़करजी, टण्डनजी), काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन को यह स्वीकार नहीं हैं। इनका कहना है कि फारसी-अरबी से आये शब्दों के नीचे बिन्दी लगाये बिना इन शब्दों को अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप लिखा जाना चाहिए। बँगला और मराठी में भी ऐसा ही होता हैं।

वर्णों का उच्चारण

कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र भागों से बोला जाता हैं। इन्हें उच्चारणस्थान कहते हैं।
मुख के छह भाग हैं- कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दाँत, ओठ और नाक। हिन्दी के सभी वर्ण इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारणस्थान भित्र हैं, इसलिए वर्णों की निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-
कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग।
तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श।
मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष।
दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स।
ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग।
कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए,ऐ।
कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ और औ।
दन्तोष्ठय- दाँत से जीभ और ओठों के कुछ योग से बोला जानेवाला वर्ण- व।

स्वरवर्णो का उच्चारण

'अ' का उच्चारण- यह कण्ठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं। जैसे- क्+अ=क। जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं।
हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम 'अ' लगे वर्ण का उच्चारण हलन्त-सा होता हैं। जैसे- नमक्, रात्, दिन्, मन्, रूप्, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।
इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण संयुक्त हो, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।
इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ऊ के बाद 'य' आए, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।
'ऐ' और 'औ' का उच्चारण-'ऐ' का उच्चारण कण्ठ और तालु से और 'औ' का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं। संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भित्र होता हैं। जहाँ संस्कृत में 'ऐ' का उच्चारण 'अइ' और 'औ' का उच्चारण 'अउ' की तरह होता हैं, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः 'अय' और 'अव' के समान होता हैं। अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भित्र हैं। जैसे-
संस्कृत मेंहिन्दी में
श्अइल- शैल (अइ)ऐसा- अयसा (अय)
क्अउतुक- कौतुक (अउ)कौन-क्अवन (अव)

व्यंजनों का उच्चारण

'व' और 'ब' का उच्चारण-'व' का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से 'व' का उच्चारण होता है और 'ब' का उच्चारण दो ओठों के मेल से होता हैं। हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। नतीजा यह होता हैं कि लिखने और बोलने में भद्दी भूलें हो जाया करती हैं। 'वेद' को 'बेद' और 'वायु' को 'बायु' कहना भद्दा लगता हैं।
संस्कृत में 'ब' का प्रयोग बहुत कम होता हैं, हिन्दी में बहुत अधिक। यही कारण है कि संस्कृत के तत्सम शब्दों में प्रयुक्त 'व' वर्ण को हिन्दी में 'ब' लिख दिया जाता हैं। बात यह है कि हिन्दीभाषी बोलचाल में भी 'व' और 'ब' का उच्चारण एक ही तरह करते हैं। इसलिए लिखने में भूल हो जाया करती हैं। इसके फलस्वरूप शब्दों का अशुद्ध प्रयोग हो जाता हैं। इससे अर्थ का अनर्थ भी होता हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
(i) वास- रहने का स्थान, निवास। बास- सुगन्ध, गुजर। (ii) वंशी- मुरली। बंशी- मछली फँसाने का यन्त्र।
(iii) वेग- गति। बेग- थैला (अँगरेजी), कपड़ा (अरबी), तुर्की की एक पदवी।
(iv) वाद- मत। बाद- उपरान्त, पश्रात।
(v) वाह्य- वहन करने (ढोय) योग्य। बाह्य- बाहरी।
सामान्यतः हिन्दी की प्रवृत्ति 'ब' लिखने की ओर हैं। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोशों में एक ही शब्द के दोनों रूप दिये गये हैं। बँगला में तो एक ही 'ब' (व) है, 'व' नहीं। लेकिन, हिन्दी में यह स्थिति नहीं हैं। यहाँ तो 'वहन' और 'बहन' का अन्तर बतलाने के लिए 'व' और 'ब' के अस्तित्व को बनाये रखने की आवश्यकता हैं।

'ड़' और 'ढ़' का उच्चारण-

हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में 'ड' और 'ढ' के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। वास्तव में ये वैदिक वर्णों क और क्ह के विकसित रूप हैं। इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उश्रिप्प (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़।

श-ष-स का उच्चारण-

ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।
'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर 'ष' के उच्चारण में जिह्ना मूर्द्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव 'श' तालव्य वर्ण है और 'ष' मूर्धन्य वर्ण। हिन्दी में अब 'ष' का उच्चारण 'श' के समान होता हैं। 'ष' वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से 'ष' का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है; जैसे- अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।
'श' और 'स' के उच्चारण में भेद स्पष्ट हैं। जहाँ 'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है, वहाँ 'स' के उच्चारण में जिह्ना दाँत को स्पर्श करती है। 'श' वर्ण सामान्यतया संस्कृत, फारसी, अरबी और अँगरेजी के शब्दों में पाया जाता है; जैसे- पशु, अंश, शराब, शीशा, लाश, स्टेशन, कमीशन इत्यादि। हिन्दी की बोलियों में श, ष का स्थान 'स' ने ले लिया है। 'श' और 'स' के अशुद्ध उच्चारण से गलत शब्द बन जाते है और उनका अर्थ ही बदल जाता है। अर्थ और उच्चारण के अन्तर को दिखलानेवाले कुछ उदाहरण इस प्रकार है-
अंश (भाग)- अंस (कन्धा) । शकल (खण्ड)- सकल (सारा) । शर (बाण)- सर (तालाब) । शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित) । श्र्व (कुत्ता)- स्व (अपना) । शान्त (धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।

'ड' और 'ढ' का उच्चारण-

इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।
जैसे- डाका, डमरू, ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में।
गड्ढा, खड्ढा- द्वित्व में।
डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्रात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।
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संज्ञा (Noun) की परिभाषा

संज्ञा उस विकारी शब्द को कहते है, जिससे किसी विशेष वस्तु, भाव और जीव के नाम का बोध हो, उसे संज्ञा कहते है।
दूसरे शब्दों में- किसी प्राणी, वस्तु, स्थान, गुण या भाव के नाम को संज्ञा कहते है।
जैसे- प्राणियों के नाम- मोर, घोड़ा, अनिल, किरण, जवाहरलाल नेहरू आदि।
वस्तुओ के नाम- अनार, रेडियो, किताब, सन्दूक, आदि।
स्थानों के नाम- कुतुबमीनार, नगर, भारत, मेरठ आदि
भावों के नाम- वीरता, बुढ़ापा, मिठास आदि
यहाँ 'वस्तु' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है, जो केवल वाणी और पदार्थ का वाचक नहीं, वरन उनके धर्मो का भी सूचक है।
साधारण अर्थ में 'वस्तु' का प्रयोग इस अर्थ में नहीं होता। अतः वस्तु के अन्तर्गत प्राणी, पदार्थ और धर्म आते हैं। इन्हीं के आधार पर संज्ञा के भेद किये गये हैं।

संज्ञा के भेद

संज्ञा के पाँच भेद होते है-
(1) व्यक्तिवाचक (proper noun ) 
(2) जातिवाचक (common noun)
(3) भाववाचक (abstract noun)
(4) समूहवाचक (collective noun)
(5) द्रव्यवाचक (material noun)

(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा:-

जिस शब्द से किसी विशेष व्यक्ति, वस्तु या स्थान के नाम का बोध हो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं। 
जैसे-
व्यक्ति का नाम-रवीना, सोनिया गाँधी, श्याम, हरि, सुरेश, सचिन आदि।
वस्तु का नाम- कार, टाटा चाय, कुरान, गीता रामायण आदि।
स्थान का नाम-ताजमहल, कुतुबमीनार, जयपुर आदि।
दिशाओं के नाम- उत्तर, पश्र्चिम, दक्षिण, पूर्व।
देशों के नाम- भारत, जापान, अमेरिका, पाकिस्तान, बर्मा।
राष्ट्रीय जातियों के नाम- भारतीय, रूसी, अमेरिकी।
समुद्रों के नाम- काला सागर, भूमध्य सागर, हिन्द महासागर, प्रशान्त महासागर।
नदियों के नाम- गंगा, ब्रह्मपुत्र, बोल्गा, कृष्णा, कावेरी, सिन्धु।
पर्वतों के नाम- हिमालय, विन्ध्याचल, अलकनन्दा, कराकोरम।
नगरों, चौकों और सड़कों के नाम- वाराणसी, गया, चाँदनी चौक, हरिसन रोड, अशोक मार्ग।
पुस्तकों तथा समाचारपत्रों के नाम- रामचरितमानस, ऋग्वेद, धर्मयुग, इण्डियन नेशन, आर्यावर्त।
ऐतिहासिक युद्धों और घटनाओं के नाम- पानीपत की पहली लड़ाई, सिपाही-विद्रोह, अक्तूबर-क्रान्ति।
दिनों, महीनों के नाम- मई, अक्तूबर, जुलाई, सोमवार, मंगलवार।
त्योहारों, उत्सवों के नाम- होली, दीवाली, रक्षाबन्धन, विजयादशमी।

(2) जातिवाचक संज्ञा :- 

बच्चा, जानवर, नदी, अध्यापक, बाजार, गली, पहाड़, खिड़की, स्कूटर आदि शब्द एक ही प्रकार प्राणी, वस्तु और स्थान का बोध करा रहे हैं। इसलिए ये 'जातिवाचक संज्ञा' हैं।
इस प्रकार-
जिस शब्द से किसी जाति के सभी प्राणियों या प्रदार्थो का बोध होता है, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- लड़का, पशु-पक्षयों, वस्तु, नदी, मनुष्य, पहाड़ आदि।
'लड़का' से राजेश, सतीश, दिनेश आदि सभी 'लड़कों का बोध होता है।
'पशु-पक्षयों' से गाय, घोड़ा, कुत्ता आदि सभी जाति का बोध होता है।
'वस्तु' से मकान कुर्सी, पुस्तक, कलम आदि का बोध होता है।
'नदी' से गंगा यमुना, कावेरी आदि सभी नदियों का बोध होता है।
'मनुष्य' कहने से संसार की मनुष्य-जाति का बोध होता है।
'पहाड़' कहने से संसार के सभी पहाड़ों का बोध होता हैं।

(3)भाववाचक संज्ञा :-

थकान, मिठास, बुढ़ापा, गरीबी, आजादी, हँसी, चढ़ाई, साहस, वीरता आदि शब्द-भाव, गुण, अवस्था तथा क्रिया के व्यापार का बोध करा रहे हैं। इसलिए ये 'भाववाचक संज्ञाएँ' हैं।
इस प्रकार-
जिन शब्दों से किसी प्राणी या पदार्थ के गुण, भाव, स्वभाव या अवस्था का बोध होता है, उन्हें भाववाचक संज्ञा कहते हैं।
जैसे- उत्साह, ईमानदारी, बचपन, आदि । इन उदाहरणों में 'उत्साह'से मन का भाव है। 'ईमानदारी' से गुण का बोध होता है। 'बचपन' जीवन की एक अवस्था या दशा को बताता है। अतः उत्साह, ईमानदारी, बचपन, आदि शब्द भाववाचक संज्ञाए हैं।
हर पदार्थ का धर्म होता है। पानी में शीतलता, आग में गर्मी, मनुष्य में देवत्व और पशुत्व इत्यादि का होना आवश्यक है। पदार्थ का गुण या धर्म पदार्थ से अलग नहीं रह सकता। घोड़ा है, तो उसमे बल है, वेग है और आकार भी है। व्यक्तिवाचक संज्ञा की तरह भाववाचक संज्ञा से भी किसी एक ही भाव का बोध होता है। 'धर्म, गुण, अर्थ' और 'भाव' प्रायः पर्यायवाची शब्द हैं। इस संज्ञा का अनुभव हमारी इन्द्रियों को होता है और प्रायः इसका बहुवचन नहीं होता।
भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण
भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण जातिवाचक संज्ञा, विशेषण, क्रिया, सर्वनाम और अव्यय शब्दों से बनती हैं। भाववाचक संज्ञा बनाते समय शब्दों के अंत में प्रायः पन, त्व, ता आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
(1) जातिवाचक संज्ञा से भाववाचक संज्ञा बनाना
जातिवाचक संज्ञाभाववाचक संज्ञा
स्त्री-स्त्रीत्व
मनुष्य-मनुष्यता
शास्त्र-शास्त्रीयता
पशु-पशुता
दनुज-दनुजता
पात्र-पात्रता
लड़का-लड़कपन
दास-दासत्व
अध्यापक-अध्यापन
भाई-भाईचारा
पुरुष-पुरुषत्व, पौरुष
जाति-जातीयता
बच्चा-बचपन
नारी-नारीत्व
बूढा-बुढ़ापा
मित्र-मित्रता
पण्डित-पण्डिताई
सेवक-सेवा

 (2) विशेषण से भाववाचक संज्ञा बनाना

विशेषणभाववाचक संज्ञा
लघु-लघुता, लघुत्व, लाघव
एक-एकता, एकत्व
खट्टा-खटाई
गँवार-गँवारपन
बूढा-बुढ़ापा
नवाब-नवाबी
बड़ा-बड़ाई
भला-भलाई
ढीठ-ढिठाई
लाल-लाली, लालिमा
सरल-सरलता, सारल्य
परिश्रमी-परिश्रम
गंभीर-गंभीरता, गांभीर्य
स्पष्ट-स्पष्टता
अधिक-अधिकता, आधिक्य
सर्द-सर्दी
मीठा-मिठास
सफेद-सफेदी
मूर्ख-मूर्खता
वीर-वीरता, वीरत्व
चालाक-चालाकी
गरीब-गरीबी
पागल-पागलपन
मोटा-मोटापा
दीन-दीनता, दैन्य
सुंदर-सौंदर्य, सुंदरता
बुरा-बुराई
चौड़ा-चौड़ाई
बेईमान-बेईमानी
आवश्यकता-आवश्यकता
अच्छा-अच्छाई
सभ्य-सभ्यता
भावुक-भावुकता
गर्म-गर्मी
कठोर-कठोरता
चतुर-चतुराई
श्रेष्ठ-श्रेष्ठता
राष्ट्रीयराष्ट्रीयता

 (3) क्रिया से भाववाचक संज्ञा बनाना

क्रियाभाववाचक संज्ञा
खोजना-खोज
जीतना-जीत
लड़ना-लड़ाई
चलना-चाल, चलन
देखना-दिखावा, दिखावट
सींचना-सिंचाई
पहनना-पहनावा
लूटना-लूट
घटना-घटाव
बोलना-बोल
झूलना-झूला
कमाना-कमाई
रुकना-रुकावट
मिलना-मिलावट
भूलना-भूल
बैठना-बैठक, बैठकी
घेरना-घेरा
फिसलना-फिसलन
रँगना-रँगाई, रंगत
उड़ना-उड़ान
मुड़ना-मोड़
चढ़ना-चढाई
मारना-मार
गिरना-गिरावट
सीना-सिलाई
रोना-रुलाई
पढ़ना-पढ़ाई
पीटना-पिटाई
समझना-समझ
पड़ना-पड़ाव
चमकना-चमक
जोड़ना-जोड़
नाचना-नाच
पूजना-पूजन
जोतना-जुताई
बचना-बचाव
बनना-बनावट
बुलाना-बुलावा
छापना-छापा, छपाई
बढ़ना-बाढ़
छींकना-छींक
खपना-खपत
मुसकाना-मुसकान
घबराना-घबराहट
सजाना-सजावट
बहना-बहाव
दौड़ना-दौड़
कूदना-कूद
(4) संज्ञा से विशेषण बनाना
संज्ञाविशेषण
अंत-अंतिम, अंत्य
अवश्य-आवश्यक
अभिमान-अभिमानी
इच्छा-ऐच्छिक
ईश्र्वर-ईश्र्वरीय
उन्नति-उन्नत
काम-कामी, कामुक
कुल-कुलीन
क्रम-क्रमिक
किताब-किताबी
कंकड़-कंकड़ीला
क्रोध-क्रोधी
आसमान-आसमानी
आदि-आदिम
अपराध-अपराधी
जवाब-जवाबी
जाति-जातीय
झगड़ा-झगड़ालू
तेल-तेलहा
दान-दानी
दया-दयालु
दूध-दुधिया, दुधार
धर्म-धार्मिक
खपड़ा-खपड़ैल
खर्च-खर्चीला
गाँव-गँवारू, गँवार
गुण-गुणी, गुणवान
घमंड-घमंडी
चुनाव-चुनिंदा, चुनावी
पश्र्चिम-पश्र्चिमी
पेट-पेटू
प्यास-प्यासा
पुस्तक-पुस्तकीय
प्रमाण-प्रमाणिक
पिता-पैतृक
बालक-बालकीय
भ्रम-भ्रामक, भ्रांत
भूगोल-भौगोलिक
मन-मानसिक
माह-माहवारी
मुख-मौखिक
नियम-नियमित
निश्र्चय-निश्र्चित
नौ-नाविक
पाठ-पाठ्य
पीड़ा-पीड़ित
पहाड़-पहाड़ी
राष्ट्र-राष्ट्रीय
लोक-लौकिक
वेद-वैदिक
व्यापर-व्यापारिक
विस्तार-विस्तृत
विज्ञान-वैज्ञानिक
विष्णु-वैष्णव
शास्त्र-शास्त्रीय
समय-सामयिक
सिद्धांत-सैद्धांतिक
स्वास्थ्य-स्वस्थ
मामा-ममेरा
मैल-मैला
रंग-रंगीन, रँगीला
साल-सालाना
समाज-सामाजिक
स्वर्ग-स्वर्गीय, स्वर्गिक
समुद्र-सामुद्रिक, समुद्री
सुर-सुरीला
क्षण-क्षणिक
अर्थ-आर्थिक
अंश-आंशिक
अनुभव-अनुभवी
इतिहास-ऐतिहासिक
उपज-उपजाऊ
कृपा-कृपालु
काल-कालीन
केंद्र-केंद्रीय
कागज-कागजी
काँटा-कँटीला
कमाई-कमाऊ
आवास-आवासीय
आयु-आयुष्मान
अज्ञान-अज्ञानी
चाचा-चचेरा
जहर-जहरीला
जंगल-जंगली
तालु-तालव्य
देश-देशी
दिन-दैनिक
दर्द-दर्दनाक
धन-धनी, धनवान
नीति-नैतिक
खेल-खेलाड़ी
खून-खूनी
गठन-गठीला
घर-घरेलू
घाव-घायल
चार-चौथा
पूर्व-पूर्वी
प्यार-प्यारा
पशु-पाशविक
पुराण-पौराणिक
प्रकृति-प्राकृतिक
प्रांत-प्रांतीय
बर्फ-बर्फीला
भोजन-भोज्य
भारत-भारतीय
मास-मासिक
माता-मातृक
नगर-नागरिक
नाम-नामी, नामक
न्याय-न्यायी
नमक-नमकीन
पूजा-पूज्य, पूजित
पत्थर-पथरीला
रोग-रोगी
रस-रसिक
लोभ-लोभी
वर्ष-वार्षिक
विष-विषैला
विवाह-वैवाहिक
विलास-विलासी
शरीर-शारीरिक
साहित्य-साहित्यिक
स्वभाव-स्वाभाविक
स्वार्थ-स्वार्थी
स्वर्ण-स्वर्णिम
मर्द-मर्दाना
मधु-मधुर
रोज-रोजाना
सुख-सुखी
संसार-सांसारिक
सप्ताह-सप्ताहिक
संक्षेप-संक्षिप्त
सोना-सुनहरा
हवा-हवाई
 (5) क्रिया से विशेषण बनाना
क्रियाविशेषण
लड़ना-लड़ाकू
अड़ना-अड़ियल
लूटना-लुटेरा
पीना-पियक्कड़
जड़ना-जड़ाऊ
पालना-पालतू
टिकना-टिकाऊ
बिकना-बिकाऊ
भागना-भगोड़ा
देखना-दिखाऊ
भूलना-भुलक्कड़
तैरना-तैराक
गाना-गवैया
झगड़ना-झगड़ालू
चाटना-चटोर
पकना-पका
 (6) सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा बनाना
सर्वनामभाववाचक संज्ञा
अपना-अपनापन /अपनाव
निज-निजत्व, निजता
स्व-स्वत्व
अहं-अहंकार
मम-ममता/ ममत्व
पराया-परायापन
सर्व-सर्वस्व
आप-आपा
 (7) क्रिया विशेषण से भाववाचक संज्ञा
मन्द- मन्दी;
दूर- दूरी;
तीव्र- तीव्रता;
शीघ्र- शीघ्रता इत्यादि।
(8) अव्यय से भाववाचक संज्ञा
परस्पर- पारस्पर्य;
समीप- सामीप्य;
निकट- नैकट्य;
शाबाश- शाबाशी;
वाहवाह- वाहवाही
धिक्- धिक्कार
शीघ्र- शीघ्रता

(4)समूहवाचक संज्ञा :- 

जिस संज्ञा शब्द से वस्तुअों के समूह या समुदाय का बोध हो, उसे समूहवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- व्यक्तियों का समूह- भीड़, जनता, सभा, कक्षा; वस्तुओं का समूह- गुच्छा, कुंज, मण्डल, घौद।

(5)द्रव्यवाचक संज्ञा :-

जिस संज्ञा से नाप-तौलवाली वस्तु का बोध हो, उसे द्रव्यवाचक संज्ञा कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन संज्ञा शब्दों से किसी धातु, द्रव या पदार्थ का बोध हो, उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते है।
जैसे- ताम्बा, पीतल, चावल, घी, तेल, सोना, लोहा आदि।

संज्ञाओं का प्रयोग

संज्ञाओं के प्रयोग में कभी-कभी उलटफेर भी हो जाया करता है। कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे है-
(क) जातिवाचक : व्यक्तिवाचक- 
कभी- कभी जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं में होता है। जैसे- 'पुरी' से जगत्राथपुरी का 'देवी' से दुर्गा का, 'दाऊ' से कृष्ण के भाई बलदेव का, 'संवत्' से विक्रमी संवत् का, 'भारतेन्दु' से बाबू हरिश्र्चन्द्र का और 'गोस्वामी' से तुलसीदासजी का बोध होता है। इसी तरह बहुत-सी योगरूढ़ संज्ञाएँ मूल रूप से जातिवाचक होते हुए भी प्रयोग में व्यक्तिवाचक के अर्थ में चली आती हैं। जैसे- गणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल इत्यादि।
(ख) व्यक्तिवाचक : जातिवाचक- 
कभी-कभी व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक (अनेक व्यक्तियों के अर्थ) में होता है। ऐसा किसी व्यक्ति का असाधारण गुण या धर्म दिखाने के लिए किया जाता है। ऐसी अवस्था में व्यक्तिवाचक संज्ञा जातिवाचक संज्ञा में बदल जाती है। जैसे- गाँधी अपने समय के कृष्ण थे; यशोदा हमारे घर की लक्ष्मी है; तुम कलियुग के भीम हो इत्यादि।
(ग) भाववाचक : जातिवाचक- 
कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में होता है। उदाहरणार्थ- ये सब कैसे अच्छे पहरावे है। यहाँ 'पहरावा' भाववाचक संज्ञा है, किन्तु प्रयोग जातिवाचक संज्ञा में हुआ। 'पहरावे' से 'पहनने के वस्त्र' का बोध होता है।
संज्ञा के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक में सम्बन्ध)
संज्ञा विकारी शब्द है। विकार शब्दरूपों को परिवर्तित अथवा रूपान्तरित करता है। संज्ञा के रूप लिंग, वचन और कारक चिह्नों (परसर्ग) के कारण बदलते हैं।

लिंग के अनुसार

नर खाता है- नारी खाती है।
लड़का खाता है- लड़की खाती है।
इन वाक्यों में 'नर' पुंलिंग है और 'नारी' स्त्रीलिंग। 'लड़का' पुंलिंग है और 'लड़की' स्त्रीलिंग। इस प्रकार, लिंग के आधार पर संज्ञाओं का रूपान्तर होता है।

वचन के अनुसार

लड़का खाता है- लड़के खाते हैं।
लड़की खाती है- लड़कियाँ खाती हैं।
एक लड़का जा रहा है- तीन लड़के जा रहे हैं।
इन वाक्यों में 'लड़का' शब्द एक के लिए आया है और 'लड़के' एक से अधिक के लिए। 'लड़की' एक के लिए और 'लड़कियाँ' एक से अधिक के लिए व्यवहृत हुआ है। यहाँ संज्ञा के रूपान्तर का आधार 'वचन' है। 'लड़का' एकवचन है और 'लड़के' बहुवचन में प्रयुक्त हुआ है।

कारक- चिह्नों के अनुसार

लड़का खाना खाता है- लड़के ने खाना खाया।
लड़की खाना खाती है- लड़कियों ने खाना खाया।
इन वाक्यों में 'लड़का खाता है' में 'लड़का' पुंलिंग एकवचन है और 'लड़के ने खाना खाया' में भी 'लड़के' पुंलिंग एकवचन है, पर दोनों के रूप में भेद है। इस रूपान्तर का कारण कर्ता कारक का चिह्न 'ने' है, जिससे एकवचन होते हुए भी 'लड़के' रूप हो गया है। इसी तरह, लड़के को बुलाओ, लड़के से पूछो, लड़के का कमरा, लड़के के लिए चाय लाओ इत्यादि वाक्यों में संज्ञा (लड़का-लड़के) एकवचन में आयी है। इस प्रकार, संज्ञा बिना कारक-चिह्न के भी होती है और कारक चिह्नों के साथ भी। दोनों स्थितियों में संज्ञाएँ एकवचन में अथवा बहुवचन में प्रयुक्त होती है। उदाहरणार्थ-
बिना कारक-चिह्न के- लड़के खाना खाते हैं। (बहुवचन)
लड़कियाँ खाना खाती हैं। (बहुवचन)
कारक-चिह्नों के साथ- लड़कों ने खाना खाया।
लड़कियों ने खाना खाया।
लड़कों से पूछो।
लड़कियों से पूछो।
इस प्रकार, संज्ञा का रूपान्तर लिंग, वचन और कारक के कारण होता है।





सर्वनाम (Pronoun)की परिभाषा

जिन शब्दों का प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है, उन्हें सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में- सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते है, जो पूर्वापरसंबध से किसी भी संज्ञा के बदले आता है।
सरल शब्दों में- सर्व (सब) नामों (संज्ञाओं) के बदले जो शब्द आते है, उन्हें 'सर्वनाम' कहते हैं।
सर्वनाम यानी सबके लिए नाम। इसका प्रयोग संज्ञा के स्थान पर किया जाता है। आइए देखें, कैसे? राधा सातवीं कक्षा में पढ़ती है। वह पढ़ाई में बहुत तेज है। उसके सभी मित्र उससे प्रसन्न रहते हैं। वह कभी-भी स्वयं पर घमंड नहीं करती। वह अपने माता-पिता का आदर करती है।
आपने देखा कि ऊपर लिखे अनुच्छेद में राधा के स्थान पर वह, उसके, उससे, स्वयं, अपने आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। अतः ये सभी शब्द सर्वनाम हैं।
इस प्रकार,
संज्ञा के स्थान पर आने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं।
मै, तू, वह, आप, कोई, यह, ये, वे, हम, तुम, कुछ, कौन, क्या, जो, सो, उसका आदि सर्वनाम शब्द हैं। अन्य सर्वनाम शब्द भी इन्हीं शब्दों से बने हैं, जो लिंग, वचन, कारक की दृष्टि से अपना रूप बदलते हैं; जैसे-
राधा नृत्य करती है। राधा का गाना भी अच्छा होता है। राधा गरीबों की मदद करती है।
राधा नृत्य करती है। उसका गाना भी अच्छा होता है। वह गरीबों की मदद करती है।
आप- अपना, यह- इस, इसका, वह- उस, उसका।
अन्य उदाहरण
(1)'सुभाष' एक विद्यार्थी है।
(2)वह (सुभाष) रोज स्कूल जाता है।
(3)उसके (सुभाष के) पास सुन्दर बस्ता है।
(4)उसे (सुभाष को )घूमना बहुत पसन्द है।
उपयुक्त वाक्यों में 'सुभाष' शब्द संज्ञा है तथा इसके स्थान पर वह, उसके, उसे शब्द संज्ञा (सुभाष) के स्थान पर प्रयोग किये गए है। इसलिए ये सर्वनाम है।
संज्ञा की अपेक्षा सर्वनाम की विलक्षणता यह है कि संज्ञा से जहाँ उसी वस्तु का बोध होता है, जिसका वह (संज्ञा) नाम है, वहाँ सर्वनाम में पूर्वापरसम्बन्ध के अनुसार किसी भी वस्तु का बोध होता है। 'लड़का' कहने से केवल लड़के का बोध होता है, घर, सड़क आदि का बोध नहीं होता; किन्तु 'वह' कहने से पूर्वापरसम्बन्ध के अनुसार ही किसी वस्तु का बोध होता है।
सर्वनाम के भेद
सर्वनाम के छ: भेद होते है-
(1) पुरुषवाचक सर्वनाम (personal pronoun)
(2) निश्चयवाचक सर्वनाम (demonstrative pronoun)
(3) अनिश्चयवाचक सर्वनाम (Indefinite pronoun)
(4) संबंधवाचक सर्वनाम (Relative Pronoun)
(5) प्रश्नवाचक सर्वनाम (Interrogative Pronoun)
(6) निजवाचक सर्वनाम (Reflexive Pronoun)

(1) पुरुषवाचक सर्वनाम:-

जिन सर्वनाम शब्दों से व्यक्ति का बोध होता है, उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में- बोलने वाले, सुनने वाले तथा जिसके विषय में बात होती है, उनके लिए प्रयोग किए जाने वाले सर्वनाम पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं।
'पुरुषवाचक सर्वनाम' पुरुषों (स्त्री या पुरुष) के नाम के बदले आते हैं।
जैसे- मैं आता हूँ। तुम जाते हो। वह भागता है।
उपर्युक्त वाक्यों में 'मैं, तुम, वह' पुरुषवाचक सर्वनाम हैं।
पुरुषवाचक सर्वनाम के प्रकार
पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते है-
(i)उत्तम पुरुष 
(ii)मध्यम पुरुष 
(iii)अन्य पुरुष
(i)उत्तम पुरुष :-
जिन सर्वनामों का प्रयोग बोलने वाला अपने लिए करता है, उन्हें उत्तम पुरुष कहते है।
जैसे- मैं, हमारा, हम, मुझको, हमारी, मैंने, मेरा, मुझे आदि।
उदाहरण- मैं स्कूल जाऊँगा।
हम मतदान नहीं करेंगे।
यह कविता मैंने लिखी है।
बारिश में हमारी पुस्तकें भीग गई।
मैंने उसे धोखा नहीं दिया।
(ii) मध्यम पुरुष :-
जिन सर्वनामों का प्रयोग सुनने वाले के लिए किया जाता है, उन्हें मध्यम पुरुष कहते है।
जैसे- तू, तुम, तुम्हे, आप, तुम्हारे, तुमने, आपने आदि।
उदाहरण- तुमने गृहकार्य नहीं किया है।
तुम सो जाओ।
तुम्हारे पिता जी क्या काम करते हैं ?
तू घर देर से क्यों पहुँचा ?
तुमसे कुछ काम है।
(iii)अन्य पुरुष:-
जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है, उन्हें अन्य पुरुष कहते है।
जैसे- वे, यह, वह, इनका, इन्हें, उसे, उन्होंने, इनसे, उनसे आदि।
उदाहरण- वे मैच नही खेलेंगे।
उन्होंने कमर कस ली है।
वह कल विद्यालय नहीं आया था।
उसे कुछ मत कहना।
उन्हें रोको मत, जाने दो।
इनसे कहिए, अपने घर जाएँ।

(2) निश्चयवाचक सर्वनाम:- 

सर्वनाम के जिस रूप से हमे किसी बात या वस्तु का निश्चत रूप से बोध होता है, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस सर्वनाम से वक्ता के पास या दूर की किसी वस्तु के निश्र्चय का बोध होता है, उसे 'निश्र्चयवाचक सर्वनाम' कहते हैं।
सरल शब्दों में- जो सर्वनाम शब्द किसी निश्चित व्यक्ति, वस्तु अथवा घटना की ओर संकेत करे, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं।
जैसे- यह, वह, ये, वे आदि।
उदाहरण- पास की वस्तु के लिए- 'यह' कोई नया काम नहीं है; दूर की वस्तु के लिए- रोटी मत खाओ, क्योंकि 'वह' जली है।

(3) अनिश्चयवाचक सर्वनाम:-

जिस सर्वनाम शब्द से किसी निश्चित व्यक्ति या वस्तु का बोध न हो, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- कोई, कुछ, किसी आदि।
उदाहरण- 'कोई'- ऐसा न हो कि 'कोई' आ जाय;
'कुछ'- उसने 'कुछ' नहीं खाया।

(4)संबंधवाचक सर्वनाम :-

जिन सर्वनाम शब्दों का दूसरे सर्वनाम शब्दों से संबंध ज्ञात हो तथा जो शब्द दो वाक्यों को जोड़ते है, उन्हें संबंधवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- जो, जिसकी, सो, जिसने, जैसा, वैसा आदि।
उदाहरण- जैसा करेगा वैसा भरेगा।
जो परिश्रम करते हैं, वे सुखी रहते हैं।
वह 'जो' न करे, 'सो' थोड़ा

(5)प्रश्नवाचक सर्वनाम :-

जो सर्वनाम शब्द सवाल पूछने के लिए प्रयुक्त होते है, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते है।
सरल शब्दों में- प्रश्र करने के लिए जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, उन्हें 'प्रश्रवाचक सर्वनाम' कहते है।
जैसे- कौन, क्या, किसने आदि।
उदाहरण- टोकरी में क्या रखा है।
बाहर कौन खड़ा है।
तुम क्या खा रहे हो ?
यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि 'कौन' का प्रयोग चेतन जीवों के लिए और 'क्या' का प्रयोग जड़ पदार्थो के लिए होता है।

(6) निजवाचक सर्वनाम :-

'निज' का अर्थ होता है- अपना और 'वाचक का अर्थ होता है- बोध (ज्ञान) कराने वाला अर्थात 'निजवाचक' का अर्थ हुआ- अपनेपन का बोध कराना।
इस प्रकार,
जिन सर्वनाम शब्दों का प्रयोग कर्ता के साथ अपनेपन का ज्ञान कराने के लिए किया जाए, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते है।
जैसे- अपने आप, निजी, खुद आदि।
'आप' शब्द का प्रयोग पुरुषवाचक तथा निजवाचक सर्वनाम-दोनों में होता है।
उदाहरण- 
आप कल दफ्तर नहीं गए थे। (मध्यम पुरुष- आदरसूचक)
आप मेरे पिता श्री बसंत सिंह हैं। (अन्य पुरुष-आदरसूचक-परिचय देते समय)
ईश्वर भी उन्हीं का साथ देता है, जो अपनी मदद आप करता है। (निजवाचक सर्वनाम)
'निजवाचक सर्वनाम' का रूप 'आप' है। लेकिन पुरुषवाचक के अन्यपुरुषवाले 'आप' से इसका प्रयोग बिलकुल अलग है। यह कर्ता का बोधक है, पर स्वयं कर्ता का काम नहीं करता। पुरुषवाचक 'आप' बहुवचन में आदर के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे- आप मेरे सिर-आखों पर है; आप क्या राय देते है ? किन्तु, निजवाचक 'आप' एक ही तरह दोनों वचनों में आता है और तीनों पुरुषों में इसका प्रयोग किया जा सकता है।
निजवाचक सर्वनाम 'आप' का प्रयोग निम्नलिखित अर्थो में होता है-
(क) निजवाचक 'आप' का प्रयोग किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण (निश्र्चय) के लिए होता है। जैसे- मैं 'आप' वहीं से आया हूँ; मैं 'आप' वही कार्य कर रहा हूँ।
(ख) निजवाचक 'आप' का प्रयोग दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए भी होता है। जैसे- उन्होंने मुझे रहने को कहा और 'आप' चलते बने; वह औरों को नहीं, 'अपने' को सुधार रहा है।
(ग) सर्वसाधारण के अर्थ में भी 'आप' का प्रयोग होता है। जैसे- 'आप' भला तो जग भला; 'अपने' से बड़ों का आदर करना उचित है।
(घ) अवधारण के अर्थ में कभी-कभी 'आप' के साथ 'ही' जोड़ा जाता है। जैसे- मैं 'आप ही' चला आता था; यह काम 'आप ही'; मैं यह काम 'आप ही' कर लूँगा।
संयुक्त सर्वनाम
रूस के हिन्दी वैयाकरण डॉ० दीमशित्स ने एक और प्रकार के सर्वनाम का उल्लेख किया है और उसे 'संयुक्त सर्वनाम' कहा है। उन्हीं के शब्दों में, 'संयुक्त सर्वनाम' पृथक श्रेणी के सर्वनाम हैं। सर्वनाम के सब भेदों से इनकी भित्रता इसलिए है, क्योंकि उनमें एक शब्द नहीं, बल्कि एक से अधिक शब्द होते हैं। संयुक्त सर्वनाम स्वतन्त्र रूप से या संज्ञा-शब्दों के साथ भी प्रयुक्त होता है।
इसका उदाहरण कुछ इस प्रकार है- जो कोई, सब कोई, हर कोई, और कोई, कोई और, जो कुछ, सब कुछ, और कुछ, कुछ और, कोई एक, एक कोई, कोई भी, कुछ एक, कुछ भी, कोई-न-कोई, कुछ-न-कुछ, कुछ-कुछ, कोई-कोई इत्यादि।

सर्वनाम के रूपान्तर (लिंग, वचन और कारक)

सर्वनाम का रूपान्तर पुरुष, वचन और कारक की दृष्टि से होता है। इनमें लिंगभेद के कारण रूपान्तर नहीं होता। जैसे-
वह खाता है।
वह खाती है।
संज्ञाओं के समान सर्वनाम के भी दो वचन होते हैं- एकवचन और बहुवचन।
पुरुषवाचक और निश्र्चयवाचक सर्वनाम को छोड़ शेष सर्वनाम विभक्तिरहित बहुवचन में एकवचन के समान रहते हैं।
सर्वनाम में केवल सात कारक होते है। सम्बोधन कारक नहीं होता।
कारकों की विभक्तियाँ लगने से सर्वनामों के रूप में विकृति आ जाती है। जैसे-
मैं- मुझको, मुझे, मुझसे, मेरा; तुम- तुम्हें, तुम्हारा; हम- हमें, हमारा; वह- उसने, उसको उसे, उससे, उसमें, उन्होंने, उनको; यह- इसने, इसे, इससे, इन्होंने, इनको, इन्हें, इनसे; कौन- किसने, किसको, किसे।

सर्वनाम की कारक-रचना (रूप-रचना)

संज्ञा शब्दों की भाँति ही सर्वनाम शब्दों की भी रूप-रचना होती। सर्वनाम शब्दों के प्रयोग के समय जब इनमें कारक चिह्नों का प्रयोग करते हैं, तो इनके रूप में परिवर्तन आ जाता है।
('मैं' उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तामैं, मैंनेहम, हमने
कर्ममुझे, मुझकोहमें, हमको
करणमुझसेहमसे
सम्प्रदानमुझे, मेरे लिएहमें, हमारे लिए
अपादानमुझसेहमसे
सम्बन्धमेरा, मेरे, मेरीहमारा, हमारे, हमारी
अधिकरणमुझमें, मुझपरहममें, हमपर
('तू', 'तुम' मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तातू, तूनेतुम, तुमने, तुमलोगों ने
कर्मतुझको, तुझेतुम्हें, तुमलोगों को
करणतुझसे, तेरे द्वारातुमसे, तुम्हारे से, तुमलोगों से
सम्प्रदानतुझको, तेरे लिए, तुझेतुम्हें, तुम्हारे लिए, तुमलोगों के लिए
अपादानतुझसेतुमसे, तुमलोगों से
सम्बन्धतेरा, तेरी, तेरेतुम्हारा-री, तुमलोगों का-की
अधिकरणतुझमें, तुझपरतुममें, तुमलोगों में-पर
('वह' अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तावह, उसनेवे, उन्होंने
कर्मउसे, उसकोउन्हें, उनको
करणउससे, उसके द्वाराउनसे, उनके द्वारा
सम्प्रदानउसको, उसे, उसके लिएउनको, उन्हें, उनके लिए
अपादानउससेउनसे
सम्बन्धउसका, उसकी, उसकेउनका, उनकी, उनके
अधिकरणउसमें, उसपरउनमें, उनपर
('यह' निश्चयवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्तायह, इसनेये, इन्होंने
कर्मइसको, इसेये, इनको, इन्हें
करणइससेइनसे
सम्प्रदानइसे, इसकोइन्हें, इनको
अपादानइससेइनसे
सम्बन्धइसका, की, केइनका, की, के
अधिकरणइसमें, इसपरइनमें, इनपर
('आप' आदरसूचक)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताआपनेआपलोगों ने
कर्मआपकोआपलोगों को
करणआपसेआपलोगों से
सम्प्रदानआपको, के लिएआपलोगों को, के लिए
अपादानआपसेआपलोगों से
सम्बन्धआपका, की, केआपलोगों का, की, के
अधिकरणआप में, परआपलोगों में, पर
('कोई' अनिश्चयवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताकोई, किसनेकिन्हीं ने
कर्मकिसी कोकिन्हीं को
करणकिसी सेकिन्हीं से
सम्प्रदानकिसी को, किसी के लिएकिन्हीं को, किन्हीं के लिए
अपादानकिसी सेकिन्हीं से
सम्बन्धकिसी का, किसी की, किसी केकिन्हीं का, किन्हीं की, किन्हीं के
अधिकरणकिसी में, किसी परकिन्हीं में, किन्हीं पर
('जो' संबंधवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताजो, जिसनेजो, जिन्होंने
कर्मजिसे, जिसकोजिन्हें, जिनको
करणजिससे, जिसके द्वाराजिनसे, जिनके द्वारा
सम्प्रदानजिसको, जिसके लिएजिनको, जिनके लिए
अपादानजिससे (अलग होने)जिनसे (अलग होने)
संबंधजिसका, जिसकी, जिसकेजिनका, जिनकी, जिनके
अधिकरणजिसपर, जिसमेंजिनपर, जिनमें
('कौन' प्रश्नवाचक सर्वनाम)
कारकएकवचनबहुवचन
कर्ताकौन, किसनेकौन, किन्होंने
कर्मकिसे, किसको, किसकेकिन्हें, किनको, किनके
करणकिससे, किसके द्वाराकिनसे, किनके द्वारा
सम्प्रदानकिसके लिए, किसकोकिनके लिए, किनको
अपादानकिससे (अलग होने)किनसे (अलग होने)
संबंधकिसका, किसकी, किसकेकिनका, किनकी, किनके
अधिकरणकिसपर, किसमेंकिनपर, किनमें
सर्वनाम का पद-परिचय
सर्वनाम का पद-परिचय करते समय सर्वनाम, सर्वनाम का भेद, पुरुष, लिंग, वचन, कारक और अन्य पदों से उसका सम्बन्ध बताना पड़ता है।
उदाहरण- वह अपना काम करता है।
इस वाक्य में, 'वह' और 'अपना' सर्वनाम है। इनका पद-परिचय होगा-
वह- पुरुषवाचक सर्वनाम, अन्य पुरुष, पुलिंग, एकवचन, कर्ताकारक, 'करता है' क्रिया का कर्ता।
अपना- निजवाचक सर्वनाम, अन्यपुरुष, पुंलिंग, एकवचन, सम्बन्धकारक, 'काम' संज्ञा का विशेषण।

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कारक (Case) की परिभाषा

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं।
अथवा- संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) क्रिया से सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं।
इन दो 'परिभाषाओं' का अर्थ यह हुआ कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब 'ने', 'को', 'से' आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही 'कारक' कहलाता हैं।
तभी वे वाक्य के अन्य शब्दों से सम्बन्ध रखने योग्य 'पद' होते है और 'पद' की अवस्था में ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों से या क्रिया से कोई लगाव रख पाते हैं। 'ने', 'को', 'से' आदि विभित्र विभक्तियाँ विभित्र कारकों की है। इनके लगने पर ही कोई शब्द 'कारकपद' बन पाता है और वाक्य में आने योग्य होता है। 'कारकपद' या 'क्रियापद' बने बिना कोई शब्द वाक्य में बैठने योग्य नहीं होता।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा अथवा सर्वनाम को क्रिया से जोड़ने वाले चिह्न अथवा परसर्ग ही कारक कहलाते हैं।
जैसे- ''रामचन्द्रजी ने खारे जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बँधवा दिया।''
इस वाक्य में 'रामचन्द्रजी ने', 'समुद्र पर', 'बन्दरों से' और 'पुल' संज्ञाओं के रूपान्तर है, जिनके द्वारा इन संज्ञाओं का सम्बन्ध 'बँधवा दिया' क्रिया के साथ सूचित होता है।
दूसरा उदाहरण- 
श्रीराम ने रावण को बाण से मारा
इस वाक्य में प्रत्येक शब्द एक-दूसरे से बँधा है और प्रत्येक शब्द का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में क्रिया के साथ है।
यहाँ 'ने' 'को' 'से' शब्दों ने वाक्य में आये अनेक शब्दों का सम्बन्ध क्रिया से जोड़ दिया है। यदि ये शब्द न हो तो शब्दों का क्रिया के साथ तथा आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होगा। संज्ञा या सर्वनाम का क्रिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने वाला रूप कारक होता है।
कारक के भेद-
हिन्दी में कारको की संख्या आठ है-
(1) कर्ता कारक (Nominative case)
(2) कर्म कारक (Accusative case)
(3) करण कारक (Instrument case)
(4) सम्प्रदान कारक(Dative case)
(5) अपादान कारक(Ablative case)
(6) सम्बन्ध कारक (Gentive case)
(7) अधिकरण कारक (Locative case)
(8) संबोधन कारक(Vocative case)
कारक के विभक्ति चिन्ह
कारकों की पहचान के चिह्न व लक्षण निम्न प्रकार हैं-
कारकलक्षणचिह्नकारक-चिह्न या विभक्तियाँ
कर्ताजो काम करेंनेप्रथमा
कर्मजिस पर क्रिया का फल पड़ेकोद्वितीया
करणकाम करने (क्रिया) का साधनसे, के द्वारातृतीया
सम्प्रदानजिसके लिए किया की जाएको,के लिएचतुर्थी
अपादानजिससे कोई वस्तु अलग होसे (अलग के अर्थ में)पंचमी
 सम्बन्धजो एक शब्द का दूसरे से सम्बन्ध जोड़ेका, की, के, रा, री, रेषष्ठी
अधिकरणजो क्रिया का आधार होमें,परसप्तमी
सम्बोधनजिससे किसी को पुकारा जायेहे! अरे! हो!सम्बोधन

विभक्तियाँ- 

सभी कारकों की स्पष्टता के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उन्हें व्याकरण में 'विभक्तियाँ' अथवा 'परसर्ग' कहते हैं।
विभक्ति से बने शब्द-रूप को 'पद' कहते हैं। शब्द (संज्ञा और क्रिया) बिना पद बने वाक्य में नहीं चल सकते। ऊपर सभी कारकों के विभक्त-चिह्न दे दिये गये हैं।
विभक्तियों की प्रायोगिक विशेषताएँ
प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी कारक की विभक्तियों की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इनका व्यवहार करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(i) सामान्यतः विभक्तियाँ स्वतन्त्र हैं। इनका अस्तित्व स्वतन्त्र है। चूँकि एक काम शब्दों का सम्बन्ध दिखाना है, इसलिए इनका अर्थ नहीं होता। जैसे- ने, से आदि।
(ii) हिन्दी की विभक्तियाँ विशेष रूप से सर्वनामों के साथ प्रयुक्त होने पर प्रायः विकार उत्पत्र कर उनसे मिल जाती हैं। जैसे- मेरा, हमारा, उसे, उन्हें।
(iii) विभक्तियाँ प्रायः संज्ञाओं या सर्वनामों के साथ आती है। जैसे- मोहन की दुकान से यह चीज आयी है।

विभक्तियों का प्रयोग

हिन्दी व्याकरण में विभक्तियों के प्रयोग की विधि निश्र्चित है। हिन्दी में दो तरह की विभक्तियाँ हैं-
(i) विश्लिष्ट और 
(ii) संश्लिष्ट।
संज्ञाओं के साथ आनेवाली विभक्तियाँ विश्लिष्ट होती है, अर्थात अलग रहती है। जैसे- राम ने, वृक्ष पर, लड़कों को, लड़कियों के लिए। सर्वनामों के साथ विभक्तियाँ संश्लिष्ट या मिली होती हैं। जैसे- उसका, किसपर, तुमको, तुम्हें, तेरा, तुम्हारा, उन्हें। यहाँ यह ध्यान रखना है कि तुम्हें-इन्हें में 'को' और तेरा-तुम्हारा में 'का' विभक्तिचिह्न संश्लिष्ट है। अतः 'के लिए'- जैसे दो शब्दों की विभक्ति में पहला शब्द संश्लिष्ट होगा और दूसरा विश्लिष्ट।
जैसे- तू + रे लिए =तेरे लिए; तुम + रे लिए =तुम्हारे लिए; मैं + रे लिए =मेरे लिए।
यहाँ प्रत्येक कारक और उसकी विभक्ति के प्रयोग का परिचय उदाहरणसहित दिया जाता है।

(1) कर्ता कारक (Nominative case):-

वाक्य में जो शब्द काम करने वाले के अर्थ में आता है, उसे कर्ता कहते है। दूसरे शब्द में- क्रिया का करने वाला 'कर्ता' कहलाता है।
इसकी विभक्ति 'ने' लुप्त है।
जैसे- ''मोहन खाता है।'' इस वाक्य में खाने का काम मोहन करता है अतः कर्ता मोहन है ।
''मनोज ने पत्र लिखा।'' इस वाक्य क्रिया का करने वाला 'मनोज' कर्ता है।
विशेष- कभी-कभी कर्ता कारक में 'ने' चिह्न नहीं भी लगता है। जैसे- 'घोड़ा' दौड़ता है।
इसकी दो विभक्तियाँ है- ने और ०। संस्कृत का कर्ता ही हिन्दी का कर्ताकारक है। वाक्य में कर्ता का प्रयोग दो रूपों में होता है- पहला वह, जिसमें 'ने' विभक्ति नहीं लगती, अर्थात जिसमें क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार होते हैं। इसे 'अप्रत्यय कर्ताकारक' कहते है। इसे 'प्रधान कर्ताकारक' भी कहा जाता है।
उदाहरणार्थ, 'मोहन खाता है। यहाँ 'खाता हैं' क्रिया है, जो कर्ता 'मोहन' के लिंग और वचन के अनुसार है। इसके विपरीत जहाँ क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते है, वहाँ 'ने' विभक्ति लगती है। इसे व्याकरण में 'सप्रत्यय कर्ताकारक' कहते हैं। इसे 'अप्रधान कर्ताकारक' भी कहा जाता है। उदाहरणार्थ, 'श्याम ने मिठाई खाई'। इस वाक्य में क्रिया 'खाई' कर्म 'मिठाई' के अनुसार आयी है।
कर्ता के 'ने' चिह्न का प्रयोग कर्ताकारक की विभक्ति 'ने' है। बिना विभक्ति के भी कर्ताकारक का प्रयोग होता है। 'अप्रत्यय कर्ताकारक' में 'ने' का प्रयोग न होने के कारण वाक्यरचना में कोई खास कठिनाई नहीं होती। 'ने' का प्रयोग अधिकतर 'पश्र्चिमी हिन्दी' में होता है। बनारस से पंजाब तक इसके प्रयोग में लोगों को विशेष कठिनाई नहीं होती; क्योंकि इस 'ने' विभक्ति की सृष्टि उधर ही हुई है।
हिन्दी भाषा की इस विभक्ति से अहिन्दीभाषी घबराते हैं। लेकिन, थोड़ी सावधानी रखी जाय और इसकी व्युत्पत्ति को ध्यान में रखा जाय, तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि ''इसका स्वरूप तथा प्रयोग जैसा संस्कृत में है, वैसा हिन्दी में भी है, हिन्दी में वैशिष्टय नहीं आया।''
खड़ीबोली हिन्दी में 'ने' चिह्न कर्ताकारक में संज्ञा-शब्दों की एक विश्लिष्ट विभक्ति है, जिसकी स्थिति बड़ी नपी-तुली और स्पष्ट है। किन्तु, हिन्दी लिखने में इसके प्रयोग की भूलें प्रायः हो जाया करती हैं। 'ने' का प्रयोग केवल हिन्दी और उर्दू में होता है। अहिन्दीभाषियों को 'ने' के प्रयोग में कठिनाई होती है।
यहाँ यह दिखाया गया है कि हिन्दी भाषा में 'ने' का प्रयोग कहाँ होता है और कहाँ नहीं होता।

कर्ता के 'ने' विभक्ति-चिह्न का प्रयोग कहाँ होता ?

'ने' विभक्ति का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है।
(i) 'ने' का प्रयोग कर्ता के साथ तब होता है, जब एकपदीय या संयुक्त क्रिया सकर्मक भूतकालिक होती है। केवल सामान्य भूत, आसन्न भूत, पूर्ण भूत, संदिग्ध भूत, हेतुहेतुमद् भूत कालों में 'ने' विभक्ति लगती है। जैसे-
सामान्य भूत- राम ने रोटी खायी।
आसन्न भूत- राम ने रोटी खायी है।
पूर्ण भूत- राम ने रोटी खायी थी।
संदिग्ध भूत-राम ने रोटी खायी होगी।
हेतुहेतुमद् भूत- राम ने पुस्तक पढ़ी होती, तो उत्तर ठीक होता।
तात्पर्य यह है कि केवल अपूर्ण भूत को छोड़ शेष पाँच भूतकालों में 'ने' का प्रयोग होता है।
(ii) सामान्यतः अकर्मक क्रिया में 'ने' विभक्ति नहीं लगती, किन्तु कुछ ऐसी अकर्मक क्रियाएँ है, जैसे- नहाना, छींकना, थूकना, खाँसना- जिनमें 'ने' चिह्न का प्रयोग अपवादस्वरूप होता है। इन क्रियाओं के बाद कर्म नहीं आता।
जैसे- उसने थूका। राम ने छींका। उसने खाँसा। उसने नहाया।
(iii) जब अकर्मक क्रिया सकर्मक बन जाय, तब 'ने' का प्रयोग होता है, अन्यथा नहीं।
जैसे- उसने टेढ़ी चाल चली। उसने लड़ाई लड़ी।
(iv) जब संयुक्त क्रिया के दोनों खण्ड सकर्मक हों, तो अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में कर्ता के आगे 'ने' चिह्न का प्रयोग होता है।
जैसे- श्याम ने उत्तर कह दिया। किशोर ने खा लिया।
(v) प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ, अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में 'ने' का प्रयोग होता है।
जैसे- मैंने उसे पढ़ाया। उसने एक रुपया दिलवाया।

कर्ता के 'ने' विभक्ति-चिह्न का प्रयोग कहाँ नहीं होता ?

'ने' विभक्ति का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में नहीं होता है।
(i) वर्तमान और भविष्यत् कालों की क्रिया में कर्ता के साथ 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- राम जाता है। राम जायेगा।
(ii) बकना, बोलना, भूलना- ये क्रियाएँ यद्यपि सकर्मक हैं, तथापि अपवादस्वरूप सामान्य, आसत्र, पूर्ण और सन्दिग्ध भूतकालों में कर्ता के 'ने' चिह्न का व्यवहार नहीं होता।
जैसे- वह गाली बका। वह बोला। वह मुझे भूला।
हाँ, 'बोलना' क्रिया में कहीं-कहीं 'ने' आता है।
जैसे- उसने बोलियाँ बोलीं।
'वह बोलियाँ बोला'- ऐसा भी लिखा या कहा जा सकता है।
(iii) यदि संयुक्त क्रिया का अन्तिम खण्ड अकर्मक हो, तो उसमें 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- मैं खा चुका। वह पुस्तक ले आया। उसे रेडियो ले जाना है।
(iv) जिन वाक्यों में लगना, जाना, सकना तथा चुकना सहायक क्रियाएँ आती हैं उनमे 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- वह खा चुका। मैं पानी पीने लगा। उसे पटना जाना हैं।

कर्ता में 'को' का प्रयोग-

विधि-क्रिया ('चाहिए' आदि) और संभाव्य भूत ('जाना था', 'करना चाहिए था' आदि) में कर्ता 'को' के साथ आता है।
जैसे- राम को जाना चाहिए। राम को जाना था, जाना चाहिए था।

(2)कर्म कारक (Accusative case) :-

जिस संज्ञा या सर्वनाम पर क्रिया का प्रभाव पड़े उसे कर्म कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'को' है।
जैसे- माँ बच्चे को सुला रही है।
इस वाक्य में सुलाने की क्रिया का प्रभाव बच्चे पर पड़ रहा है। इसलिए 'बच्चे को' कर्म कारक है।
राम ने रावण को मारा। यहाँ 'रावण को' कर्म है।
विशेष-कभी-कभी 'को' चिह्न का प्रयोग नहीं भी होता है। जैसे- मोहन पुस्तक पढता है।
कर्मकारक का प्रत्यय चिह्न 'को' है। बिना प्रत्यय के या अप्रत्यय कर्म के कारक का भी प्रयोग होता है। इसके नियम है-
(i) बुलाना, सुलाना, कोसना, पुकारना, जगाना, भगाना इत्यादि क्रियाओं के कर्मों के साथ 'को' विभक्ति लगती है।
जैसे- मैंने हरि को बुलाया।
माँ ने बच्चे को सुलाया।
शीला ने सावित्री को जी भर कोसा।
पिता ने पुत्र को पुकारा।
हमने उसे (उसकी) खूब सबेरे जगाया।
लोगों ने शेरगुल करके डाकुओं को भगाया।
(ii) 'मारना' क्रिया का अर्थ जब 'पीटना' होता है, तब कर्म के साथ विभक्ति लगती है, पर यदि उसका अर्थ 'शिकार करना' होता है, तो विभक्ति नहीं लगती, अर्थात कर्म अप्रत्यय रहता है।
जैसे-
लोगों ने चोर को मारा।
पर- शिकारी ने बाघ मारा।
हरि ने बैल को मारा।
पर- मछुए ने मछली मारी।
(iii) बहुधा कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति जताने के लिए कर्म सप्रत्यय रखा जाता है। जैसे- मैंने यह तालाब खुदवाया है, मैंने इस तालाब को खुदवाया है। दोनों वाक्यों में अर्थ का अन्तर ध्यान देने योग्य है। पहले वाक्य के कर्म से कर्ता में साधारण कर्तृत्वशक्ति का और दूसरे वाक्य में कर्म से कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध होता है। इस तरह के अन्य वाक्य है- बाघ बकरी को खा गया, हरि ने ही पेड़ को काटा है, लड़के ने फलों को तोड़ लिया इत्यादि। जहाँ कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध कराने की आवश्यकता न हो, वहाँ सभी स्थानों पर कर्म को सप्रत्यय नहीं रखना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, जब कर्म निर्जीव वस्तु हो, तब 'को' का प्रयोग नहीं होना चाहिए। जैसे- 'राम ने रोटी को खाया' की अपेक्षा 'राम ने रोटी खायी ज्यादा अच्छा है। मैं कॉंलेज को जा रहा हूँ; मैं आम को खा रहा हूँ; मैं कोट को पहन रहा हूँ- इन उदाहरणों में 'को' का प्रयोग भद्दा है। प्रायः चेतन पदार्थों के साथ 'को' चिह्न का प्रयोग होता है और अचेतन के साथ नहीं। पर यह अन्तर वाक्य-प्रयोग पर निर्भर करता है।
(iv) कर्म सप्रत्यय रहने पर क्रिया सदा पुंलिंग होगी, किन्तु अप्रत्यय रहने पर कर्म के अनुसार।
जैसे- राम ने रोटी को खाया (सप्रत्यय), राम ने रोटी खायी (अप्रत्यय)।
(v) यदि विशेषण संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हों, तो कर्म में 'को' अवश्य लगता है।
जैसे- बड़ों को पहले आदर दो,; छोटों को प्यार करो।

(3)करण कारक (Instrument case):-

जिस वस्तु की सहायता से या जिसके द्वारा कोई काम किया जाता है, उसे करण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य में जिस शब्द से क्रिया के सम्बन्ध का बोध हो, उसे करण कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'से' है।
जैसे- ''हम आँखों से देखते है।''
इस वाक्य में देखने की क्रिया करने के लिए आँख की सहायता ली गयी है। इसलिए आँखों से करण कारक है ।
करणकारक के सबसे अधिक प्रत्ययचिह्न हैं। 'ने' भी करणकारक का ऐसा चिह्न है, जो करणकारक के रूप में संस्कृत में आये कर्ता के लिए 'एन' के रूप में, कर्मवाच्य और भाववाच्य में आता है। किन्तु, हिन्दी की प्रकृति 'ने' को सप्रत्यय कर्ताकारक का ही चिह्न मानती है।
हिन्दी में करणकारक के अन्य चिह्न है- से, द्वारा, के द्वारा, के जरिए, के साथ, के बिना इत्यादि। इन चिह्नों में अधिकतर प्रचलित से', 'द्वारा', 'के द्वारा' 'के जरिए' इत्यादि ही है। 'के साथ', के बिना' आदि साधनात्मक योग-वियोग जतानेवाले अव्ययों के कारण, साधनात्मक योग बतानेवाले 'के द्वारा' की ही तरह के करणकारक के चिह्न हैं। 'करन' का अर्थ है 'साधन'। अतः 'से' चिह्न वहीं करणकारक का चिह्न है जहाँ यह 'साधन' के अर्थ में प्रयुक्त हो।
जैसे- मुझसे यह काम न सधेगा। यहाँ 'मुझसे' का अर्थ है 'मेरे द्वारा', 'मुझ साधनभूत के द्वारा' या 'मुझ-जैसे साधन के द्वारा। अतः 'साधन' को इंगित करने के कारण यहाँ 'मुझसे' का 'से' करण का विभक्तिचिह्न है। अपादान का भी विभक्तिचिह्न 'से' है।
'अपादान' का अर्थ है 'अलगाव की प्राप्ति' । अतः अपादान का 'से' चिह्न अलगाव के संकेत का प्रतीक है, जबकि करन का, अपादान के विपरीत, साधना का, साधनभूत लगाव का। 'पेड़ से फल गिरा', 'मैं घर से चला' आदि वाक्यों में 'से' प्रत्यय 'पेड़' को या घर को 'साधन' नहीं सिद्ध करता, बल्कि इन दोनों से बिलगाव सिद्ध करता है। अतः इन दोनों वाक्यों में 'घर' और 'पेड़' के आगे प्रयुक्त 'से' विभक्तिचिह्न अपादानकारक का है और इन दोनों शब्दों में लगाकर इन्हे अपादानकारक का 'पद' बनाता है।
करणकारक का क्षेत्र अन्य सभी कारकों से विस्तृत है। इस कारण में अन्य समस्त कारकों से छूटे हुए प्रत्यय या वे पद जो अन्य किसी कारक में आने से बच गए हों, आ जाते है।
अतः इसकी कुछ सामान्य पहचान और नियम जान लेना आवश्यक है-
(i) 'से' करन और अपादान दोनों विभक्तियों का चिह्न है, किन्तु साधनभूत का प्रत्यय होने पर करण माना जायेगा, जबकि अलगाव का प्रत्यय होने पर अपादान।
जैसे- वह कुल्हाड़ी से वृक्ष काटता है।
मुझे अपनी कमाई से खाना मिलता है।
साधुओं की संगति से बुद्धि सुधरती है।
यह तीनों करण है। 
पेड़ से फल गिरा।
घर से लौटा हुआ लड़का।
छत से उतरी हुई लता।
यह तीनों अपादान है।
(ii) 'ने' सप्रत्यय कर्ताकारक का चिह्न है। किन्तु, 'से', 'के द्वारा' और 'के जरिये' हिन्दी में प्रधानतः करणकारक के ही प्रत्यय माने जाते है; क्योंकि ये सारे प्रत्यय 'साधन' अर्थ की ओर इंगित करते हैं।
जैसे-
मुझसे यह काम न सधेगा।
उसके द्वारा यह कथा सुनी थी।
आपके जरिये ही घर का पता चला।
तीर से बाघ मार दिया गया।
मेरे द्वारा मकान ढहाया गया था।
(iii) भूख, प्यास, जाड़ा, आँख, कान, पाँव इत्यादि शब्द यदि एकवचन करणकारक में सप्रत्यय रहते है, तो एकवचन होते है और अप्रत्यय रहते है, तो बहुवचन।
जैसे- वह भूख से बेचैन है;............ वह भूखों बेचैन है;
लड़का प्यास से मर रहा है;............ लड़का प्यासों मर रहा है।
स्त्री जाड़े से काँप रही है;............. स्त्री जाड़ों काँप रही है।
मैंने अपनी आँख से यह घटना देखी;........ मैंने अपनी आँखों यह घटना देखी।
कान से सुनी बात पर विश्र्वास नहीं करना चाहिए;.......... कानों सुनी बात पर विश्र्वास नहीं करना चाहिए
लड़का अब अपने पाँव से चलता है;............. लड़का अब अपने पाँवों चलता है।

(4)सम्प्रदान कारक (Dative case):-

जिसके लिए कोई क्रिया (काम )की जाती है,
उसे सम्प्रदान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिसके लिए कुछ किया जाय या जिसको कुछ दिया जाय, इसका बोध करानेवाले शब्द के रूप को सम्प्रदान कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'को' और 'के लिए' है।
जैसे- शिष्य ने अपने गुरु के लिए सब कुछ किया। गरीब को धन दीजिए।
''वह अरुण के लिए मिठाई लाया।''
इस वाक्य में लाने का काम 'अरुण के लिए' हुआ। इसलिए 'अरुण के लिए' सम्प्रदान कारक है।
(i)कर्म और सम्प्रदान का एक ही विभक्तिप्रत्यय है 'को', पर दोनों के अर्थो में अन्तर है। सम्प्रदान का 'को', 'के लिए' अव्यय के स्थान पर या उसके अर्थ में प्रयुक्त होता है, जबकि कर्म के 'को' का 'के लिए' अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है।
नीचे लिखे वाक्यों पर ध्यान दीजिए-
कर्म- हरि मोहन को मारता है।......... सम्प्रदान- हरि मोहन को रुपये देता है।
कर्म- उसके लड़के को बुलाया।.......... सम्प्रदान- उसने लड़के को मिठाइयाँ दी।
कर्म- माँ ने बच्चे को खेलते देखा।....... सम्प्रदान- माँ ने बच्चे को खिलौने खरीदे।
(ii) साधारणतः जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई काम किया जाता है, वह पद सम्प्रदानकारक का होता है।
जैसे- भूखों को अत्र देना चाहिए और प्यासों को जल। गुरु ही शिष्य को ज्ञान देता है।
(iii) 'के हित', 'के वास्ते', 'के निर्मित' आदि प्रत्ययवाले अव्यय भी सम्प्रदानकारक के प्रत्यय है। जैसे-
राम के हित लक्ष्मण वन गये थे।
तुलसी के वास्ते ही जैसे राम ने अवतार लिया।
मेरे निर्मित ही ईश्र्वर की कोई कृपा नहीं।

(5)अपादान कारक(Ablative case):-

जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है,
उसे अपादान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु के अलग होने का भाव प्रकट होता है, उसे
अपादान कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'से' है।
जैसे- ''दूल्हा घोड़े से गिर पड़ा।''
इस वाक्य में 'गिरने' की क्रिया 'घोड़े से' हुई अथवा गिरकर दूल्हा घोड़े से अलग हो गया। इसलिए 'घोड़े से' अपादान कारक है।
जिस शब्द में अपादान की विभक्ति लगती है, उससे किसी दूसरी वस्तु के पृथक होने का बोध होता है। जैसे-
हिमालय से गंगा निकलती है।
मोहन ने घड़े से पानी ढाला।
बिल्ली छत से कूद पड़ी
चूहा बिल से बाहर निकला।
करण और अपादान के 'से' प्रत्यय में अर्थ का अन्तर करणवाचक के प्रसंग में बताया जा चुका है।

(6)सम्बन्ध कारक (Gentive case):-

शब्द के जिस रूप से संज्ञा या सर्वनाम के संबध का ज्ञान हो, उसे सम्बन्ध कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ सम्बन्ध या लगाव प्रतीत हो, उसे सम्बन्धकारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'का', 'की', और 'के' हैं।
जैसे- ''सीता का भाई आया है।''
इस वाक्य में गीता तथा भाई दोनों शब्द संज्ञा है। भाई से गीता का संबध दिखाया गया है। वह किसका भाई है ? गीता का। इसलिए गीता का संबध कारक है ।
रहीम का मकान छोटा है। संबंध का लिंग-वचन संबद्ध वस्तु के अनुसार होता है। जैसे- रहीम की कोठरी, रहीम के बेटे। सर्वनाम में संबंध में 'का', 'की', 'के' प्रत्यय का रूप 'रा', 'री', 'रे' या 'ना', 'नी', 'ने' भी होता है। जैसे- मेरा लड़का, मेरी लड़की, मेरे लड़के या अपना लड़का, अपनी लड़की, अपने लड़के।
(i) सम्बन्धकारक का विभक्तिचिह्न 'का' है। वचन और लिंग के अनुसार इसकी विकृति 'के' और 'की' है। इस कारक से अधिकतर कर्तृत्व, कार्य-कारण, मोल-भाव, परिमाण इत्यादि का बोध होता है।
जैसे-
अधिकतर- राम की किताब, श्याम का घर।
कर्तृत्व- प्रेमचन्द्र के उपन्यास, भारतेन्दु के नाटक।
कार्य-करण- चाँदी की थाली, सोने का गहना।
मोल-भाव- एक रुपए का चावल, पाँच रुपए का घी।
परिमाण- चार भर का हार, सौ मील की दूरी, पाँच हाथ की लाठी।
द्रष्टव्य- बहुधा सम्बन्धकारक की विभक्ति के स्थान में 'वाला' प्रत्यय भी लगता है। जैसे- रामवाली किताब, श्यामवाला घर, प्रेमचन्दवाले उपन्यास, चाँदीवाली थाली इत्यादि।
(ii) सम्बन्धकारक की विभक्तियों द्वारा कुछ मुहावरेदार प्रयोग भी होते है। जैसे-
(अ) दिन के दिन, महीने के महीने, होली की होली, दीवाली की दीवाली, रात की रात, दोपहर के दोपहर इत्यादि।
(आ) कान का कच्चा, बात का पक्का, आँख का अन्धा, गाँठ का पूरा, बात का धनी, दिल का सच्चा इत्यादि।
(इ) वह अब आने का नहीं, मैं अब जाने का नहीं, वह टिकने का नहीं इत्यादि।
(iii) दूसरे कारकों के अर्थ में भी सम्बन्धकारक की विभक्ति लगती है। जैसे- जन्म का भिखारी= जन्म से भिखारी (करण), हिमालय का चढ़ना= हिमालय पर चढ़ना (अधिकरण)।
(iv) सम्बन्ध, अधिकार और देने के अर्थ में बहुधा सम्बन्धकारक की विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे- हरि को बाल-बच्चा नहीं हैं। राम के बहन हुई है। राजा के आँखें नहीं होती, केवल कान होते हैं। रावण ने विभीषण के लात मारी। ब्राह्मण को दक्षिणा दो।
(v) सर्वनाम की स्थिति में सम्बन्धकारक का प्रत्यय रा-रे-री और ना-ने-नी हो जाता है। जैसे- मेरा लड़का, मेरी लड़की, तुम्हारा घर, तुम्हारी पगड़ी, अपना भरोसा, अपनी रोजी।

(7)अधिकरण कारक (Locative case):-

शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का ज्ञान होता है, उसे अधिकरण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- क्रिया या आधार को सूचित करनेवाली संज्ञा या सर्वनाम के स्वरूप को अधिकरण कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'में' और 'पर' हैं।
जैसे-
मोहन मैदान में खेल रहा है। इस वाक्य में 'खेलने' की क्रिया किस स्थान पर हो रही है ?
मैदान पर। इसलिए मैदान पर अधिकरण कारक है।
दूसरा उदाहरण-''मनमोहन छत पर खेल रहा है।'' इस वाक्य में 'खेलने' की क्रिया किस स्थान पर हो रही है?
'छत पर' । इसलिए 'छत पर' अधिकरण कारक है।
(i) कभी-कभी 'में' के अर्थ में 'पर' और 'पर' के अर्थ में 'में' का प्रयोग होता है। जैसे- तुम्हारे घर पर चार आदमी हैं=घर में। दूकान पर कोई नहीं था =दूकान में। नाव जल में तैरती है =जल पर।
(ii) कभी-कभी अधिकरणकारक की विभक्तियों का लोप भी हो जाता है। जैसे-
इन दिनों वह पटने है।
वह सन्ध्या समय गंगा-किनारे जाता है।
वह द्वार-द्वार भीख माँगता चलता है।
लड़के दरवाजे-दरवाजे घूम रहे हैं।
जिस समय वह आया था, उस समय मैं नहीं था।
उस जगह एक सभा होने जा रही है।
(iii) किनारे, आसरे और दिनों जैसे पद स्वयं सप्रत्यय अधिकरणकारक के है और यहाँ, वहाँ, समय आदि पदों का अर्थ सप्रत्यय अधिकरणकारक का है। अतः इन पदों की स्थिति में अधिकरणकारक का प्रत्यय नहीं लगता।

(8)संबोधन कारक(Vocative case):-

जिन शब्दों का प्रयोग किसी को बुलाने या पुकारने में किया जाता है, उसे संबोधन कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में-संज्ञा के जिस रूप से किसी के पुकारने या संकेत करने का भाव पाया जाता है, उसे सम्बोधन कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'अरे', 'हे' आदि है।
जैसे-
'हे भगवान' से पुकारने का बोध होता है। सम्बोधनकारक की कोई विभक्ति नहीं होती है। इसे प्रकट करने के लिए 'हे', 'अरे', 'रे' आदि शब्दों का प्रयोग होता है।
दूसरा उदाहरण-हे श्याम !इधर आओ । अरे! तुम क्या कर रहे हो ? उपयुक्त्त वाक्यों में 'हे श्याम!, अरे!' संबोधन कारक है।
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कारक (Case) की परिभाषा

संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं।
अथवा- संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से उनका (संज्ञा या सर्वनाम का) क्रिया से सम्बन्ध सूचित हो, उसे (उस रूप को) 'कारक' कहते हैं।
इन दो 'परिभाषाओं' का अर्थ यह हुआ कि संज्ञा या सर्वनाम के आगे जब 'ने', 'को', 'से' आदि विभक्तियाँ लगती हैं, तब उनका रूप ही 'कारक' कहलाता हैं।
तभी वे वाक्य के अन्य शब्दों से सम्बन्ध रखने योग्य 'पद' होते है और 'पद' की अवस्था में ही वे वाक्य के दूसरे शब्दों से या क्रिया से कोई लगाव रख पाते हैं। 'ने', 'को', 'से' आदि विभित्र विभक्तियाँ विभित्र कारकों की है। इनके लगने पर ही कोई शब्द 'कारकपद' बन पाता है और वाक्य में आने योग्य होता है। 'कारकपद' या 'क्रियापद' बने बिना कोई शब्द वाक्य में बैठने योग्य नहीं होता।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा अथवा सर्वनाम को क्रिया से जोड़ने वाले चिह्न अथवा परसर्ग ही कारक कहलाते हैं।
जैसे- ''रामचन्द्रजी ने खारे जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बँधवा दिया।''
इस वाक्य में 'रामचन्द्रजी ने', 'समुद्र पर', 'बन्दरों से' और 'पुल' संज्ञाओं के रूपान्तर है, जिनके द्वारा इन संज्ञाओं का सम्बन्ध 'बँधवा दिया' क्रिया के साथ सूचित होता है।
दूसरा उदाहरण- 
श्रीराम ने रावण को बाण से मारा
इस वाक्य में प्रत्येक शब्द एक-दूसरे से बँधा है और प्रत्येक शब्द का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में क्रिया के साथ है।
यहाँ 'ने' 'को' 'से' शब्दों ने वाक्य में आये अनेक शब्दों का सम्बन्ध क्रिया से जोड़ दिया है। यदि ये शब्द न हो तो शब्दों का क्रिया के साथ तथा आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होगा। संज्ञा या सर्वनाम का क्रिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने वाला रूप कारक होता है।
कारक के भेद-
हिन्दी में कारको की संख्या आठ है-
(1) कर्ता कारक (Nominative case)
(2) कर्म कारक (Accusative case)
(3) करण कारक (Instrument case)
(4) सम्प्रदान कारक(Dative case)
(5) अपादान कारक(Ablative case)
(6) सम्बन्ध कारक (Gentive case)
(7) अधिकरण कारक (Locative case)
(8) संबोधन कारक(Vocative case)
कारक के विभक्ति चिन्ह
कारकों की पहचान के चिह्न व लक्षण निम्न प्रकार हैं-
कारकलक्षणचिह्नकारक-चिह्न या विभक्तियाँ
कर्ताजो काम करेंनेप्रथमा
कर्मजिस पर क्रिया का फल पड़ेकोद्वितीया
करणकाम करने (क्रिया) का साधनसे, के द्वारातृतीया
सम्प्रदानजिसके लिए किया की जाएको,के लिएचतुर्थी
अपादानजिससे कोई वस्तु अलग होसे (अलग के अर्थ में)पंचमी
 सम्बन्धजो एक शब्द का दूसरे से सम्बन्ध जोड़ेका, की, के, रा, री, रेषष्ठी
अधिकरणजो क्रिया का आधार होमें,परसप्तमी
सम्बोधनजिससे किसी को पुकारा जायेहे! अरे! हो!सम्बोधन

विभक्तियाँ- 

सभी कारकों की स्पष्टता के लिए संज्ञा या सर्वनाम के आगे जो प्रत्यय लगाये जाते हैं, उन्हें व्याकरण में 'विभक्तियाँ' अथवा 'परसर्ग' कहते हैं।
विभक्ति से बने शब्द-रूप को 'पद' कहते हैं। शब्द (संज्ञा और क्रिया) बिना पद बने वाक्य में नहीं चल सकते। ऊपर सभी कारकों के विभक्त-चिह्न दे दिये गये हैं।
विभक्तियों की प्रायोगिक विशेषताएँ
प्रयोग की दृष्टि से हिन्दी कारक की विभक्तियों की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इनका व्यवहार करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(i) सामान्यतः विभक्तियाँ स्वतन्त्र हैं। इनका अस्तित्व स्वतन्त्र है। चूँकि एक काम शब्दों का सम्बन्ध दिखाना है, इसलिए इनका अर्थ नहीं होता। जैसे- ने, से आदि।
(ii) हिन्दी की विभक्तियाँ विशेष रूप से सर्वनामों के साथ प्रयुक्त होने पर प्रायः विकार उत्पत्र कर उनसे मिल जाती हैं। जैसे- मेरा, हमारा, उसे, उन्हें।
(iii) विभक्तियाँ प्रायः संज्ञाओं या सर्वनामों के साथ आती है। जैसे- मोहन की दुकान से यह चीज आयी है।

विभक्तियों का प्रयोग

हिन्दी व्याकरण में विभक्तियों के प्रयोग की विधि निश्र्चित है। हिन्दी में दो तरह की विभक्तियाँ हैं-
(i) विश्लिष्ट और 
(ii) संश्लिष्ट।
संज्ञाओं के साथ आनेवाली विभक्तियाँ विश्लिष्ट होती है, अर्थात अलग रहती है। जैसे- राम ने, वृक्ष पर, लड़कों को, लड़कियों के लिए। सर्वनामों के साथ विभक्तियाँ संश्लिष्ट या मिली होती हैं। जैसे- उसका, किसपर, तुमको, तुम्हें, तेरा, तुम्हारा, उन्हें। यहाँ यह ध्यान रखना है कि तुम्हें-इन्हें में 'को' और तेरा-तुम्हारा में 'का' विभक्तिचिह्न संश्लिष्ट है। अतः 'के लिए'- जैसे दो शब्दों की विभक्ति में पहला शब्द संश्लिष्ट होगा और दूसरा विश्लिष्ट।
जैसे- तू + रे लिए =तेरे लिए; तुम + रे लिए =तुम्हारे लिए; मैं + रे लिए =मेरे लिए।
यहाँ प्रत्येक कारक और उसकी विभक्ति के प्रयोग का परिचय उदाहरणसहित दिया जाता है।

(1) कर्ता कारक (Nominative case):-

वाक्य में जो शब्द काम करने वाले के अर्थ में आता है, उसे कर्ता कहते है। दूसरे शब्द में- क्रिया का करने वाला 'कर्ता' कहलाता है।
इसकी विभक्ति 'ने' लुप्त है।
जैसे- ''मोहन खाता है।'' इस वाक्य में खाने का काम मोहन करता है अतः कर्ता मोहन है ।
''मनोज ने पत्र लिखा।'' इस वाक्य क्रिया का करने वाला 'मनोज' कर्ता है।
विशेष- कभी-कभी कर्ता कारक में 'ने' चिह्न नहीं भी लगता है। जैसे- 'घोड़ा' दौड़ता है।
इसकी दो विभक्तियाँ है- ने और ०। संस्कृत का कर्ता ही हिन्दी का कर्ताकारक है। वाक्य में कर्ता का प्रयोग दो रूपों में होता है- पहला वह, जिसमें 'ने' विभक्ति नहीं लगती, अर्थात जिसमें क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार होते हैं। इसे 'अप्रत्यय कर्ताकारक' कहते है। इसे 'प्रधान कर्ताकारक' भी कहा जाता है।
उदाहरणार्थ, 'मोहन खाता है। यहाँ 'खाता हैं' क्रिया है, जो कर्ता 'मोहन' के लिंग और वचन के अनुसार है। इसके विपरीत जहाँ क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के अनुसार न होकर कर्म के अनुसार होते है, वहाँ 'ने' विभक्ति लगती है। इसे व्याकरण में 'सप्रत्यय कर्ताकारक' कहते हैं। इसे 'अप्रधान कर्ताकारक' भी कहा जाता है। उदाहरणार्थ, 'श्याम ने मिठाई खाई'। इस वाक्य में क्रिया 'खाई' कर्म 'मिठाई' के अनुसार आयी है।
कर्ता के 'ने' चिह्न का प्रयोग कर्ताकारक की विभक्ति 'ने' है। बिना विभक्ति के भी कर्ताकारक का प्रयोग होता है। 'अप्रत्यय कर्ताकारक' में 'ने' का प्रयोग न होने के कारण वाक्यरचना में कोई खास कठिनाई नहीं होती। 'ने' का प्रयोग अधिकतर 'पश्र्चिमी हिन्दी' में होता है। बनारस से पंजाब तक इसके प्रयोग में लोगों को विशेष कठिनाई नहीं होती; क्योंकि इस 'ने' विभक्ति की सृष्टि उधर ही हुई है।
हिन्दी भाषा की इस विभक्ति से अहिन्दीभाषी घबराते हैं। लेकिन, थोड़ी सावधानी रखी जाय और इसकी व्युत्पत्ति को ध्यान में रखा जाय, तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि ''इसका स्वरूप तथा प्रयोग जैसा संस्कृत में है, वैसा हिन्दी में भी है, हिन्दी में वैशिष्टय नहीं आया।''
खड़ीबोली हिन्दी में 'ने' चिह्न कर्ताकारक में संज्ञा-शब्दों की एक विश्लिष्ट विभक्ति है, जिसकी स्थिति बड़ी नपी-तुली और स्पष्ट है। किन्तु, हिन्दी लिखने में इसके प्रयोग की भूलें प्रायः हो जाया करती हैं। 'ने' का प्रयोग केवल हिन्दी और उर्दू में होता है। अहिन्दीभाषियों को 'ने' के प्रयोग में कठिनाई होती है।
यहाँ यह दिखाया गया है कि हिन्दी भाषा में 'ने' का प्रयोग कहाँ होता है और कहाँ नहीं होता।

कर्ता के 'ने' विभक्ति-चिह्न का प्रयोग कहाँ होता ?

'ने' विभक्ति का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में होता है।
(i) 'ने' का प्रयोग कर्ता के साथ तब होता है, जब एकपदीय या संयुक्त क्रिया सकर्मक भूतकालिक होती है। केवल सामान्य भूत, आसन्न भूत, पूर्ण भूत, संदिग्ध भूत, हेतुहेतुमद् भूत कालों में 'ने' विभक्ति लगती है। जैसे-
सामान्य भूत- राम ने रोटी खायी।
आसन्न भूत- राम ने रोटी खायी है।
पूर्ण भूत- राम ने रोटी खायी थी।
संदिग्ध भूत-राम ने रोटी खायी होगी।
हेतुहेतुमद् भूत- राम ने पुस्तक पढ़ी होती, तो उत्तर ठीक होता।
तात्पर्य यह है कि केवल अपूर्ण भूत को छोड़ शेष पाँच भूतकालों में 'ने' का प्रयोग होता है।
(ii) सामान्यतः अकर्मक क्रिया में 'ने' विभक्ति नहीं लगती, किन्तु कुछ ऐसी अकर्मक क्रियाएँ है, जैसे- नहाना, छींकना, थूकना, खाँसना- जिनमें 'ने' चिह्न का प्रयोग अपवादस्वरूप होता है। इन क्रियाओं के बाद कर्म नहीं आता।
जैसे- उसने थूका। राम ने छींका। उसने खाँसा। उसने नहाया।
(iii) जब अकर्मक क्रिया सकर्मक बन जाय, तब 'ने' का प्रयोग होता है, अन्यथा नहीं।
जैसे- उसने टेढ़ी चाल चली। उसने लड़ाई लड़ी।
(iv) जब संयुक्त क्रिया के दोनों खण्ड सकर्मक हों, तो अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में कर्ता के आगे 'ने' चिह्न का प्रयोग होता है।
जैसे- श्याम ने उत्तर कह दिया। किशोर ने खा लिया।
(v) प्रेरणार्थक क्रियाओं के साथ, अपूर्णभूत को छोड़ शेष सभी भूतकालों में 'ने' का प्रयोग होता है।
जैसे- मैंने उसे पढ़ाया। उसने एक रुपया दिलवाया।

कर्ता के 'ने' विभक्ति-चिह्न का प्रयोग कहाँ नहीं होता ?

'ने' विभक्ति का प्रयोग निम्नलिखित स्थितियों में नहीं होता है।
(i) वर्तमान और भविष्यत् कालों की क्रिया में कर्ता के साथ 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- राम जाता है। राम जायेगा।
(ii) बकना, बोलना, भूलना- ये क्रियाएँ यद्यपि सकर्मक हैं, तथापि अपवादस्वरूप सामान्य, आसत्र, पूर्ण और सन्दिग्ध भूतकालों में कर्ता के 'ने' चिह्न का व्यवहार नहीं होता।
जैसे- वह गाली बका। वह बोला। वह मुझे भूला।
हाँ, 'बोलना' क्रिया में कहीं-कहीं 'ने' आता है।
जैसे- उसने बोलियाँ बोलीं।
'वह बोलियाँ बोला'- ऐसा भी लिखा या कहा जा सकता है।
(iii) यदि संयुक्त क्रिया का अन्तिम खण्ड अकर्मक हो, तो उसमें 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- मैं खा चुका। वह पुस्तक ले आया। उसे रेडियो ले जाना है।
(iv) जिन वाक्यों में लगना, जाना, सकना तथा चुकना सहायक क्रियाएँ आती हैं उनमे 'ने' का प्रयोग नहीं होता।
जैसे- वह खा चुका। मैं पानी पीने लगा। उसे पटना जाना हैं।

कर्ता में 'को' का प्रयोग-

विधि-क्रिया ('चाहिए' आदि) और संभाव्य भूत ('जाना था', 'करना चाहिए था' आदि) में कर्ता 'को' के साथ आता है।
जैसे- राम को जाना चाहिए। राम को जाना था, जाना चाहिए था।

(2)कर्म कारक (Accusative case) :-

जिस संज्ञा या सर्वनाम पर क्रिया का प्रभाव पड़े उसे कर्म कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य में क्रिया का फल जिस शब्द पर पड़ता है, उसे कर्म कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'को' है।
जैसे- माँ बच्चे को सुला रही है।
इस वाक्य में सुलाने की क्रिया का प्रभाव बच्चे पर पड़ रहा है। इसलिए 'बच्चे को' कर्म कारक है।
राम ने रावण को मारा। यहाँ 'रावण को' कर्म है।
विशेष-कभी-कभी 'को' चिह्न का प्रयोग नहीं भी होता है। जैसे- मोहन पुस्तक पढता है।
कर्मकारक का प्रत्यय चिह्न 'को' है। बिना प्रत्यय के या अप्रत्यय कर्म के कारक का भी प्रयोग होता है। इसके नियम है-
(i) बुलाना, सुलाना, कोसना, पुकारना, जगाना, भगाना इत्यादि क्रियाओं के कर्मों के साथ 'को' विभक्ति लगती है।
जैसे- मैंने हरि को बुलाया।
माँ ने बच्चे को सुलाया।
शीला ने सावित्री को जी भर कोसा।
पिता ने पुत्र को पुकारा।
हमने उसे (उसकी) खूब सबेरे जगाया।
लोगों ने शेरगुल करके डाकुओं को भगाया।
(ii) 'मारना' क्रिया का अर्थ जब 'पीटना' होता है, तब कर्म के साथ विभक्ति लगती है, पर यदि उसका अर्थ 'शिकार करना' होता है, तो विभक्ति नहीं लगती, अर्थात कर्म अप्रत्यय रहता है।
जैसे-
लोगों ने चोर को मारा।
पर- शिकारी ने बाघ मारा।
हरि ने बैल को मारा।
पर- मछुए ने मछली मारी।
(iii) बहुधा कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति जताने के लिए कर्म सप्रत्यय रखा जाता है। जैसे- मैंने यह तालाब खुदवाया है, मैंने इस तालाब को खुदवाया है। दोनों वाक्यों में अर्थ का अन्तर ध्यान देने योग्य है। पहले वाक्य के कर्म से कर्ता में साधारण कर्तृत्वशक्ति का और दूसरे वाक्य में कर्म से कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध होता है। इस तरह के अन्य वाक्य है- बाघ बकरी को खा गया, हरि ने ही पेड़ को काटा है, लड़के ने फलों को तोड़ लिया इत्यादि। जहाँ कर्ता में विशेष कर्तृत्वशक्ति का बोध कराने की आवश्यकता न हो, वहाँ सभी स्थानों पर कर्म को सप्रत्यय नहीं रखना चाहिए।
इसके अतिरिक्त, जब कर्म निर्जीव वस्तु हो, तब 'को' का प्रयोग नहीं होना चाहिए। जैसे- 'राम ने रोटी को खाया' की अपेक्षा 'राम ने रोटी खायी ज्यादा अच्छा है। मैं कॉंलेज को जा रहा हूँ; मैं आम को खा रहा हूँ; मैं कोट को पहन रहा हूँ- इन उदाहरणों में 'को' का प्रयोग भद्दा है। प्रायः चेतन पदार्थों के साथ 'को' चिह्न का प्रयोग होता है और अचेतन के साथ नहीं। पर यह अन्तर वाक्य-प्रयोग पर निर्भर करता है।
(iv) कर्म सप्रत्यय रहने पर क्रिया सदा पुंलिंग होगी, किन्तु अप्रत्यय रहने पर कर्म के अनुसार।
जैसे- राम ने रोटी को खाया (सप्रत्यय), राम ने रोटी खायी (अप्रत्यय)।
(v) यदि विशेषण संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हों, तो कर्म में 'को' अवश्य लगता है।
जैसे- बड़ों को पहले आदर दो,; छोटों को प्यार करो।

(3)करण कारक (Instrument case):-

जिस वस्तु की सहायता से या जिसके द्वारा कोई काम किया जाता है, उसे करण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- वाक्य में जिस शब्द से क्रिया के सम्बन्ध का बोध हो, उसे करण कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'से' है।
जैसे- ''हम आँखों से देखते है।''
इस वाक्य में देखने की क्रिया करने के लिए आँख की सहायता ली गयी है। इसलिए आँखों से करण कारक है ।
करणकारक के सबसे अधिक प्रत्ययचिह्न हैं। 'ने' भी करणकारक का ऐसा चिह्न है, जो करणकारक के रूप में संस्कृत में आये कर्ता के लिए 'एन' के रूप में, कर्मवाच्य और भाववाच्य में आता है। किन्तु, हिन्दी की प्रकृति 'ने' को सप्रत्यय कर्ताकारक का ही चिह्न मानती है।
हिन्दी में करणकारक के अन्य चिह्न है- से, द्वारा, के द्वारा, के जरिए, के साथ, के बिना इत्यादि। इन चिह्नों में अधिकतर प्रचलित से', 'द्वारा', 'के द्वारा' 'के जरिए' इत्यादि ही है। 'के साथ', के बिना' आदि साधनात्मक योग-वियोग जतानेवाले अव्ययों के कारण, साधनात्मक योग बतानेवाले 'के द्वारा' की ही तरह के करणकारक के चिह्न हैं। 'करन' का अर्थ है 'साधन'। अतः 'से' चिह्न वहीं करणकारक का चिह्न है जहाँ यह 'साधन' के अर्थ में प्रयुक्त हो।
जैसे- मुझसे यह काम न सधेगा। यहाँ 'मुझसे' का अर्थ है 'मेरे द्वारा', 'मुझ साधनभूत के द्वारा' या 'मुझ-जैसे साधन के द्वारा। अतः 'साधन' को इंगित करने के कारण यहाँ 'मुझसे' का 'से' करण का विभक्तिचिह्न है। अपादान का भी विभक्तिचिह्न 'से' है।
'अपादान' का अर्थ है 'अलगाव की प्राप्ति' । अतः अपादान का 'से' चिह्न अलगाव के संकेत का प्रतीक है, जबकि करन का, अपादान के विपरीत, साधना का, साधनभूत लगाव का। 'पेड़ से फल गिरा', 'मैं घर से चला' आदि वाक्यों में 'से' प्रत्यय 'पेड़' को या घर को 'साधन' नहीं सिद्ध करता, बल्कि इन दोनों से बिलगाव सिद्ध करता है। अतः इन दोनों वाक्यों में 'घर' और 'पेड़' के आगे प्रयुक्त 'से' विभक्तिचिह्न अपादानकारक का है और इन दोनों शब्दों में लगाकर इन्हे अपादानकारक का 'पद' बनाता है।
करणकारक का क्षेत्र अन्य सभी कारकों से विस्तृत है। इस कारण में अन्य समस्त कारकों से छूटे हुए प्रत्यय या वे पद जो अन्य किसी कारक में आने से बच गए हों, आ जाते है।
अतः इसकी कुछ सामान्य पहचान और नियम जान लेना आवश्यक है-
(i) 'से' करन और अपादान दोनों विभक्तियों का चिह्न है, किन्तु साधनभूत का प्रत्यय होने पर करण माना जायेगा, जबकि अलगाव का प्रत्यय होने पर अपादान।
जैसे- वह कुल्हाड़ी से वृक्ष काटता है।
मुझे अपनी कमाई से खाना मिलता है।
साधुओं की संगति से बुद्धि सुधरती है।
यह तीनों करण है। 
पेड़ से फल गिरा।
घर से लौटा हुआ लड़का।
छत से उतरी हुई लता।
यह तीनों अपादान है।
(ii) 'ने' सप्रत्यय कर्ताकारक का चिह्न है। किन्तु, 'से', 'के द्वारा' और 'के जरिये' हिन्दी में प्रधानतः करणकारक के ही प्रत्यय माने जाते है; क्योंकि ये सारे प्रत्यय 'साधन' अर्थ की ओर इंगित करते हैं।
जैसे-
मुझसे यह काम न सधेगा।
उसके द्वारा यह कथा सुनी थी।
आपके जरिये ही घर का पता चला।
तीर से बाघ मार दिया गया।
मेरे द्वारा मकान ढहाया गया था।
(iii) भूख, प्यास, जाड़ा, आँख, कान, पाँव इत्यादि शब्द यदि एकवचन करणकारक में सप्रत्यय रहते है, तो एकवचन होते है और अप्रत्यय रहते है, तो बहुवचन।
जैसे- वह भूख से बेचैन है;............ वह भूखों बेचैन है;
लड़का प्यास से मर रहा है;............ लड़का प्यासों मर रहा है।
स्त्री जाड़े से काँप रही है;............. स्त्री जाड़ों काँप रही है।
मैंने अपनी आँख से यह घटना देखी;........ मैंने अपनी आँखों यह घटना देखी।
कान से सुनी बात पर विश्र्वास नहीं करना चाहिए;.......... कानों सुनी बात पर विश्र्वास नहीं करना चाहिए
लड़का अब अपने पाँव से चलता है;............. लड़का अब अपने पाँवों चलता है।

(4)सम्प्रदान कारक (Dative case):-

जिसके लिए कोई क्रिया (काम )की जाती है,
उसे सम्प्रदान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिसके लिए कुछ किया जाय या जिसको कुछ दिया जाय, इसका बोध करानेवाले शब्द के रूप को सम्प्रदान कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'को' और 'के लिए' है।
जैसे- शिष्य ने अपने गुरु के लिए सब कुछ किया। गरीब को धन दीजिए।
''वह अरुण के लिए मिठाई लाया।''
इस वाक्य में लाने का काम 'अरुण के लिए' हुआ। इसलिए 'अरुण के लिए' सम्प्रदान कारक है।
(i)कर्म और सम्प्रदान का एक ही विभक्तिप्रत्यय है 'को', पर दोनों के अर्थो में अन्तर है। सम्प्रदान का 'को', 'के लिए' अव्यय के स्थान पर या उसके अर्थ में प्रयुक्त होता है, जबकि कर्म के 'को' का 'के लिए' अर्थ से कोई सम्बन्ध नहीं है।
नीचे लिखे वाक्यों पर ध्यान दीजिए-
कर्म- हरि मोहन को मारता है।......... सम्प्रदान- हरि मोहन को रुपये देता है।
कर्म- उसके लड़के को बुलाया।.......... सम्प्रदान- उसने लड़के को मिठाइयाँ दी।
कर्म- माँ ने बच्चे को खेलते देखा।....... सम्प्रदान- माँ ने बच्चे को खिलौने खरीदे।
(ii) साधारणतः जिसे कुछ दिया जाता है या जिसके लिए कोई काम किया जाता है, वह पद सम्प्रदानकारक का होता है।
जैसे- भूखों को अत्र देना चाहिए और प्यासों को जल। गुरु ही शिष्य को ज्ञान देता है।
(iii) 'के हित', 'के वास्ते', 'के निर्मित' आदि प्रत्ययवाले अव्यय भी सम्प्रदानकारक के प्रत्यय है। जैसे-
राम के हित लक्ष्मण वन गये थे।
तुलसी के वास्ते ही जैसे राम ने अवतार लिया।
मेरे निर्मित ही ईश्र्वर की कोई कृपा नहीं।

(5)अपादान कारक(Ablative case):-

जिससे किसी वस्तु का अलग होना पाया जाता है,
उसे अपादान कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा के जिस रूप से किसी वस्तु के अलग होने का भाव प्रकट होता है, उसे
अपादान कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'से' है।
जैसे- ''दूल्हा घोड़े से गिर पड़ा।''
इस वाक्य में 'गिरने' की क्रिया 'घोड़े से' हुई अथवा गिरकर दूल्हा घोड़े से अलग हो गया। इसलिए 'घोड़े से' अपादान कारक है।
जिस शब्द में अपादान की विभक्ति लगती है, उससे किसी दूसरी वस्तु के पृथक होने का बोध होता है। जैसे-
हिमालय से गंगा निकलती है।
मोहन ने घड़े से पानी ढाला।
बिल्ली छत से कूद पड़ी
चूहा बिल से बाहर निकला।
करण और अपादान के 'से' प्रत्यय में अर्थ का अन्तर करणवाचक के प्रसंग में बताया जा चुका है।

(6)सम्बन्ध कारक (Gentive case):-

शब्द के जिस रूप से संज्ञा या सर्वनाम के संबध का ज्ञान हो, उसे सम्बन्ध कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से किसी अन्य शब्द के साथ सम्बन्ध या लगाव प्रतीत हो, उसे सम्बन्धकारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'का', 'की', और 'के' हैं।
जैसे- ''सीता का भाई आया है।''
इस वाक्य में गीता तथा भाई दोनों शब्द संज्ञा है। भाई से गीता का संबध दिखाया गया है। वह किसका भाई है ? गीता का। इसलिए गीता का संबध कारक है ।
रहीम का मकान छोटा है। संबंध का लिंग-वचन संबद्ध वस्तु के अनुसार होता है। जैसे- रहीम की कोठरी, रहीम के बेटे। सर्वनाम में संबंध में 'का', 'की', 'के' प्रत्यय का रूप 'रा', 'री', 'रे' या 'ना', 'नी', 'ने' भी होता है। जैसे- मेरा लड़का, मेरी लड़की, मेरे लड़के या अपना लड़का, अपनी लड़की, अपने लड़के।
(i) सम्बन्धकारक का विभक्तिचिह्न 'का' है। वचन और लिंग के अनुसार इसकी विकृति 'के' और 'की' है। इस कारक से अधिकतर कर्तृत्व, कार्य-कारण, मोल-भाव, परिमाण इत्यादि का बोध होता है।
जैसे-
अधिकतर- राम की किताब, श्याम का घर।
कर्तृत्व- प्रेमचन्द्र के उपन्यास, भारतेन्दु के नाटक।
कार्य-करण- चाँदी की थाली, सोने का गहना।
मोल-भाव- एक रुपए का चावल, पाँच रुपए का घी।
परिमाण- चार भर का हार, सौ मील की दूरी, पाँच हाथ की लाठी।
द्रष्टव्य- बहुधा सम्बन्धकारक की विभक्ति के स्थान में 'वाला' प्रत्यय भी लगता है। जैसे- रामवाली किताब, श्यामवाला घर, प्रेमचन्दवाले उपन्यास, चाँदीवाली थाली इत्यादि।
(ii) सम्बन्धकारक की विभक्तियों द्वारा कुछ मुहावरेदार प्रयोग भी होते है। जैसे-
(अ) दिन के दिन, महीने के महीने, होली की होली, दीवाली की दीवाली, रात की रात, दोपहर के दोपहर इत्यादि।
(आ) कान का कच्चा, बात का पक्का, आँख का अन्धा, गाँठ का पूरा, बात का धनी, दिल का सच्चा इत्यादि।
(इ) वह अब आने का नहीं, मैं अब जाने का नहीं, वह टिकने का नहीं इत्यादि।
(iii) दूसरे कारकों के अर्थ में भी सम्बन्धकारक की विभक्ति लगती है। जैसे- जन्म का भिखारी= जन्म से भिखारी (करण), हिमालय का चढ़ना= हिमालय पर चढ़ना (अधिकरण)।
(iv) सम्बन्ध, अधिकार और देने के अर्थ में बहुधा सम्बन्धकारक की विभक्ति का प्रयोग होता है। जैसे- हरि को बाल-बच्चा नहीं हैं। राम के बहन हुई है। राजा के आँखें नहीं होती, केवल कान होते हैं। रावण ने विभीषण के लात मारी। ब्राह्मण को दक्षिणा दो।
(v) सर्वनाम की स्थिति में सम्बन्धकारक का प्रत्यय रा-रे-री और ना-ने-नी हो जाता है। जैसे- मेरा लड़का, मेरी लड़की, तुम्हारा घर, तुम्हारी पगड़ी, अपना भरोसा, अपनी रोजी।

(7)अधिकरण कारक (Locative case):-

शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का ज्ञान होता है, उसे अधिकरण कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में- क्रिया या आधार को सूचित करनेवाली संज्ञा या सर्वनाम के स्वरूप को अधिकरण कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'में' और 'पर' हैं।
जैसे-
मोहन मैदान में खेल रहा है। इस वाक्य में 'खेलने' की क्रिया किस स्थान पर हो रही है ?
मैदान पर। इसलिए मैदान पर अधिकरण कारक है।
दूसरा उदाहरण-''मनमोहन छत पर खेल रहा है।'' इस वाक्य में 'खेलने' की क्रिया किस स्थान पर हो रही है?
'छत पर' । इसलिए 'छत पर' अधिकरण कारक है।
(i) कभी-कभी 'में' के अर्थ में 'पर' और 'पर' के अर्थ में 'में' का प्रयोग होता है। जैसे- तुम्हारे घर पर चार आदमी हैं=घर में। दूकान पर कोई नहीं था =दूकान में। नाव जल में तैरती है =जल पर।
(ii) कभी-कभी अधिकरणकारक की विभक्तियों का लोप भी हो जाता है। जैसे-
इन दिनों वह पटने है।
वह सन्ध्या समय गंगा-किनारे जाता है।
वह द्वार-द्वार भीख माँगता चलता है।
लड़के दरवाजे-दरवाजे घूम रहे हैं।
जिस समय वह आया था, उस समय मैं नहीं था।
उस जगह एक सभा होने जा रही है।
(iii) किनारे, आसरे और दिनों जैसे पद स्वयं सप्रत्यय अधिकरणकारक के है और यहाँ, वहाँ, समय आदि पदों का अर्थ सप्रत्यय अधिकरणकारक का है। अतः इन पदों की स्थिति में अधिकरणकारक का प्रत्यय नहीं लगता।

(8)संबोधन कारक(Vocative case):-

जिन शब्दों का प्रयोग किसी को बुलाने या पुकारने में किया जाता है, उसे संबोधन कारक कहते है।
दूसरे शब्दों में-संज्ञा के जिस रूप से किसी के पुकारने या संकेत करने का भाव पाया जाता है, उसे सम्बोधन कारक कहते है।
इसकी विभक्ति 'अरे', 'हे' आदि है।
जैसे-
'हे भगवान' से पुकारने का बोध होता है। सम्बोधनकारक की कोई विभक्ति नहीं होती है। इसे प्रकट करने के लिए 'हे', 'अरे', 'रे' आदि शब्दों का प्रयोग होता है।
दूसरा उदाहरण-हे श्याम !इधर आओ । अरे! तुम क्या कर रहे हो ? उपयुक्त्त वाक्यों में 'हे श्याम!, अरे!' संबोधन कारक है।
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क्रिया (Verb) की परिभाषा

जिस शब्द से किसी काम का करना या होना समझा जाय, उसे क्रिया कहते है। 
जैसे- पढ़ना, खाना, पीना, जाना इत्यादि।

'क्रिया' का अर्थ होता है- करना। प्रत्येक भाषा के वाक्य में क्रिया का बहुत महत्त्व होता है। प्रत्येक वाक्य क्रिया से ही पूरा होता है। क्रिया किसी कार्य के करने या होने को दर्शाती है। क्रिया को करने वाला 'कर्ता' कहलाता है।

अली पुस्तक पढ़ रहा है। 
बाहर बारिश हो रही है। 
बाजार में बम फटा। 
बच्चा पलंग से गिर गया।

उपर्युक्त वाक्यों में अली और बच्चा कर्ता हैं और उनके द्वारा जो कार्य किया जा रहा है या किया गया, वह क्रिया है; जैसे- पढ़ रहा है, गिर गया। 
अन्य दो वाक्यों में क्रिया की नहीं गई है, बल्कि स्वतः हुई है। अतः इसमें कोई कर्ता प्रधान नहीं है।

वाक्य में क्रिया का इतना अधिक महत्त्व होता है कि कर्ता अथवा अन्य योजकों का प्रयोग न होने पर भी केवल क्रिया से ही वाक्य का अर्थ स्पष्ट हो जाता है; जैसे-

(1) पानी लाओ। 
(2) चुपचाप बैठ जाओ। 
(3) रुको। 
(4) जाओ।

अतः कहा जा सकता है कि, 
जिन शब्दों से किसी काम के करने या होने का पता चले, उन्हें क्रिया कहते है।

क्रिया का मूल रूप 'धातु' कहलाता है। इनके साथ कुछ जोड़कर क्रिया के सामान्य रूप बनते हैं; जैसे-

धातु रूप

सामान्य रूप

बोल, पढ़, घूम, लिख, गा, हँस, देख आदि।

बोलना, पढ़ना, घूमना, लिखना, गाना, हँसना, देखना आदि।

मूल धातु में 'ना' प्रत्यय लगाने से क्रिया का सामान्य रूप बनता है।

क्रिया के भेद

रचना के आधार पर क्रिया के भेद

रचना के आधार पर क्रिया के चार भेद होते हैं-

(1) संयुक्त क्रिया (Compound Verb)

(2) नामधातु क्रिया(Nominal Verb)

(3) प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)

(4) पूर्वकालिक क्रिया(Absolutive Verb)

(1)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)- 

जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- दो या दो से अधिक क्रियाएँ मिलकर जब किसी एक पूर्ण क्रिया का बोध कराती हैं, तो उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।

जैसे- बच्चा विद्यालय से लौट आया 
किशोर रोने लगा
वह घर पहुँच गया।

उपर्युक्त वाक्यों में एक से अधिक क्रियाएँ हैं; जैसे- लौट, आया; रोने, लगा; पहुँच, गया। यहाँ ये सभी क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण कर रही हैं। अतः ये संयुक्त क्रियाएँ हैं।

इस प्रकार,
जिन वाक्यों की एक से अधिक क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण करती हैं, उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।

संयुक्त क्रिया में पहली क्रिया मुख्य क्रिया होती है तथा दूसरी क्रिया रंजक क्रिया।

रंजक क्रिया मुख्य क्रिया के साथ जुड़कर अर्थ में विशेषता लाती है;

जैसे- माता जी बाजार से आ गई। 
इस वाक्य में 'आ' मुख्य क्रिया है तथा 'गई' रंजक क्रिया। दोनों क्रियाएँ मिलकर संयुक्त क्रिया 'आना' का अर्थ दर्शा रही हैं।

विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भित्र है, क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद 'हो', 'रो', 'सो', 'खा' इत्यादि धातुओं से बनते है, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ 'होना', 'आना', 'जाना', 'रहना', 'रखना', 'उठाना', 'लेना', 'पाना', 'पड़ना', 'डालना', 'सकना', 'चुकना', 'लगना', 'करना', 'भेजना', 'चाहना' इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।

इसके अतिरिक्त, सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से- लेट जाना, गिर पड़ना। 
सकर्मक क्रिया से- बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना।

संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। जैसे- मैं पढ़ सकता हूँ। इसमें 'सकना' क्रिया 'पढ़ना' क्रिया के अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग अधिक होता है।

संयुक्त क्रिया के भेद

अर्थ के अनुसार संयुक्त क्रिया के 11 मुख्य भेद है-

(i) आरम्भबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरम्भ होने का बोध होता है, उसे 'आरम्भबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।

(ii) समाप्तिबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह 'समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह खा चुका है; वह पढ़ चुका है। धातु के आगे 'चुकना' जोड़ने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(iii) अवकाशबोधक- 

जिससे क्रिया को निष्पत्र करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह 'अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह मुश्किल से सोने पाया; जाने न पाया।

(iv) अनुमतिबोधक- 

जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह 'अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया' है। 
जैसे- मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया 'देना' धातु के योग से बनती है।

(v) नित्यताबोधक- 

जिससे कार्य की नित्यता, उसके बन्द न होने का भाव प्रकट हो, वह 'नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- हवा चल रही है; पेड़ बढ़ता गया; तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे 'जाना' या 'रहना' जोड़ने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।

(vi) आवश्यकताबोधक- 

जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह 'आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- यह काम मुझे करना पड़ता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ 'पड़ना' 'होना' या 'चाहिए' क्रियाओं को जोड़ने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(vii) निश्र्चयबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्र्चयता का बोध हो, उसे 'निश्र्चयबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं। 
जैसे- वह बीच ही में बोल उठा; उसने कहा- मैं मार बैठूँगा, वह गिर पड़ा; अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।

(viii) इच्छाबोधक- 

इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है। 
जैसे- वह घर आना चाहता है; मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में 'चाहना' क्रिया जोड़ने से इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(ix) अभ्यासबोधक- 

इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में 'करना' क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
जैसे- यह पढ़ा करता है; तुम लिखा करते हो; मैं खेला करता हूँ।

(x) शक्तिबोधक- 

इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है। 
जैसे- मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें 'सकना' क्रिया जोड़ी जाती है।

(xi) पुनरुक्त संयुक्त क्रिया- 

जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनिवाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें 'पुनरुक्त संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ा-लिखा करता है; वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है; पड़ोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।

(2) नामधातु क्रिया (Nominal Verb)- 

संज्ञा अथवा विशेषण के साथ क्रिया जोड़ने से जो संयुक्त क्रिया बनती है, उसे 'नामधातु क्रिया' कहते हैं।

जैसे- लुटेरों ने जमीन हथिया ली। हमें गरीबों को अपनाना चाहिए। 
उपर्युक्त वाक्यों में हथियाना तथा अपनाना क्रियाएँ हैं और ये 'हाथ' संज्ञा तथा 'अपना' सर्वनाम से बनी हैं। अतः ये नामधातु क्रियाएँ हैं।

इस प्रकार,
जो क्रियाएँ संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से बनती हैं, वे नामधातु क्रिया कहलाती हैं।

संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से निर्मित कुछ नामधातु क्रियाएँ इस प्रकार हैं :

संज्ञा शब्द

नामधातु क्रिया

शर्म

शर्माना

लोभ

लुभाना

बात

बतियाना

झूठ

झुठलाना

लात

लतियाना

दुख

दुखाना



सर्वनाम शब्द

नामधातु क्रिया

अपना

अपनाना



विशेषण शब्द

नामधातु क्रिया

साठ

सठियाना

तोतला

तुतलाना

नरम

नरमाना

गरम

गरमाना

लज्जा

लजाना

लालच

ललचाना

फ़िल्म

फिल्माना



अनुकरणवाची शब्द

नामधातु क्रिया

थप-थप

थपथपाना

थर-थर

थरथराना

कँप-कँप

कँपकँपाना

टन-टन

टनटनाना

बड़-बड़

बड़बड़ाना

खट-खट

खटखटाना

घर-घर

घरघराना

द्रष्टव्य- 

नामबोधक क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ नहीं हैं। संयुक्त क्रियाएँ दो क्रियाओं के योग से बनती है और नामबोधक क्रियाएँ संज्ञा अथवा विशेषण के मेल से बनती है। दोनों में यही अन्तर है।



(3)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)-

जिन क्रियाओ से इस बात का बोध हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वे प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। 
जैसे- काटना से कटवाना, करना से कराना।

एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है- 
मालिक नौकर से कार साफ करवाता है।
अध्यापिका छात्र से पाठ पढ़वाती हैं।

उपर्युक्त वाक्यों में मालिक तथा अध्यापिका प्रेरणा देने वाले कर्ता हैं। नौकर तथा छात्र को प्रेरित किया जा रहा है। अतः उपर्युक्त वाक्यों में करवाता तथा पढ़वाती प्रेरणार्थक क्रियाएँ हैं।

प्रेरणार्थक क्रिया में दो कर्ता होते हैं :

(1) प्रेरक कर्ता-प्रेरणा देने वाला; जैसे- मालिक, अध्यापिका आदि। 
(2) प्रेरित कर्ता-प्रेरित होने वाला अर्थात जिसे प्रेरणा दी जा रही है; जैसे- नौकर, छात्र आदि।

प्रेरणार्थक क्रिया के रूप

प्रेरणार्थक क्रिया के दो रूप हैं :
(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया 
(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया

(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया

माँ परिवार के लिए भोजन बनाती है। 
जोकर सर्कस में खेल दिखाता है। 
रानी अनिमेष को खाना खिलाती है। 
नौकरानी बच्चे को झूला झुलाती है। 
इन वाक्यों में कर्ता प्रेरक बनकर प्रेरणा दे रहा है। अतः ये प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया के उदाहरण हैं।

सभी प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं।

(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया

माँ पुत्री से भोजन बनवाती है। 
जोकर सर्कस में हाथी से करतब करवाता है। 
रानी राधा से अनिमेष को खाना खिलवाती है। 
माँ नौकरानी से बच्चे को झूला झुलवाती है।

इन वाक्यों में कर्ता स्वयं कार्य न करके किसी दूसरे को कार्य करने की प्रेरणा दे रहा है और दूसरे से कार्य करवा रहा है। अतः यहाँ द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया है।

प्रथम प्रेरणार्थक और द्वितीय प्रेरणार्थक-दोनों में क्रियाएँ एक ही हो रही हैं, परन्तु उनको करने और करवाने वाले कर्ता अलग-अलग हैं।

प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया प्रत्यक्ष होती है तथा द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया अप्रत्यक्ष होती है।

याद रखने वाली बात यह है कि अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक होने पर सकर्मक (कर्म लेनेवाली) हो जाती है। जैसे-
राम लजाता है। 
वह राम को लजवाता है।

प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं से बनती हैं। ऐसी क्रियाएँ हर स्थिति में सकर्मक ही रहती हैं। जैसे- मैंने उसे हँसाया; मैंने उससे किताब लिखवायी। पहले में कर्ता अन्य (कर्म) को हँसाता है और दूसरे में कर्ता दूसरे को किताब लिखने को प्रेरित करता है। इस प्रकार हिन्दी में प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप चलते हैं। प्रथम में 'ना' का और द्वितीय में 'वाना' का प्रयोग होता है- हँसाना- हँसवाना।

प्रेरणार्थक क्रियाओं के कुछ अन्य उदाहरण

मूल क्रिया

प्रथम प्रेरणार्थक

द्वितीय प्रेरणार्थक

उठना

उठाना

उठवाना

उड़ना

उड़ाना

उड़वाना

चलना

चलाना

चलवाना

देना

दिलाना

दिलवाना

जीना

जिलाना

जिलवाना

लिखना

लिखाना

लिखवाना

जगना

जगाना

जगवाना

सोना

सुलाना

सुलवाना

पीना

पिलाना

पिलवाना

देना

दिलाना

दिलवाना

धोना

धुलाना

धुलवाना

रोना

रुलाना

रुलवाना

घूमना

घुमाना

घुमवाना

पढ़ना

पढ़ाना

पढ़वाना

देखना

दिखाना

दिखवाना

खाना

खिलाना

खिलवाना

(4) पूर्वकालिक क्रिया (Absolutive Verb)- 

जिस वाक्य में मुख्य क्रिया से पहले यदि कोई क्रिया हो जाए, तो वह पूर्वकालिक क्रिया कहलाती हैं। 
दूसरे शब्दों में- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया 'पूर्वकालिक' कहलाती है।

जैसे- पुजारी ने नहाकर पूजा की 
राखी ने घर पहुँचकर फोन किया। 
उपर्युक्त वाक्यों में पूजा की तथा फोन किया मुख्य क्रियाएँ हैं। इनसे पहले नहाकर, पहुँचकर क्रियाएँ हुई हैं। अतः ये पूर्वकालिक क्रियाएँ हैं।

पूर्वकालिक का शाब्दिक अर्थ है-पहले समय में हुई।

पूर्वकालिक क्रिया मूल धातु में 'कर' अथवा 'करके' लगाकर बनाई जाती हैं; जैसे-

चोर सामान चुराकर भाग गया। 
व्यक्ति ने भागकर बस पकड़ी। 
छात्र ने पुस्तक से देखकर उत्तर दिया। 
मैंने घर पहुँचकर चैन की साँस ली।

कर्म के आधार पर क्रिया के भेद

कर्म की दृष्टि से क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :

(1)सकर्मक क्रिया(Transitive Verb) 
(2)अकर्मक क्रिया(Intransitive Verb)

(1)सकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जिस क्रिया के साथ कर्म भी हो, तो उसे सकर्मक क्रिया कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'सकर्मक क्रिया' उसे कहते है, जिसका कर्म हो या जिसके साथ कर्म की सम्भावना हो, अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का संचालन तो कर्ता से हो, पर जिसका फल या प्रभाव किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु, अर्थात कर्म पर पड़े।

दूसरे शब्दों में-वाक्य में क्रिया के होने के समय कर्ता का प्रभाव अथवा फल जिस व्यक्ति अथवा वस्तु पर पड़ता है, उसे कर्म कहते है।
सरल शब्दों में- जिस क्रिया का फल कर्म पर पड़े उसे सकर्मक क्रिया कहते है।

जैसे- अध्यापिका पुस्तक पढ़ा रही हैं।
माली ने पानी से पौधों को सींचा।
उपर्युक्त वाक्यों में पुस्तक, पानी और पौधे शब्द कर्म हैं, क्योंकि कर्ता (अध्यापिका तथा माली) का सीधा फल इन्हीं पर पड़ रहा है।

क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको लगाकर प्रश्न करने पर यदि उचित उत्तर मिले, तो वह सकर्मक क्रिया होती है; जैसे- उपर्युक्त वाक्यों में पढ़ा रही है, सींचा क्रियाएँ हैं। इनमें क्या, किसे तथा किसको प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं। अतः ये सकर्मक क्रियाएँ हैं।

कभी-कभी सकर्मक क्रिया का कर्म छिपा रहता है। जैसे- वह गाता है; वह पढ़ता है। यहाँ 'गीत' और 'पुस्तक' जैसे कर्म छिपे हैं।

सकर्मक क्रिया के भेद

सकर्मक क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :

(i) एककर्मक क्रिया
(ii) द्विकर्मक क्रिया

(i) एककर्मक क्रिया :-

जिस सकर्मक क्रियाओं में केवल एक ही कर्म होता है, वे एककर्मक सकर्मक क्रिया 
कहलाती हैं।

जैसे- श्याम फ़िल्म देख रहा है। 
नौकरानी झाड़ू लगा रही है।

इन उदाहरणों में फ़िल्म और झाड़ू कर्म हैं। 'देख रहा है' तथा 'लगा रही है' क्रिया का फल सीधा कर्म पर पड़ रहा है, साथ ही दोनों वाक्यों में एक-एक ही कर्म है। अतः यहाँ एककर्मक क्रिया है।

(ii) द्विकर्मक क्रिया :- 

द्विकर्मक अर्थात दो कर्मो से युक्त। जिन सकमर्क क्रियाओं में एक साथ दो-दो कर्म होते हैं, वे द्विकर्मक सकर्मक क्रिया कहलाते हैं।

जैसे- श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है। 
नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है।

इन उदाहरणों में क्या, किसके साथ तथा किससे प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं; जैसे-
पहले वाक्य में श्याम किसके साथ, क्या देख रहा है ?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है।

दूसरे वाक्य में नौकरानी किससे, क्या लगा रही है?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है। 
दोनों वाक्यों में एक साथ दो-दो कर्म आए हैं, अतः ये द्विकर्मक क्रियाएँ हैं।

द्विकर्मक क्रिया में एक कर्म मुख्य होता है तथा दूसरा गौण (आश्रित)।

मुख्य कर्म क्रिया से पहले तथा गौण कर्म के बाद आता है।

मुख्य कर्म अप्राणीवाचक होता है, जबकि गौण कर्म प्राणीवाचक होता है।

गौण कर्म के साथ 'को' विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, जो कई बार अप्रत्यक्ष भी हो सकती है; जैसे-

बच्चे गुरुजन को प्रणाम करते हैं। 
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)
सुरेंद्र ने छात्र को गणित पढ़ाया। 
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)

(2)अकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जब क्रिया के साथ कर्म नही होता तो उस क्रिया को अकर्मक क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन क्रियाओं का व्यापार और फल कर्ता पर हो, वे 'अकर्मक क्रिया' कहलाती हैं।

अ + कर्मक अर्थात कर्म रहित/कर्म के बिना। जिन क्रियाओं के साथ कर्म न लगा हो तथा क्रिया का फल कर्ता पर ही पड़े, उन्हें अकर्मक क्रिया कहते हैं।

अकर्मक क्रियाओं का 'कर्म' नहीं होता, क्रिया का व्यापार और फल दूसरे पर न पड़कर कर्ता पर पड़ता है। 
उदाहरण के लिए -
श्याम सोता है। इसमें 'सोना' क्रिया अकर्मक है। 'श्याम' कर्ता है, 'सोने' की क्रिया उसी के द्वारा पूरी होती है। अतः, सोने का फल भी उसी पर पड़ता है। इसलिए 'सोना' क्रिया अकर्मक है।

अन्य उदाहरण 
पक्षी उड़ रहे हैं। बच्चा रो रहा है।

उपर्युक्त वाक्यों में कोई कर्म नहीं है, क्योंकि यहाँ क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको, कहाँ आदि प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिल रहे हैं। अतः जहाँ क्रिया के साथ इन प्रश्नों के उत्तर न मिलें, वहाँ अकर्मक क्रिया होती है।

कुछ अकर्मक क्रियाएँ इस प्रकार हैं :
तैरना, कूदना, सोना, ठहरना, उछलना, मरना, जीना, बरसना, रोना, चमकना आदि।

सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान

सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान 'क्या', 'किसे' या 'किसको' आदि पश्र करने से होती है। यदि कुछ उत्तर मिले, तो समझना चाहिए कि क्रिया सकर्मक है और यदि न मिले तो अकर्मक होगी।
जैसे-

(i) 'राम फल खाता हैै।' 
प्रश्न करने पर कि राम क्या खाता है, उत्तर मिलेगा फल। अतः 'खाना' क्रिया सकर्मक है।
(ii) 'सीमा रोती है।'
इसमें प्रश्न पूछा जाये कि 'क्या रोती है ?' तो कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः इस वाक्य में रोना क्रिया अकर्मक है।

उदाहरणार्थ- मारना, पढ़ना, खाना- इन क्रियाओं में 'क्या' 'किसे' लगाकर पश्र किए जाएँ तो इनके उत्तर इस प्रकार होंगे-
पश्र- किसे मारा ?
उत्तर- किशोर को मारा। 
पश्र- क्या खाया ?
उत्तर- खाना खाया। 
पश्र- क्या पढ़ता है। 
उत्तर- किताब पढ़ता है। 
इन सब उदाहरणों में क्रियाएँ सकर्मक है।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती है और प्रसंग अथवा अर्थ के अनुसार इनके भेद का निर्णय किया जाता है। जैसे-

अकर्मक

सकर्मक

उसका सिर खुजलाता है।

वह अपना सिर खुजलाता है।

बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।

मैं घड़ा भरता हूँ।

तुम्हारा जी ललचाता है।

ये चीजें तुम्हारा जी ललचाती हैं।

जी घबराता है।

विपदा मुझे घबराती है।

वह लजा रही है।

वह तुम्हें लजा रही है।







***क्रिया (Verb) की परिभाषा

जिस शब्द से किसी काम का करना या होना समझा जाय, उसे क्रिया कहते है। 
जैसे- पढ़ना, खाना, पीना, जाना इत्यादि।

'क्रिया' का अर्थ होता है- करना। प्रत्येक भाषा के वाक्य में क्रिया का बहुत महत्त्व होता है। प्रत्येक वाक्य क्रिया से ही पूरा होता है। क्रिया किसी कार्य के करने या होने को दर्शाती है। क्रिया को करने वाला 'कर्ता' कहलाता है।

अली पुस्तक पढ़ रहा है। 
बाहर बारिश हो रही है। 
बाजार में बम फटा। 
बच्चा पलंग से गिर गया।

उपर्युक्त वाक्यों में अली और बच्चा कर्ता हैं और उनके द्वारा जो कार्य किया जा रहा है या किया गया, वह क्रिया है; जैसे- पढ़ रहा है, गिर गया। 
अन्य दो वाक्यों में क्रिया की नहीं गई है, बल्कि स्वतः हुई है। अतः इसमें कोई कर्ता प्रधान नहीं है।

वाक्य में क्रिया का इतना अधिक महत्त्व होता है कि कर्ता अथवा अन्य योजकों का प्रयोग न होने पर भी केवल क्रिया से ही वाक्य का अर्थ स्पष्ट हो जाता है; जैसे-

(1) पानी लाओ। 
(2) चुपचाप बैठ जाओ। 
(3) रुको। 
(4) जाओ।

अतः कहा जा सकता है कि, 
जिन शब्दों से किसी काम के करने या होने का पता चले, उन्हें क्रिया कहते है।

क्रिया का मूल रूप 'धातु' कहलाता है। इनके साथ कुछ जोड़कर क्रिया के सामान्य रूप बनते हैं; जैसे-

धातु रूप

सामान्य रूप

बोल, पढ़, घूम, लिख, गा, हँस, देख आदि।

बोलना, पढ़ना, घूमना, लिखना, गाना, हँसना, देखना आदि।

मूल धातु में 'ना' प्रत्यय लगाने से क्रिया का सामान्य रूप बनता है।

क्रिया के भेद

रचना के आधार पर क्रिया के भेद

रचना के आधार पर क्रिया के चार भेद होते हैं-

(1) संयुक्त क्रिया (Compound Verb)

(2) नामधातु क्रिया(Nominal Verb)

(3) प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)

(4) पूर्वकालिक क्रिया(Absolutive Verb)

(1)संयुक्त क्रिया (Compound Verb)- 

जो क्रिया दो या दो से अधिक धातुओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- दो या दो से अधिक क्रियाएँ मिलकर जब किसी एक पूर्ण क्रिया का बोध कराती हैं, तो उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।

जैसे- बच्चा विद्यालय से लौट आया 
किशोर रोने लगा
वह घर पहुँच गया।

उपर्युक्त वाक्यों में एक से अधिक क्रियाएँ हैं; जैसे- लौट, आया; रोने, लगा; पहुँच, गया। यहाँ ये सभी क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण कर रही हैं। अतः ये संयुक्त क्रियाएँ हैं।

इस प्रकार,
जिन वाक्यों की एक से अधिक क्रियाएँ मिलकर एक ही कार्य पूर्ण करती हैं, उन्हें संयुक्त क्रिया कहते हैं।

संयुक्त क्रिया में पहली क्रिया मुख्य क्रिया होती है तथा दूसरी क्रिया रंजक क्रिया।

रंजक क्रिया मुख्य क्रिया के साथ जुड़कर अर्थ में विशेषता लाती है;

जैसे- माता जी बाजार से आ गई। 
इस वाक्य में 'आ' मुख्य क्रिया है तथा 'गई' रंजक क्रिया। दोनों क्रियाएँ मिलकर संयुक्त क्रिया 'आना' का अर्थ दर्शा रही हैं।

विधि और आज्ञा को छोड़कर सभी क्रियापद दो या अधिक क्रियाओं के योग से बनते हैं, किन्तु संयुक्त क्रियाएँ इनसे भित्र है, क्योंकि जहाँ एक ओर साधारण क्रियापद 'हो', 'रो', 'सो', 'खा' इत्यादि धातुओं से बनते है, वहाँ दूसरी ओर संयुक्त क्रियाएँ 'होना', 'आना', 'जाना', 'रहना', 'रखना', 'उठाना', 'लेना', 'पाना', 'पड़ना', 'डालना', 'सकना', 'चुकना', 'लगना', 'करना', 'भेजना', 'चाहना' इत्यादि क्रियाओं के योग से बनती हैं।

इसके अतिरिक्त, सकर्मक तथा अकर्मक दोनों प्रकार की संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं। जैसे-
अकर्मक क्रिया से- लेट जाना, गिर पड़ना। 
सकर्मक क्रिया से- बेच लेना, काम करना, बुला लेना, मार देना।

संयुक्त क्रिया की एक विशेषता यह है कि उसकी पहली क्रिया प्रायः प्रधान होती है और दूसरी उसके अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। जैसे- मैं पढ़ सकता हूँ। इसमें 'सकना' क्रिया 'पढ़ना' क्रिया के अर्थ में विशेषता उत्पत्र करती है। हिन्दी में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग अधिक होता है।

संयुक्त क्रिया के भेद

अर्थ के अनुसार संयुक्त क्रिया के 11 मुख्य भेद है-

(i) आरम्भबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से क्रिया के आरम्भ होने का बोध होता है, उसे 'आरम्भबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ने लगा, पानी बरसने लगा, राम खेलने लगा।

(ii) समाप्तिबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया की पूर्णता, व्यापार की समाप्ति का बोध हो, वह 'समाप्तिबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह खा चुका है; वह पढ़ चुका है। धातु के आगे 'चुकना' जोड़ने से समाप्तिबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(iii) अवकाशबोधक- 

जिससे क्रिया को निष्पत्र करने के लिए अवकाश का बोध हो, वह 'अवकाशबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- वह मुश्किल से सोने पाया; जाने न पाया।

(iv) अनुमतिबोधक- 

जिससे कार्य करने की अनुमति दिए जाने का बोध हो, वह 'अनुमतिबोधक संयुक्त क्रिया' है। 
जैसे- मुझे जाने दो; मुझे बोलने दो। यह क्रिया 'देना' धातु के योग से बनती है।

(v) नित्यताबोधक- 

जिससे कार्य की नित्यता, उसके बन्द न होने का भाव प्रकट हो, वह 'नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- हवा चल रही है; पेड़ बढ़ता गया; तोता पढ़ता रहा। मुख्य क्रिया के आगे 'जाना' या 'रहना' जोड़ने से नित्यताबोधक संयुक्त क्रिया बनती है।

(vi) आवश्यकताबोधक- 

जिससे कार्य की आवश्यकता या कर्तव्य का बोध हो, वह 'आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रिया' है।
जैसे- यह काम मुझे करना पड़ता है; तुम्हें यह काम करना चाहिए। साधारण क्रिया के साथ 'पड़ना' 'होना' या 'चाहिए' क्रियाओं को जोड़ने से आवश्यकताबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(vii) निश्र्चयबोधक- 

जिस संयुक्त क्रिया से मुख्य क्रिया के व्यापार की निश्र्चयता का बोध हो, उसे 'निश्र्चयबोधक संयुक्त क्रिया' कहते हैं। 
जैसे- वह बीच ही में बोल उठा; उसने कहा- मैं मार बैठूँगा, वह गिर पड़ा; अब दे ही डालो। इस प्रकार की क्रियाओं में पूर्णता और नित्यता का भाव वर्तमान है।

(viii) इच्छाबोधक- 

इससे क्रिया के करने की इच्छा प्रकट होती है। 
जैसे- वह घर आना चाहता है; मैं खाना चाहता हूँ। क्रिया के साधारण रूप में 'चाहना' क्रिया जोड़ने से इच्छाबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।

(ix) अभ्यासबोधक- 

इससे क्रिया के करने के अभ्यास का बोध होता है। सामान्य भूतकाल की क्रिया में 'करना' क्रिया लगाने से अभ्यासबोधक संयुक्त क्रियाएँ बनती हैं।
जैसे- यह पढ़ा करता है; तुम लिखा करते हो; मैं खेला करता हूँ।

(x) शक्तिबोधक- 

इससे कार्य करने की शक्ति का बोध होता है। 
जैसे- मैं चल सकता हूँ, वह बोल सकता है। इसमें 'सकना' क्रिया जोड़ी जाती है।

(xi) पुनरुक्त संयुक्त क्रिया- 

जब दो समानार्थक अथवा समान ध्वनिवाली क्रियाओं का संयोग होता है, तब उन्हें 'पुनरुक्त संयुक्त क्रिया' कहते हैं।
जैसे- वह पढ़ा-लिखा करता है; वह यहाँ प्रायः आया-जाया करता है; पड़ोसियों से बराबर मिलते-जुलते रहो।

(2) नामधातु क्रिया (Nominal Verb)- 

संज्ञा अथवा विशेषण के साथ क्रिया जोड़ने से जो संयुक्त क्रिया बनती है, उसे 'नामधातु क्रिया' कहते हैं।

जैसे- लुटेरों ने जमीन हथिया ली। हमें गरीबों को अपनाना चाहिए। 
उपर्युक्त वाक्यों में हथियाना तथा अपनाना क्रियाएँ हैं और ये 'हाथ' संज्ञा तथा 'अपना' सर्वनाम से बनी हैं। अतः ये नामधातु क्रियाएँ हैं।

इस प्रकार,
जो क्रियाएँ संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से बनती हैं, वे नामधातु क्रिया कहलाती हैं।

संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अनुकरणवाची शब्दों से निर्मित कुछ नामधातु क्रियाएँ इस प्रकार हैं :

संज्ञा शब्द

नामधातु क्रिया

शर्म

शर्माना

लोभ

लुभाना

बात

बतियाना

झूठ

झुठलाना

लात

लतियाना

दुख

दुखाना



सर्वनाम शब्द

नामधातु क्रिया

अपना

अपनाना



विशेषण शब्द

नामधातु क्रिया

साठ

सठियाना

तोतला

तुतलाना

नरम

नरमाना

गरम

गरमाना

लज्जा

लजाना

लालच

ललचाना

फ़िल्म

फिल्माना



अनुकरणवाची शब्द

नामधातु क्रिया

थप-थप

थपथपाना

थर-थर

थरथराना

कँप-कँप

कँपकँपाना

टन-टन

टनटनाना

बड़-बड़

बड़बड़ाना

खट-खट

खटखटाना

घर-घर

घरघराना

द्रष्टव्य- 

नामबोधक क्रियाएँ संयुक्त क्रियाएँ नहीं हैं। संयुक्त क्रियाएँ दो क्रियाओं के योग से बनती है और नामबोधक क्रियाएँ संज्ञा अथवा विशेषण के मेल से बनती है। दोनों में यही अन्तर है।



(3)प्रेरणार्थक क्रिया (Causative Verb)-

जिन क्रियाओ से इस बात का बोध हो कि कर्ता स्वयं कार्य न कर किसी दूसरे को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है, वे प्रेरणार्थक क्रिया कहलाती है। 
जैसे- काटना से कटवाना, करना से कराना।

एक अन्य उदाहरण इस प्रकार है- 
मालिक नौकर से कार साफ करवाता है।
अध्यापिका छात्र से पाठ पढ़वाती हैं।

उपर्युक्त वाक्यों में मालिक तथा अध्यापिका प्रेरणा देने वाले कर्ता हैं। नौकर तथा छात्र को प्रेरित किया जा रहा है। अतः उपर्युक्त वाक्यों में करवाता तथा पढ़वाती प्रेरणार्थक क्रियाएँ हैं।

प्रेरणार्थक क्रिया में दो कर्ता होते हैं :

(1) प्रेरक कर्ता-प्रेरणा देने वाला; जैसे- मालिक, अध्यापिका आदि। 
(2) प्रेरित कर्ता-प्रेरित होने वाला अर्थात जिसे प्रेरणा दी जा रही है; जैसे- नौकर, छात्र आदि।

प्रेरणार्थक क्रिया के रूप

प्रेरणार्थक क्रिया के दो रूप हैं :
(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया 
(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया

(1) प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया

माँ परिवार के लिए भोजन बनाती है। 
जोकर सर्कस में खेल दिखाता है। 
रानी अनिमेष को खाना खिलाती है। 
नौकरानी बच्चे को झूला झुलाती है। 
इन वाक्यों में कर्ता प्रेरक बनकर प्रेरणा दे रहा है। अतः ये प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया के उदाहरण हैं।

सभी प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं।

(2) द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया

माँ पुत्री से भोजन बनवाती है। 
जोकर सर्कस में हाथी से करतब करवाता है। 
रानी राधा से अनिमेष को खाना खिलवाती है। 
माँ नौकरानी से बच्चे को झूला झुलवाती है।

इन वाक्यों में कर्ता स्वयं कार्य न करके किसी दूसरे को कार्य करने की प्रेरणा दे रहा है और दूसरे से कार्य करवा रहा है। अतः यहाँ द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया है।

प्रथम प्रेरणार्थक और द्वितीय प्रेरणार्थक-दोनों में क्रियाएँ एक ही हो रही हैं, परन्तु उनको करने और करवाने वाले कर्ता अलग-अलग हैं।

प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया प्रत्यक्ष होती है तथा द्वितीय प्रेरणार्थक क्रिया अप्रत्यक्ष होती है।

याद रखने वाली बात यह है कि अकर्मक क्रिया प्रेरणार्थक होने पर सकर्मक (कर्म लेनेवाली) हो जाती है। जैसे-
राम लजाता है। 
वह राम को लजवाता है।

प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं से बनती हैं। ऐसी क्रियाएँ हर स्थिति में सकर्मक ही रहती हैं। जैसे- मैंने उसे हँसाया; मैंने उससे किताब लिखवायी। पहले में कर्ता अन्य (कर्म) को हँसाता है और दूसरे में कर्ता दूसरे को किताब लिखने को प्रेरित करता है। इस प्रकार हिन्दी में प्रेरणार्थक क्रियाओं के दो रूप चलते हैं। प्रथम में 'ना' का और द्वितीय में 'वाना' का प्रयोग होता है- हँसाना- हँसवाना।

प्रेरणार्थक क्रियाओं के कुछ अन्य उदाहरण

मूल क्रिया

प्रथम प्रेरणार्थक

द्वितीय प्रेरणार्थक

उठना

उठाना

उठवाना

उड़ना

उड़ाना

उड़वाना

चलना

चलाना

चलवाना

देना

दिलाना

दिलवाना

जीना

जिलाना

जिलवाना

लिखना

लिखाना

लिखवाना

जगना

जगाना

जगवाना

सोना

सुलाना

सुलवाना

पीना

पिलाना

पिलवाना

देना

दिलाना

दिलवाना

धोना

धुलाना

धुलवाना

रोना

रुलाना

रुलवाना

घूमना

घुमाना

घुमवाना

पढ़ना

पढ़ाना

पढ़वाना

देखना

दिखाना

दिखवाना

खाना

खिलाना

खिलवाना

(4) पूर्वकालिक क्रिया (Absolutive Verb)- 

जिस वाक्य में मुख्य क्रिया से पहले यदि कोई क्रिया हो जाए, तो वह पूर्वकालिक क्रिया कहलाती हैं। 
दूसरे शब्दों में- जब कर्ता एक क्रिया समाप्त कर उसी क्षण दूसरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तब पहली क्रिया 'पूर्वकालिक' कहलाती है।

जैसे- पुजारी ने नहाकर पूजा की 
राखी ने घर पहुँचकर फोन किया। 
उपर्युक्त वाक्यों में पूजा की तथा फोन किया मुख्य क्रियाएँ हैं। इनसे पहले नहाकर, पहुँचकर क्रियाएँ हुई हैं। अतः ये पूर्वकालिक क्रियाएँ हैं।

पूर्वकालिक का शाब्दिक अर्थ है-पहले समय में हुई।

पूर्वकालिक क्रिया मूल धातु में 'कर' अथवा 'करके' लगाकर बनाई जाती हैं; जैसे-

चोर सामान चुराकर भाग गया। 
व्यक्ति ने भागकर बस पकड़ी। 
छात्र ने पुस्तक से देखकर उत्तर दिया। 
मैंने घर पहुँचकर चैन की साँस ली।

कर्म के आधार पर क्रिया के भेद

कर्म की दृष्टि से क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :

(1)सकर्मक क्रिया(Transitive Verb) 
(2)अकर्मक क्रिया(Intransitive Verb)

(1)सकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जिस क्रिया के साथ कर्म भी हो, तो उसे सकर्मक क्रिया कहते है।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है- 'सकर्मक क्रिया' उसे कहते है, जिसका कर्म हो या जिसके साथ कर्म की सम्भावना हो, अर्थात जिस क्रिया के व्यापार का संचालन तो कर्ता से हो, पर जिसका फल या प्रभाव किसी दूसरे व्यक्ति या वस्तु, अर्थात कर्म पर पड़े।

दूसरे शब्दों में-वाक्य में क्रिया के होने के समय कर्ता का प्रभाव अथवा फल जिस व्यक्ति अथवा वस्तु पर पड़ता है, उसे कर्म कहते है।
सरल शब्दों में- जिस क्रिया का फल कर्म पर पड़े उसे सकर्मक क्रिया कहते है।

जैसे- अध्यापिका पुस्तक पढ़ा रही हैं।
माली ने पानी से पौधों को सींचा।
उपर्युक्त वाक्यों में पुस्तक, पानी और पौधे शब्द कर्म हैं, क्योंकि कर्ता (अध्यापिका तथा माली) का सीधा फल इन्हीं पर पड़ रहा है।

क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको लगाकर प्रश्न करने पर यदि उचित उत्तर मिले, तो वह सकर्मक क्रिया होती है; जैसे- उपर्युक्त वाक्यों में पढ़ा रही है, सींचा क्रियाएँ हैं। इनमें क्या, किसे तथा किसको प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं। अतः ये सकर्मक क्रियाएँ हैं।

कभी-कभी सकर्मक क्रिया का कर्म छिपा रहता है। जैसे- वह गाता है; वह पढ़ता है। यहाँ 'गीत' और 'पुस्तक' जैसे कर्म छिपे हैं।

सकर्मक क्रिया के भेद

सकर्मक क्रिया के निम्नलिखित दो भेद होते हैं :

(i) एककर्मक क्रिया
(ii) द्विकर्मक क्रिया

(i) एककर्मक क्रिया :-

जिस सकर्मक क्रियाओं में केवल एक ही कर्म होता है, वे एककर्मक सकर्मक क्रिया 
कहलाती हैं।

जैसे- श्याम फ़िल्म देख रहा है। 
नौकरानी झाड़ू लगा रही है।

इन उदाहरणों में फ़िल्म और झाड़ू कर्म हैं। 'देख रहा है' तथा 'लगा रही है' क्रिया का फल सीधा कर्म पर पड़ रहा है, साथ ही दोनों वाक्यों में एक-एक ही कर्म है। अतः यहाँ एककर्मक क्रिया है।

(ii) द्विकर्मक क्रिया :- 

द्विकर्मक अर्थात दो कर्मो से युक्त। जिन सकमर्क क्रियाओं में एक साथ दो-दो कर्म होते हैं, वे द्विकर्मक सकर्मक क्रिया कहलाते हैं।

जैसे- श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है। 
नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है।

इन उदाहरणों में क्या, किसके साथ तथा किससे प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं; जैसे-
पहले वाक्य में श्याम किसके साथ, क्या देख रहा है ?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि श्याम अपने भाई के साथ फ़िल्म देख रहा है।

दूसरे वाक्य में नौकरानी किससे, क्या लगा रही है?
प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं कि नौकरानी फिनाइल से पोछा लगा रही है। 
दोनों वाक्यों में एक साथ दो-दो कर्म आए हैं, अतः ये द्विकर्मक क्रियाएँ हैं।

द्विकर्मक क्रिया में एक कर्म मुख्य होता है तथा दूसरा गौण (आश्रित)।

मुख्य कर्म क्रिया से पहले तथा गौण कर्म के बाद आता है।

मुख्य कर्म अप्राणीवाचक होता है, जबकि गौण कर्म प्राणीवाचक होता है।

गौण कर्म के साथ 'को' विभक्ति का प्रयोग किया जाता है, जो कई बार अप्रत्यक्ष भी हो सकती है; जैसे-

बच्चे गुरुजन को प्रणाम करते हैं। 
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)
सुरेंद्र ने छात्र को गणित पढ़ाया। 
(गौण कर्म)......... (मुख्य कर्म)

(2)अकर्मक क्रिया :-

वाक्य में जब क्रिया के साथ कर्म नही होता तो उस क्रिया को अकर्मक क्रिया कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिन क्रियाओं का व्यापार और फल कर्ता पर हो, वे 'अकर्मक क्रिया' कहलाती हैं।

अ + कर्मक अर्थात कर्म रहित/कर्म के बिना। जिन क्रियाओं के साथ कर्म न लगा हो तथा क्रिया का फल कर्ता पर ही पड़े, उन्हें अकर्मक क्रिया कहते हैं।

अकर्मक क्रियाओं का 'कर्म' नहीं होता, क्रिया का व्यापार और फल दूसरे पर न पड़कर कर्ता पर पड़ता है। 
उदाहरण के लिए -
श्याम सोता है। इसमें 'सोना' क्रिया अकर्मक है। 'श्याम' कर्ता है, 'सोने' की क्रिया उसी के द्वारा पूरी होती है। अतः, सोने का फल भी उसी पर पड़ता है। इसलिए 'सोना' क्रिया अकर्मक है।

अन्य उदाहरण 
पक्षी उड़ रहे हैं। बच्चा रो रहा है।

उपर्युक्त वाक्यों में कोई कर्म नहीं है, क्योंकि यहाँ क्रिया के साथ क्या, किसे, किसको, कहाँ आदि प्रश्नों के कोई उत्तर नहीं मिल रहे हैं। अतः जहाँ क्रिया के साथ इन प्रश्नों के उत्तर न मिलें, वहाँ अकर्मक क्रिया होती है।

कुछ अकर्मक क्रियाएँ इस प्रकार हैं :
तैरना, कूदना, सोना, ठहरना, उछलना, मरना, जीना, बरसना, रोना, चमकना आदि।

सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान

सकर्मक और अकर्मक क्रियाओं की पहचान 'क्या', 'किसे' या 'किसको' आदि पश्र करने से होती है। यदि कुछ उत्तर मिले, तो समझना चाहिए कि क्रिया सकर्मक है और यदि न मिले तो अकर्मक होगी।
जैसे-

(i) 'राम फल खाता हैै।' 
प्रश्न करने पर कि राम क्या खाता है, उत्तर मिलेगा फल। अतः 'खाना' क्रिया सकर्मक है।
(ii) 'सीमा रोती है।'
इसमें प्रश्न पूछा जाये कि 'क्या रोती है ?' तो कुछ भी उत्तर नहीं मिला। अतः इस वाक्य में रोना क्रिया अकर्मक है।

उदाहरणार्थ- मारना, पढ़ना, खाना- इन क्रियाओं में 'क्या' 'किसे' लगाकर पश्र किए जाएँ तो इनके उत्तर इस प्रकार होंगे-
पश्र- किसे मारा ?
उत्तर- किशोर को मारा। 
पश्र- क्या खाया ?
उत्तर- खाना खाया। 
पश्र- क्या पढ़ता है। 
उत्तर- किताब पढ़ता है। 
इन सब उदाहरणों में क्रियाएँ सकर्मक है।
कुछ क्रियाएँ अकर्मक और सकर्मक दोनों होती है और प्रसंग अथवा अर्थ के अनुसार इनके भेद का निर्णय किया जाता है। जैसे-

अकर्मक

सकर्मक

उसका सिर खुजलाता है।

वह अपना सिर खुजलाता है।

बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।

मैं घड़ा भरता हूँ।

तुम्हारा जी ललचाता है।

ये चीजें तुम्हारा जी ललचाती हैं।

जी घबराता है।

विपदा मुझे घबराती है।

वह लजा रही है।

वह तुम्हें लजा रही है।





 अं

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